Thursday, March 28, 2024

स्मृति: मानवाधिकार की लड़ाई की कीमत जिंदगी देकर चुकाई थी एडवोकेट शाहिद आज़मी ने

ऐसा वक्त़ आता है जब खामोशी गद्दारी बन जाती है… इतिहास इस बात को दर्ज करेगा कि सामाजिक संक्रमण के इस दौर में सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं थी कि बुरे लोगों की आवाज़ बुलंद थी, बल्कि यह कि अच्छे लोग पूरी तौर पर मौन थे। वक्त की यह मांग है कि हम कमजोरों, बेजुबानों और पीड़ितों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें।
– मार्टिन लूथर किंग

‘भारतीय न्यायपालिका में न्याय’ यह विषय है मुंबई में आयोजित व्याख्यान का जिसे शाहिद आज़मी की याद में किया जा रहा है। वही एडवोकेट शाहिद आज़मी, जिन्हें आज से ठीक ग्यारह साल पहले अपने ही दफ्तर में गोलियों से भून डाला गया था। (11 फरवरी 2010)

संभावनाओं से भरे एक जीवन की यात्रा अधबीच में ही समाप्त हो गई थी। गोल चेहरा, बिल्कुल क्लीन शेव, शक्ल ऐसी गोया टीवी या सिनेमा की दुनिया का कोई छोटा मोटा हीरो आप के सामने नमूदार हो रहा हो। लगभग छह साल की अपनी कानूनी प्रैक्टिस में बहुत कम वकील अपने सरोकार एवं अपनी सलाहियत के चलते इस कदर नाम कमाते हैं, जैसा कि शाहिद ने कमाया था। उम्र थी महज 32 साल। निश्चित ही आम तौर पर यह कोई ऐसी उम्र नहीं होती जिंदगी को अलविदा कहने की।

मगर सुदूर आज़मगढ़ से मुंबई पहुंचे इस युवा वकील एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता को शायद अंदाज़ा था कि यह घड़ी कभी भी आ सकती है, और इसीलिए उन्होंने पुलिस को कई बार इत्तेला दी थी कि उन्हें धमकियां मिल रही हैं। कहा जाता है कि ऐसे कुछ लोग पुलिस महकमे में भी थे, जिन्हें उनका जिंदा रहना नागवार गुजर रहा था और जिसका डर था वही हुआ, अपने किराए के मकान में वह अलस्सुबह बैठे ही थे, उसी वक्त दो लोग आए और उन्होंने वहीं पर उन्हें गोलियों से भून डाला था।

ग्यारह साल का वक्फा़ गुजर गया, लेकिन अभी भी उनकी अपनी हत्या का मुकदमा ठीक से शुरू भी नहीं हो सका है। कुल 107 गवाहों में से महज तीन गवाह अदालत के सामने अभी तक पेश हुए हैं। अभियुक्त- देवेंद्र जगताप, पिंटू डगले, विनोद विचारे और हंसमुख सोलंकी, उसी दिन गिरफ्तार किए गए थे। जगताप और सोलंकी जेल में हैं, बाकी दोनों अभियुक्त जमानत पर हैं।

 (https://www.thehindu.com/news/cities/mumbai/eleven-years-since-advocate-shahid-azmi-was-killed/article33802501.ece)

वैसे शाहिद की अपनी जीवनयात्रा बॉलीवुड के किसी फिल्म की पटकथा लग सकती है। 92 में बाबरी मस्जिद की तबाही के बाद जो फसाद का आलम था, उसमें स्कूल से लौटते हुए वह गली में खड़े एक पुलिसवाले की गोली का शिकार होते-होते बचे थे। गुमराह होकर शाहिद कश्मीर पहुंचे थे, जहां किसी मिलीटेंट समूह के साथ वह पाकिस्तान भी चले गए थे। वहां से निराश होकर भारत लौटने के बाद उन्हें टाडा के तहत बंदी बना लिया गया था और दिल्ली के तिहाड़ जेल में ही उन्होंने कई साल काटे थे। वहीं किरण बेदी की प्रेरणा से उन्होंने पढ़ाई जारी रखी थी। पढ़ने का उन्हें जबरदस्त शौक था, यहां तक कि जेल की लाइब्रेरी को बनाने में भी उन्होंने बहुत मेहनत की थी।

