यह स्वागतयोग्य है कि देश के सबसे बड़े विपक्षी दल ने चुनावी धांधली को बड़ा मुद्दा बनाने का फैसला किया है। कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने इसको लेकर राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन शुरू करने का ऐलान किया है। हालांकि वे इस पर कितना आगे जाते हैं, यह देखने की बात होगी।
जो खबरें आईं उनके अनुसार इस पर कई तरह की राय थी। एक विचार यह था कि EVM की जगह बैलट पेपर से चुनाव ही एकमात्र समाधान है। लेकिन कुछ सदस्यों ने इस पर असहमति जताई। कई सदस्यों ने यह कहा कि EVM तो हटने वाली नहीं है, इसलिए 100%VVPAT की गिनती से मिलान की मांग की जाय। कुछ अन्य लोगों का मानना था कि शुरू करने के लिए 10 से 20% VVPAT की मांग की जाय।
इसी सिलसिले में महाराष्ट्र के सोलापुर के एक गांव से पिछले दिनों बेहद रोचक खबर आई। वहां गांव के लोग अपने खर्च से बैलट पेपर से मतदान करने जा रहे थे। दरअसल गांव के लोग हाल में EVM से जो चुनाव हुआ है उससे पूरी तरह असंतुष्ट हैं।
लोग पूछ रहे है कि पिछले चार चुनावों में NCP के जिस प्रत्याशी को 80% मत मिलते रहे हैं, उसे अचानक इस चुनाव में भाजपा से भी कम वोट कैसे मिल गए ? लोगों का मानना है कि यह EVM की धांधली से हुआ है। इसीलिए बैलट पेपर से चुनाव करके वे इसे पूरी दुनियां को दिखाना चाहते थे।
शासन प्रशासन ने भारी पुलिस बल लगाकर उन्हें रोक दिया। लेकिन वे अपना संदेश दे चुके थे। पुलिस ने कार्यक्रम रद्द कर देने के बावजूद गांव के 200 लोगों के खिलाफ FIR दर्ज हो गया है। लेकिन इसी मॉडल पर अब अकोला के दो गांवों के लोगों ने बैलट से मतदान का ऐलान कर दिया है।
बहरहाल, यदि सचमुच चुनाव सुधारों के प्रति विपक्ष गंभीर है तो उसे कई और जरूरी चुनाव सुधारों की बात भी उठानी चाहिए।
चुनाव सुधार का एक महत्वपूर्ण बिंदु समानुपातिक प्रतिनिधित्व को चुनाव प्रक्रिया में शामिल करना है। हमारे पड़ोसी श्रीलंका, नेपाल समेत तमाम देशों में यह व्यवस्था लागू है।
दरअसल अभी हमारे यहां जो व्यवस्था लागू है, इसमें सभी मतदाताओं के साथ पूरी तरह न्याय नहीं हो पात। किसी दल को मान लीजिए तमाम सीटों पर सबसे ज्यादा वोट नहीं मिला, फिर उसको सीटें तो नहीं मिलेंगी, लेकिन उस पार्टी को जिन तमाम मतदाताओं ने वोट दिया उनका तो विधायिका में प्रतिनिधित्व ही नहीं हो पाएगा।
यदि पार्टियों को देश/प्रदेश भर में उन्हें मिले कुल मतों के आधार पर भी प्रतिनिधित्व की व्यवस्था हो तभी उस पार्टी को वोट देने वालों मतदाताओं के साथ भी न्याय हो पाएगा। कल्पना करिए कि किसी दल को कुल मतों का एक तिहाई मिला, लेकिन मौजूदा First past the post व्यवस्था में संभव है कि उसे कोई सीट न मिले।
फिर उन एक तिहाई मतदाताओं की आवाज को विधायिका में प्रतिनिधित्व कैसे मिलेगा ? नेपाल में संविधान सभा के लिए आधी सीटों पर चुनाव समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर हुआ था। अभी हमारे पड़ोसी श्रीलंका में इसी प्रणाली से संसद के चुनाव हुए जिसमें वाम लोकतांत्रिक ताकतों को दो तिहाई सीटें हासिल हुईं।
