ग्राउंड रिपोर्ट: तमंचा मुहैया करवाकर, चलाया गया मुसलमानों के जनसंहार का अभियान

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(मौजपुर) नई दिल्ली। दिल्ली में जो हुआ क्या वो दंगा था? इस रिपोर्ट को पढ़ने के बाद शायद आप ये दावा न कर पाएं। चूँकि मैं पीड़ित होने के नाते प्रत्यक्षदर्शी भी हूँ। तो सबसे पहले मैं अपना बयान दर्ज़ करूँगा। मौजपुर की गली नंबर 7 जिसमें हिंदू पहचान वाली भीड़ द्वारा मुझ पर और मेरे साथी अवधू आज़ाद पर जानलेवा हमला हुआ था। 20-25 हमलावरों में से 6-7 के पास हमने अवैध हथियार देखे थे। उनमें से एक ने तो अपने हथियार को लोड करके मेरे पेट में सटा दिया था। उसके हाव-भाव और हथियार दिखाने की आतुरता से मैंने जो अंदाजा लगाया वो ये कि ये सब नए नए हथियार वाले हुए हैं और उन्हें बस उसे चलाना है। 

मौजपुर के स्थानीय निवासी कैश मोहम्मद दिल्ली कत्लेआम पर बात करते हुए बताते हैं- “मौजपुर क्षेत्र में हर चीज बाहर से लाई गई है। ईंट पत्थर ट्रैक्टर ट्रॉलियों में बाहर से भरकर लाया गया। इसी क्रम में अवैध हथियारों के जखीरे को कई खेप में यहां लाया गया और हिंदू समुदाय के युवा पीढ़ी में बाँटा गया। वो कहते हैं अगर आप 23 से 25 तारीख के इस इलाके के वीडियो और फोटोज तफ़तीश से देखेंगे तो पाएंगे कि गोली बारी सिर्फ़ एक तरफ से हो रही थी। वो बताते हैं कि तो दूसरे समुदाय के लोग पिछले 2 महीने से शांतिपूर्ण धरना दे रहे थे।

उनके पास हथियार नहीं हैं साहेब। अगर गोली-बारी दोनों तरफ से हो रही होती तो लाशों का अंबार लग जाता। लाशें दोनों पक्षों की बराबर निकलतीं। आप गिनती करके देखिए, क्या अनुपात ठहरता है। इस कत्लेआम में जिन हिंदू भाईयों ने अपनी जाने गँवाई हैं वो भी उन्ही दहशतगर्दों की गोलियों के शिकार हुए हैं। हम तो सरकार से माँग करते हैं कि मौजपुर के हर घर की लाइव तलाशी ली जाए। फिर देखिए किन-किन घरों से अवैध हथियार बरामद होते हैं।”

जाफराबाद के अब्दुल मन्नान बताते हैं कि “सीएए एनआरसी के खिलाफ़ प्रोटेस्ट करने वालों को आगे और पीछे दोनों साइड से हथियारधारी गुंडों द्वारा घेरा गया। उनके पास हथियार थे और उनमें से अधिकांश ने हेलमेट पहन रखा था। वो लगातार जय श्री राम का नारा लगा रहे थे। पुलिस रोकने के बजाय उन्हें डिफेंड कर रही थी। पुलिस उनके फेवर में आंसू गैस का इस्तेमाल करके एनआरसी-सीएए के खिलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों को अंधा कर रही थी ताकि वो हथियारधारी गुंडे अपने टारगेट को शूट कर सकें।”

अब्दुल मन्नान आगे बताते हैं कि- पुलिस कई बार पूरे इलाके को छोड़कर कहीं गायब हो जाती थी। हमारे क्षेत्र के कई लोगों को गोली लगी थी। हम लोग बेहद खौफ में थे और हमें अपने घरों से न निकलने की ताकीद दी गई थी। जब हम लोग सड़कों से हटकर अपने घरों में कैद हो गए तो वो दहशतगर्द लगातार हमारे घरों के दरवाजे तोड़कर घुसने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें अपने गलियों में घुसने से रोकने के लिए हमने काउंटर पथराव किया था वो भी सिर्फ उन्हें अपने नजदीक आने से रोकने के लिए, अपने घरों में घुसने से रोकने के लिए। उस समय हम बेहद निरीह और खौफ़ में थे।”

चाँदबाग़ में भी उपद्रव और हिंसा के दौरान बड़ी मात्रा में अवैध हथियारों का इस्तेमाल किया गया था। चांदबाग़ में तो सीधे तौर पर प्रदर्शनकारियों पर ही हमला किया गया। प्रदर्शन स्थल पर आगजनी की गई और टेंट फूंक दिए गए। इसी तरह के हालात गोकुलपुरी, भजनपुरा, मौजपुर, जाफराबाद, शिव बिहार में बनाए गए और सबसे ज़्यादा जान-माल का नुकसान इन इलाकों में पहुँचाया गया। पैटर्न यहां भी वही था जो जाफराबाद और मौजपुरा में दिखा। हिंदू युवकों के हाथों में अवैध हथियार थमाया गया, उन्हें उनका टारगेट बताया गया और फिर उन्हें उन्मादित करके मोर्चे पर भेज दिया गया।    

