Friday, April 19, 2024

श्रीलंका में गृह युद्ध का खतरा; भारत के लिए सबक

➤12 से ज्यादा मंत्रियों के घर फूंके गए, प्रधानमंत्री आवास में गोलीबारी

➤एक सांसद की मौत

➤एक पूर्व मंत्री को कार सहित झील में फेंका गया

➤पूरे देश में कर्फ्यू लगाया गया

तमिलों के विरुद्ध जातीय भेदभाव तथा कोविड महामारी, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की ऋण सम्बंधी शर्तों और सत्तालोलुप शासकों की गुमराह नीतियों से तबाह हो चुके श्रीलंका में कल सोमवार को प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे द्वारा विपक्ष के दबाव में इस्तीफा देने के बाद नाराज हुए उनके समर्थकों ने राजधानी कोलंबो में हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया है। जिसके बाद उनके विरोधी भी उग्र हो गए। जब राजपक्षे के समर्थकों ने कोलंबो छोड़कर जाने की कोशिशें कीं तो उनकी गाड़ियों को जगह-जगह निशाना बनाया गया। हिंसक प्रदर्शनों के बीच सोमवार को पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया गया है।

दूसरी तरफ प्रदर्शनकारी विरोधी गुटों ने महिंदा राजपक्षे के हंबनटोटा स्थित पुश्तैनी घर को आग के हवाले कर दिया। उधर हजारों प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास ‘टेम्पल ट्री’ का मेन गेट तोड़ दिया और यहां खड़े ट्रक में आग लगा थी। इसके बाद आवास के अंदर गोलीबारी भी की गई। अब तक 12 से ज्यादा मंत्रियों के घर जलाए जा चुके हैं।

महिंदा राजपक्षे के जलते हुए घर की छवि

वहीं, राजधानी कोलंबो में पूर्व मंत्री जॉनसन फर्नांडो को कार सहित झील में फेंक दिया गया। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि कभी भी खुलकर गृहयुद्ध भड़क सकता है।

श्रीलंकाई सांसद अमरकीर्ति अथुकोरला की मौत की खबर भी आई है। रिपोर्ट्स के मुताबिक, अमरकीर्ति ने प्रदर्शनकारियों पर फायरिंग कर दी थी और बाद में भीड़ से बचने के लिए वे एक बिल्डिंग में छिप गए। यहीं से उनका शव बरामद हुआ है। हालांकि, अभी तक यह साफ नहीं है कि उनकी मौत किस वजह से हुई है।

जब अंग्रेजों ने भारतीय महाद्वीप पर क़ब्ज़ा किया तो उन्होंने इस पूरे इलाक़े को एक संयुक्त प्रशासनिक इकाई बना दिया जिसमें शामिल चारों तरफ से समुद्र से घिरे एक बड़े भूभाग यानी द्वीप को सीलोन नाम दिया। अंग्रेज आए तो उनके साथ ही ईसाई मिशनरियों का भारी संख्या में आना शुरू हुआ। सीलोन का उत्तरी तटवर्ती इलाका जाफ़ना भारत के नज़दीक था। अत: मिशनरी सबसे पहले यहीं पहुंचे। उन्होंने ईसाई मत का प्रचार-प्रसार के साथ ही इस क्षेत्र में अनेक कॉन्वेंट स्कूल और कॉलेजों की स्थापना की। जिसका लाभ यहां रहने वाले तमिलों को मिला। वे शिक्षित ही नहीं बल्कि अंग्रेज़ी भाषा में भी निपुण हो गए। उच्च शिक्षा हासिल करने तथा अंग्रेज़ी भाषा के कारण अंग्रेजी प्रशासन की सिविल सेवाओं तथा अन्य नौकरियों में तमिलों को प्राथमिकता मिली।

किसी भी संस्कृति की मुख्य इकाई भाषा है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार में इसकी प्रमुख भूमिका रही है। इस उपमहाद्वीप के बहुत से आपसी झगड़े भाषा-विवाद की देन हैं।