यह सवाल हमारे देश में भी समय-समय पर नागरिक समाज के तमाम संगठनों के माध्यम से उठता रहा है, लेकिन बड़े राजनीतिक दलों ने इसे मुद्दा नहीं बनाया। इसलिए चुनाव सुधार का यह महत्वपूर्ण प्रश्न बड़ा सवाल नहीं बन पाया। वह अब तक unaddressd है।
चुनाव सुधार का एक महत्वपूर्ण एजेंडा चुनाव प्रक्रिया पर धनबल के शिकंजे को तोड़ना है। अभी जो व्यवस्था है उसमें जिन पार्टियों को कारपोरेट से अथाह चंदा मिल रहा है या जिनके उम्मीदवार आर्थिक रूप से बेहद मजबूत हैं, वे स्वाभाविक रूप से फायदे में रहते हैं।
इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था द्वारा सत्तारूढ़ दल के हित में इस प्रक्रिया को चरम पर पहुंचा दिया गया। इसके विपरीत जिन दलों के पास कारपोरेट का चंदा नहीं है और जो धनबल के आधार पर अपने प्रत्याशियों का चुनाव नहीं करते, वे हमेशा घाटे में रहेंगे।
चुनाव सुधारों में इस सवाल को भी एड्रेस करना होगा। इसका एक तरीका यह हो सकता है कि कॉरपोरेट द्वारा चंदे पर रोक लगे, पार्टियां जनता से मिले सहयोग के आधार पर चुनाव लड़ें या सरकार सभी दलों को चुनाव लड़ने के लिए धन मुहैया कराए।
वैसे तो आदर्श आचार संहिता में चुनाव खर्च की सीमा तय की गई है, लेकिन इसका शायद ही बड़े दल और उनके उम्मीदवार पालन करते हों।
आज स्थिति यह है कि मतदाता सूची तैयार करने से लेकर, चुनाव प्रचार, evm से चुनाव, मतगणना सब कुछ सवालों के घेरे में है।
जाहिर है सबके केंद्र में केंद्रीय चुनाव आयोग है। उसकी निष्पक्षता और ईमानदारी पर ही संपूर्ण चुनाव प्रक्रिया की शुचिता निर्भर है। अभी जो प्रक्रिया है उसमें सत्तारूढ़ दल जिसे चाहता है, चुनाव आयुक्त नियुक्त कर लेता है। आवश्यकता इस बात की है कि इस अतिमहत्वपूर्ण संस्था के सदस्य पूरी निष्पक्षता से चुने जाएं, ऐसी संवैधानिक व्यवस्था की जाय।
दरअसल जिसे माइक्रो मैनेजमेंट कहा जा रहा है, उस की शुरुआत मतदाता सूची में धांधली से ही हो जाती है। सबसे ताजा मामला दिल्ली का है, जहां केजरीवाल ने यह आरोप लगाया है कि उनके समर्थकों का नाम मतदाता सूची से हटाया जा रहा है।
सत्तारूढ़ दल यह सुनिश्चित करता है कि उन समुदायों के अधिक से अधिक लोगों के नाम सूची से बाहर कर दिए जाएं जिनके वोट उसे नहीं मिलते हैं। और उनके नाम अधिक से अधिक जोड़ दिए जाएं जो सत्तारूढ़ दल के समर्थक हैं। अभी चुनाव आयोग को सौंपे गए प्रतिवेदन में महाराष्ट्र के नेताओं ने बताया है कि वहां जुलाई से नवंबर के बीच 47 लाख वोटर बढ़ गए।
जिन 50सीटों पर औसतन 50हजार वोट बढ़ गए उसमें से 47 सीटें महायुति ने जीत लिया। उत्तर प्रदेश बिहार समेत तमाम राज्यों में अल्पसंख्यकों के वोट बड़े पैमाने पर कट गए। आखिर कोई भी वैध ID, मसलन आधार कार्ड दिखाने पर वोट का अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए, इसके लिए मतदाता सूची में नाम होना अनिवार्य क्यों हो? मतदाता सूची में नाम कटा होने पर भी अगर यह व्यवस्था हो तो सबके वोट का अधिकार सुरक्षित रह सकता है।
चुनाव प्रचार के दौरान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अभियान को रोकने के लिए कारगर उपाय चुनाव सुधार का बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा है। ऐसा प्रचार केवल चुनाव पर ही असर नहीं डालता, बल्कि समाज को भी विघटन की ओर ले जाता है। इसमें सबसे बड़ी समस्या यह है कि ऐसे प्रचार का नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और योगी तथा हिमांता शर्मा जैसे मुख्यमंत्री करते हैं।