दंगों के पैटर्न से बिल्कुल अलग है पूर्वी दिल्ली का जनसंहार 

अगर आप अतीत के दंगों का पैटर्न देखें तो पाएंगे कि दंगों में असलहे नहीं इस्तेमाल होते थे। उसमें आग और लाठी, डंडा, ईंट, पत्थर ही इस्तेमाल होते आए हैं। लेकिन दिल्ली में 23, 24, 25, 26 को हुई हिंसा पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा इस मायने में पूर्व के दंगों से अलग है कि इसमें अवैध हथियारों का जबर्दस्त इस्तेमाल किया गया है। दिल्ली हिंसा इस मायने में दंगा नहीं है क्योंकि दंगों में दो गुट, दो समुदाय के लोग टकराते हैं जबकि दिल्ली हिंसा में एक समुदाय का सशस्त्रीकरण करके दूसरे समुदाय के खात्मे के लिए उन्मादित किया गया।       

‘गोली मारो’ नारे द्वारा गोली मारने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किया गया

हर अपराध का एक मनोविज्ञान होता है। कई बार ये मनोविज्ञान भ्रामक और मिथ्या बातों की बुनियाद पर एक समुदाय के लोगों में दूसरे समुदाय के प्रति नफ़रत और वैमनस्य का भाव पैदा करके बनाया जाता है। कथित राष्ट्रभक्तों की जो नई फसल पैदा की गई है वो मुस्लिम समाज के प्रति नफ़रत व शत्रुता के उर्वरकों की मदद से ही तैयार की गई है। ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’ के नारे के मनोविज्ञान को समझे बिना आप दिल्ली मुस्लिम जनसंहार को नहीं समझ सकते।

नारे के पहले हिस्से में ‘मुस्लिम’ समुदाय को देश का गद्दार बताकर एक टारगेट सेट किया गया है और नारे के दूसरे हिस्से में उन लोगों को गोली (जान से) मारने को (शूट द टारगेट) को देशभक्ति बताया जा रहा है। यानि इस ‘न्यू इंडिया’ में यदि आपको राष्ट्रभक्त होना है तो उन कथित गद्दारों को गोली मारने के लिए तत्पर होना ही है। इन कथित राष्ट्रभक्तों के टूल्स राष्ट्रगान और तिरंगा नहीं तमंचा और दहशती नारे (जय श्री राम) हैं। इस नारे का टेस्ट पहले जामिया और शाहीन बाग़ में गोपाल शर्मा और कपिल गुर्जर जैसे राष्ट्रभक्तों के रूप में किया गया और फिर इसे पूर्वी दिल्ली में बाकायदा लांच कर दिया गया। 

पूर्वी दिल्ली और आरएसएस की जमीन

हिंदुओं के सशस्त्रीकरण का आरएसएस की योजना रही है। और जहां-तहां शाखा और साप्ताहिक कैंप लगाकार उन्होंने अपने कैडरों को शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग भी देते आए हैं। दिल्ली में अपनी जमीन बनाने के क्रम में आरएसएस ने सबसे पहले पूर्वी दिल्ली के शाहदरा इलाके में अपनी जड़े जमाई। स्थानीय बनिया वर्ग से उन्हें पूँजी और अन्य सहयोग प्राप्त हुआ। और फिर आरएसएस ने पूर्वी दिल्ली के उन इलाकों में अपना विस्तार किया जहाँ हिंदू और मुस्लिम इलाके जुड़े हुए या आमने-सामने थे। आरएसएस ने इन इलाकों में जाकर शाखा लगवाई और स्थानीय हिंदुओं को अपना कैडर बनाया। शाखाओं मे विषवमन कर करके उनका सांप्रदायीकरण किया। 

कैश मोहम्मद बताते हैं कि आप ध्यान देंगे तो पाएंगे जिन गलियों और इलाकों में बुजुर्गों की संख्या ज़्यादा हैं वहां हिंसा, आगजनी व गोलीबारी जैसी घटनाएं नहीं घटित हुई हैं। जहां पर युवा आबादी ज़्यादा है हिंसा उन क्षेत्रों में ज़्यादा हुई है। इसके पीछे का कारण स्पष्ट करते हुए कैश मोहम्मद बताते हैं कि जहां अनुभवी और बुजुर्ग लोग हैं वहां अभी आरएसएस का असर बहुत कम है। जहां जिन इलाकों में बुजुर्ग पीढ़ी नहीं है वहां कि नई पीढ़ी को आरएसएस ने अपने चपेट में लिया है। युवा हिंदू दिमागों को आरएसएस ने हैक कर लिया है।

(जनचौक संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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