आज़ श्रीलंका में तमिलों की आबादी लगभग 15% और सिंहलों की आबादी लगभग 70-75% के आसपास है। तब भी क़रीब-क़रीब यही अनुपात था। खेती के लिए उपयुक्त दक्षिणी क्षेत्र में सिंहल रहते थे। शुरुआत में जनसंख्या में अधिक होने के बावजूद भी सरकारी नौकरियों में तमिलों के बढ़ते प्रभुत्व से सिंहलों को कुछ ख़ास फ़र्क पड़ता नहीं दिखाई दिया लेकिन हालात तब बदले जब फ़रवरी 1948 में श्रीलंका ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त हो गया। आज़ादी के साथ ही देश में आई लोकतांत्रिक व्यवस्था। अब बहुसंख्यक सिंहलों के विचारों में बदलाव आ गया। सरकार ने सिंहलों को लाभ पहुंचाने वाली नीतिया बनाईं। इस दिशा में सबसे पहले वर्ष 1956 में सिंहल भाषा को सरकारी कामकाज की भाषा का दर्जा दिया गया। जो इससे पहले अंग्रेज़ी को मिला हुआ था और जिसका फ़ायदा तमिलों को होता था।

श्रीलंका की राजनीति में अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन का अंत होने के साथ ही जातीय राष्ट्रवाद और अर्थशास्त्र में सिंहल कल्याणवाद का मिश्रण शुरू हो गया। तब से ही बहुसंख्यक सिंहलों का कहना था कि तमिल लोग श्रीलंकाई न होकर भारतीय हैं और उन्हें यह देश छोड़कर भारत चला जाना चाहिये। जातीय-राष्ट्रवाद को सिंहली पहचान दिलाने के लिए उकसाया गया। इसके फलस्वरूप वहां सिंहलों और तमिलों के बीच प्रत्यक्ष संघर्ष की शुरुआत वर्ष 1956 में तब हुई जब श्रीलंका के राष्ट्रपति ने सिंहली को आधिकारिक भाषा बनाया और तमिलों के खिलाफ बड़े पैमाने पर भेदभाव किया जाने लगा। यह भेदभाव निरंतर जारी रहा। बौद्ध समुदाय को राज्य में प्राथमिक स्थान दिया गया और राज्य द्वारा नियोजित उच्च शिक्षण संस्थानों में की जाने वाली भर्ती में तमिलों की संख्या को सीमित कर दिया गया। फलस्वरूप तमिल सरकारी नौकरी से बेदख़ल हो गए। हालांकि बाद में सरकारी स्तर पर इस भेदभाव को कम कर दिया गया, लेकिन इसने जातीय अंधराष्ट्रवाद को सशक्त बनाया और बड़ी संख्या में तमिल भाषी आबादी को असुरक्षित छोड़ दिया गया।

तमिलों के प्रति भाषा तथा जातीय घृणा आधारित भेदभाव की उत्पत्ति आंशिक रूप से बौद्ध धर्मगुरुओं के तुष्टिकरण के कारण हुई, जो विशेष रूप से सिंहली हैं। सिंहलियों द्वारा जारी बहुमुखी उत्पीड़न के जवाब में तमिलों ने अहिंसक विरोध के माध्यम से आंदोलन को जारी रखा, हालांकि 1970 के दशक में तमिल अलगाववाद और उग्रवाद के प्रति रुझान बढ़ा जिसने वर्ष 1976 में वेलुपिल्लई प्रभाकरन के नेतृत्व में लिबरेशन टाइगर ऑफ तमिल ईलम (LTTE) जैसे आतंकवादी संगठन को जन्म दिया। आगे चलकर 23 जुलाई, 1983 से देश में गृहयुद्ध शुरू हो गया। भारत ने श्रीलंका के इस गृह युद्ध को ख़त्म करने में सक्रिय भूमिका निभाई और श्रीलंका के संघर्ष को एक राजनीतिक समाधान प्रदान करने के लिए 29 जुलाई, 1987 को भारत-श्रीलंका समझौते पर हस्ताक्षर किये गये। लंबे संघर्ष और लाखों लोगों के मारे जाने के बाद वर्ष  2009 में लिट्टे (LTTE) के साथ गृह युद्ध समाप्त हुआ।