आखिर ऐसी क्या वजह थी कि शाहिद लोगों के आंखों की किरकिरी बने थे? दरअसल वकालत के पेशे में जो आम रवायत बनती जा रही है, उससे शाहिद अलग थे। मोनिका सखरानी लिखती हैं, ‘शाहिद न्याय के विचार के मुरीद थे। अन्याय के खिलाफ लड़ना उनकी जिंदगी का मकसद था और वही उनकी मौत का सबब बना। अगर वह दूसरी तरफ देखना शुरू करते, राज्य उत्पीड़नों, ढांचागत हिंसा और व्यवस्थाजनित अन्यायों को ‘केस’ की तरह देखते और न्याय के अपने संग्राम का हिस्सा नहीं समझते, तो निश्चित ही वह आज जिंदा रहते।’

वे उन मुकदमों को भी उठाते थे, जिन्हें हाथ में लेने से वकील भी डरते हैं, खासकर ये ऐसे मसले होते थे, जिनमें पुलिस आतंकवादी कह कर फर्जी मुकदमे में लोगों को बंद करती है। यह शाहिद का ही कमाल था कि इनमें से कई लोग बेदाग बाहर निकले थे और इस पूरी कवायद में पुलिस महकमे की छीछालेदर हुई थी। कमजोर तबके से जुड़े मुवक्किलों से फीस लेना तो दूर वह उनके कागज़ों का इंतजाम खुद अपने स्रोतों से करते थे। मिठी नदी के सुंदरीकरण से विस्थापितों के सवाल को या अपने घरों से उजाड़े गए झुग्गीवासियों के मसले भी उनके एजेंडे पर रहते थे। वह सेक्युलर एवं जनतांत्रिक शक्तियों के साथ भी जुड़े थे।

अपनी मौत के एक साल पहले की बात है, जब बंबई के आर्थर रोड जेल में बंद कैदियों के साथ तत्कालीन जेलर स्वाति साठे की ज्यादतियों के खिलाफ उन्होंने बंबई हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी और बंबई की उच्च अदालत ने बंदियों के पक्ष में एवं जेलर के खिलाफ फैसला दिया था। इन दिनों वह मुंबई ट्रेनों में हुए बम धमाके तथा मालेगांव में 2006 में हुए बम विस्फोट में पकड़े गए अभियुक्तों के मुकदमे की पैरवी कर रहे थे, और उनका आकलन था कि इन दोनों ही मामलों में गिरफ्तार अधिकतर लोग इसी तरह छूट जाएंगे, जैसे कि हैदराबाद के मक्का मस्जिद बम धमाके में छूटे थे। 26/11 में शामिल बताए गए फहीम अंसारी का केस भी वही देख रहे थे।

वकालत का काम, मानवाधिकार की हिफाजत के लिए निरंतर प्रयासों के बीच शाहिद आज़मी एक और काम में मुब्तिला थे, वह मुंबई के प्रतिष्ठित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज्; TISS में समय निकाल कर क्लास लेने भी जाते थे, जहां विद्यार्थियों के बीच वह काफी लोकप्रिय थे। विद्यार्थियों से बोलते हुए उन्होंने अपनी जिंदगी की दास्तां भी बयां की थी। उन्होंने कहा था कि बचपन में जब देवनार में रहता था तो मन ही मन सोचता रहता था कि क्या कभी मुझे यहां इस संस्थान में घुसने का भी मौका मिलेगा!

TISS के विद्यार्थियों के लिए यह बात आकलन से परे थी कि अपनी किशोरावस्था के तमाम बेशकीमती साल फर्जी मुकदमों के चलते टाडा बंदी के तौर पर सलाखों के पीछे गुजारने वाले इस शख्स ने कानून की इतनी बारीकियों की तालीम कब और कैसे हासिल की थी, और यही सवाल मुंबई में लंबे समय से सक्रिय जनतांत्रिक अधिकारों के हिमायती संगठन ‘कमेटी फार दे प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइटस’ या इंडियन एसोसिएशन ऑफ प्रोग्रेसिव लॉयर्स के सदस्यों के सामने रहता था, इसलिए जब किसी मसले पर शाहिद बोलने के लिए उठते तो लोग खामोश रह कर उन्हें सुनना पसंद करते थे। शाहिद इन संगठनों की सरगर्मियों का भी हिस्सा थे।