स्वाभाविक रूप से उन्हीं के द्वारा बनाए हुए चुनाव आयुक्त उस पर कोई कार्रवाई नहीं करते। अगर याद किया जाय तो हालिया विधानसभा चुनाव में झारखंड में स्वयं प्रधानमंत्री ने बांग्लादेशी घुसपैठियों से आदिवासियों की रोटी-बेटी और माटी के लिए खतरा बताया।
यह दरअसल मुसलमानों के खिलाफ नफरत पैदा करने की कोशिश थी, जो सफल नहीं हुई क्योंकि आदिवासियों ने इस झूठे आरोप को खारिज कर दिया। इसके पहले भी प्रधानमंत्री कपड़े से पहचानने या ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले जैसे जुमले बोल चुके हैं। इस पर आखिर कैसे रोक लग सकती है, यह चुनाव सुधार का एक बेहद संवेदनशील बिंदु है।
सबसे बड़ी बात यह कि EVM से चुनाव को लेकर समाज के बड़े दायरे में अविश्वास बढ़ता जा रहा है। हरियाणा और महाराष्ट्र के हाल के चुनाव ने इसे गहरा किया है। जनता का चुनावों में विश्वास बना रहे, इसके लिए आखिर तमाम और देशों की तरह हमारे यहां भी बैलट पेपर से चुनाव क्यों नहीं हो सकते ?
जाहिर है कांग्रेस इस पर दुविधा में रही है। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि इसकी शुरुआत उन्हीं के शासन के दौरान हुई थी।
बहरहाल EVM से भी चुनाव होते हैं तो 100% VVPAT की गिनती क्यों नहीं हो सकती ताकि किसी धांधली की आशंका निर्मूल हो जाय।
इसके अलावा ऐसे तमाम मामले सामने आ चुके हैं जहां कुल पड़े मतों से अधिक मत काउंटिंग में पाए गए, या चुनाव आयोग ने पहले दिन जो कुल पड़े मतों की संख्या बताई, बाद में जो मतों की फाइनल संख्या बताई गई, उसमें बहुत अंतर आ गया।
आखिरी लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल समुदाय विशेष के मतदाताओं को मतदान स्थल तक जाने से रोकने का है। चुनाव दर चुनाव अब ऐसी खबरों के वीडियो वायरल हो रहे हैं, जहां मतदाताओं का पहचान पत्र चेक करने के बहाने पुलिस उन्हें वहां से भगा दे रही है।
आखिर पुलिस को यह अधिकार कैसे मिल गया ? अभी कुछ दिन पहले UP के उपचुनाव के दौरान महिलाओं को रोकने के लिए पिस्तौल ताने पुलिसकर्मी का वीडियो वायरल हुआ।
आने वाले दिनों में भाजपा राज में ऐसी घटनाओं के और तेज होने के आसार हैं, विशेषकर उन राज्यों में जहां राजनीतिशास्त्री सुहास पलसीकर के शब्दों में भाजपा पार्टी समाज बनाने में सफल हुई है अर्थात समाज की सारी संस्थाओं पर उसने कब्जा कर लिया है।
इसे रोकने के लिए ठोस उपाय की जरूरत है ताकि अल्पसंख्यकों समेत अन्य हाशिए के तबकों को मताधिकार से वंचित न किया जा सके।
चुनाव सुधार की लड़ाई देश में लोकतंत्र बचाने तथा उसे बेहतर बनाने की लड़ाई का सबसे जरूरी मोर्चा है। कहते हैं जिस विचार का समय आ जाता है, उसे रोका नहीं जा सकता।
शायद लंबे समय से लंबित चुनाव सुधारों के लिए बड़े संघर्ष का समय आ गया है। उम्मीद है आने वाले दिनों में विपक्षी दल और लोकतांत्रिक ताकतें राजनीतिक सुधार के इस बेहद अहम सवाल पर एक निर्णायक लड़ाई छेड़ने के लिए आगे आयेंगी।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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