भारी नुकसान झेलने के बाद गृह युद्ध समाप्त हो तो गया लेकिन श्रीलंका के प्रशासन से लेकर विभिन्न व्यवसायों में पहले रही तमिलों की विशेषज्ञता वाली महत्वपूर्ण भूमिका के विपरीत अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति के कारण देश की अर्थ-व्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने में ढाई दशक लग गए। एक मजबूत अर्थव्यवस्था के लिए तकनीकी विशेषज्ञता के नुकसान का प्रभाव धीमा और प्राय: अदृश्य होता है, लेकिन इसका प्रतिकूल प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है, जिसे हम भारत में भी होता हुआ देख सकते हैं।

गृहयुद्ध या वैसी ही स्थिति अथवा राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता व अनिश्चितता के वातावरण में विदेशी निवेश रुकने की संभावना बढ़ जाती है। निजी निवेशक भी अराजकता के समय में अपना पैसा लगाने के प्रति अनिच्छुक होते हैं।

ऐसे ही तमाम कारकों के चलते श्रीलंका में विदेशी पूंजी निवेश घटता गया। जिस पर रूस-यूक्रेन युद्ध और कोविड ने निर्णायक मुहर लगा दी क्योंकि इससे मुख्यत: रूस और यूक्रेन पर आधारित पर्यटन व्यवसाय तथा उस पर आधारित उद्योग-धंधे ठप हो गए। जबकि श्रीलंका के सकल घरेलू उत्पाद में पर्यटन की 10% हिस्सेदारी है। यही नहीं रूस श्रीलंकाई चाय का दूसरा सबसे बड़ा बाजार भी है।

इस प्रकार रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण भी श्रीलंका की आर्थिक स्थिति बड़ी डांवाडोल हो गई। इससे विदेशी मुद्रा भंडार में गिरावट आई जो 2019 में 7.5 बिलियन डॉलर से जुलाइ 2021 में घटकर सिर्फ 2.8 बिलियन डॉलर ही रह गया।

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि सामाजिक संघर्ष किसी भी देश की उत्पादकता और विकास में बाधा डालते हैं और इससे अंततोगत्वा आर्थिक-शैक्षिक गतिविधियां तथा विकास प्रभावित होता है। श्रीलंका का वर्तमान संकट सतह पर तो आर्थिक दिखाई देता है, लेकिन इसके मूल में लंबे समय तक चलाया गया जातीय घृणा व विद्वेष का सामाजिक संघर्ष है जो बहुसंख्यक पहचान की शॉर्टकट राजनीति द्वारा बढ़ाए गए हैं।

जब जातीय तथा साम्प्रदायिक कल्याणवाद को भारी कराधान तथा ऋण लेकर वित्त-पोषित किया जाता है, तो आने वाली पीढ़ियों को इस विभाजन का बहुत पीड़ादायक भुगतान करना पड़ता है।

अगस्त 2020 में जब दो तिहाई पूर्ण बहुमत के साथ महिंदा राजपक्षे ने सत्ता संभाली तो उनसे पूछा गया था कि वे हुकूमत का कैसा मॉडल अपनायेंगे तो उनका उत्तर था कि वे चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी और भारत की भाजपा जैसी नीतियां लागू करेंगे। आज दो साल पूरे होने से पहले ही आजादी के बाद सबसे जर्जर आर्थिक स्थिति में फंसे श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे सत्ताच्युत होकर गंभीर संकटों का सामना कर रहे हैं।   

भारत के संदर्भ में श्रीलंका की दशा एक चेतावनी के रूप में देखी जानी चाहिए, खास तौर पर हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करने वाले दक्षिणपंथी समूहों द्वारा। सीरिया, इराक, अफगानिस्तान के बाद अब श्रीलंका की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से सीखने की जरूरत हैं जिन्हें बहुसंख्यकों के वर्चस्ववाद, अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा, द्वेष और हिंसा ने कहां से कहां ले जाकर पटक दिया है।


(श्याम सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल नैनीताल में रहते हैं।)

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