देश के हरेक नागरिक के लिए संविधान प्रदत्त अधिकारों की गारंटी करने के लिए प्रयासरत शाहिद आजमी की असामयिक हत्या के चंद माह पहले उन्हीं की तर्ज पर हुबली के युवा एडवोकेट नौशाद कासमजी की हत्या हुई थी। नौशाद कासमजी की एक पहचान यह भी थी कि वे मानवाधिकार हिमायती आंदोलन से संबद्ध थे और अपने प्रचंड मेधा एवं लगन के बलबूते उन्होंने पुलिस द्वारा गलत ढंग से फंसाए निरपराध लोगों को जमानत दिलवाने या पुलिस की ज्यादती का पर्दाफाश करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी।

प्रश्न उठता है कि क्या ऐसे लोग जिन्हें पुलिस किन्हीं कारणों से नापसन्द करती है या जिन्हें उसने खानापूरी के लिए झूठे मामलों में फंसाया है, उनकी पैरवी नहीं की जानी चाहिए? कमसे कम संविधान इस बात की इजाजत नहीं देता। आजाद हिंदुस्तान के सबसे पहले आतंकवादी में शुमार नाथुराम गोडसे और उनके साथियों ने हालांकि सरेआम महात्मा गांधी की हत्या की थी, इसकी वजह से उन्हें तुरंत सज़ा नहीं दी गई। उन पर मुकदमा चला और फिर उन्हें दण्ड दिया गया। उसी तरह इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के हत्यारों पर भी विधिवत मुकदमा चला।

दरअसल न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका से गठित राज्यसत्ता एवं नागरिक विशेष के बीच कायम वकीलनुमा सेतु या कानूनी सहायता का मामला अनुपस्थित हो जाए तो आम नागरिक पर किस किस्म का कहर बरपा हो सकता है, इसका आकलन संविधान निर्माताओं ने किया था। यह कहा जा सकता है कि हिंदुस्तान का संविधान जो न्याय की एक जनतांत्रिक दृष्टि पर टिका होने की बात करता है, ऐसे सकारात्मक कदम उठाने की बात करता है, ताकि सभी व्यक्तियों की व्यवस्था तक समान पहुंच हो। आपराधिक न्याय प्रणाली में आम तौर पर ऐसी स्थिति तब उभरती है जब अभियुक्त आर्थिक, सामाजिक तौर पर समाज के सबसे कमजोर तबकों से संबंधित हो।

शाहिद आजमी की हत्या के बाद अपने एक आलेख में ‘तहलका’ के तत्कालीन कार्यकारी संपादक अजीत साही ने बताया था कि  (तहलका, 27 फरवरी 2010) शाहिद ने बताया था, ‘मैंने बचपन से अपनी झुग्गी में पुलिस को कभी भी धमकते हुए, लोगों को आतंकित करते हुए या उनको उठा ले जाते हुए देखा है, जिसकी वजह से मेरे मन में उनके प्रति गहरी नफरत रहती आई है।’

गौरतलब है कि अपनी इस नफरत को उन्होंने रचनात्मक दिशा दी। लोगों के मुताबिक प्रख्यात अमेरिकी नागरिक अधिकारों के वकील रॉय ब्लैक (Roy Black, an American civil and criminal defence lawyer) का यह कथन उनका प्रेरणास्त्रोत था।

‘नाइंसाफी को उजागर करके उसने मुझे इंसाफ से प्यार करना सिखाया। दर्द और अपमान क्या होता है यह बताते हुए उसने मेरे दिल में करुणा जगा दी। इन कठिनाइयों से मैंने सीख हासिल की। नफरत से लड़ो, उत्पीड़कों का मुकाबला करो और वंचित-शोषित के साथ खड़े हो जाओ।’
(“By showing me injustice, he taught me to love justice. By teaching me what pain and humiliation were all about, he awakened my heart to mercy. Through these hardships, I learned hard lessons. Fight against prejudice, battle the oppressors, support the underdog.”)
Roy Black, an American civil and criminal defence lawyer 

(सुभाष गाताडे लेखक-चिंतक और स्तंभकार हैं आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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