शाहीन बाग पर डॉक्यूमेंट्री बनाने वाले अमेरिकी सिख पत्रकार को भारत सरकार ने एयरपोर्ट से ही किया डिपोर्ट

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भारत सरकार ने कल दिल्ली एयरपोर्ट से एक अमेरिकी पत्रकार को उलटे पाँव वापस भेज दिया। इस प्रक्रिया को deportation कहा जाता है। यानी जो विदेशी पसंद न आए उसको देश में घुसने ही न दो। इस अमेरिकी पत्रकार का नाम अंगद सिंह है। अंगद सिख अमेरिकन है। वो अमेरिका में पैदा हुआ था। भारत सरकार कि उससे नाराज़गी इसलिए है कि उसने कुछ साल पहले शाहीन बाग़ के आंदोलन पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाई थी।

ये ख़बर पढ़ कर मुझे अपना क़िस्सा याद आ गया जब कई साल पहले मैं पहली बार अमेरिका का वीज़ा लगवाने मुंबई में अमेरिकी दूतावास गया था। काउंटर पर बैठे गोरे ने मुझसे अंग्रेज़ी में पूछा क्या करने अमेरिका जाना है तुमको? मैंने कहा मुझे लेक्चर देने के लिए बुलाया है। बोले कैसा लेक्चर? मैंने कहा अमेरिकी साम्राज्यवाद (imperialism) पर। बोला मतलब? मैंने कहा दुनिया भर के लोगों पर जितना अत्याचार अमेरिका ने किया है उतना अत्याचार मानव इतिहास में किसी सल्तनत ने नहीं किया है। मैंने आगे कहा आज भी पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक स्वराज को ख़त्म करके स्थानीय लोगों को ग़ुलाम बनाने में अमेरिका लगा रहता है। लेकिन पूरी दुनिया के लोग अमेरिका के उत्पीड़न का विरोध कर रहे हैं और अपनी-अपनी लड़ाई जीत भी रहे हैं। बस यही बातें कहने अमेरिका जा रहा हूँ।

मुझे पूरा यक़ीन था कि मेरा वीज़ा रिजेक्ट हो जाएगा। और दिल के किसी कोने में शायद मैं चाहता भी यही था। बचपन से मैंने अमेरिकी विदेश नीति का विरोध किया है। और आज भी करता हूँ। जवानी से लेकर न जाने कितने मौक़े आए अमेरिका आने के लेकिन मेरा दिल कभी नहीं किया था। एक बार एक गोरा प्रोफ़ेसर दिल्ली में मिला। प्रभावित होकर बोला अमेरिका आ जाओ। मैंने हँस कर कहा मैं अमेरिका तब आऊँगा जब वहाँ क्रांति होगी।

लेकिन इस मर्तबे अमेरिका जाने को सिर्फ़ इसलिए तैयार हो गया था कि लेक्चर के बुलाया जा रहा था। इसीलिए वीज़ा लेने आ गया था। मेरी बातें सुनकर खिड़की की सलाख़ों के पीछे से वो नौजवान गोरा मुस्कराया और बोला, “ग्रेट। यू आर अप्रूव्ड। यू विल गेट योर पासपोर्ट इन टू डेज़।”

उसके बाद लगातार कई साल अमेरिका आता रहा। कभी एक बार भी इमिग्रेशन पर मेरे काम की वजह से दिक़्क़त नहीं हुई। भारतीय नागरिक होते हुए भी मैं यहाँ विरोध-प्रदर्शन में हिस्सा लेता हूँ। मैं क्या मेरी पत्नी और बेटा भी शामिल होते हैं। हमें कभी ख़तरा नहीं महसूस होता कि हमें सरकार बाहर निकाल देगी। अब तो यहाँ रहते तीन साल हो गए हैं। कोई दिन नहीं बीतता जब हैरत नहीं होती कि कितनी आसानी से हमें हमारे आस-पास के लोगों ने क़बूल लिया है।

भारत में मानवाधिकार के बिगड़ते हालात पर आज से छह साल पहले अमेरिकी संसद में तक़रीर करने का मुझे मौक़ा मिला था। सामने अमेरिकी सांसद बैठे थे। तक़रीर ख़त्म करते हुए मैंने कहा कि ये न समझा जाए कि मैं भारत विरोधी हूँ। मैं भारतीय हूँ और भारत से प्रेम करता हूँ इसलिए चाहता हूँ कि भारत में लोकतंत्र मज़बूत हो, कमज़ोर नहीं। इसीलिए बेबाक़ बोलता हूँ। मेरी बात सुनते ही एक सांसद जो सेशन को चेयर कर रहे थे स्वतः बोले, “सही कहा। मैं भी अमेरिका की तमाम बुराई करता हूँ। लेकिन इससे ये न समझा जाए कि मैं अमेरिका से नफ़रत करता हूँ। बल्कि अमेरिका मेरा देश है और इससे प्यार करता हूँ इसीलिए इसको बेहतर बनाना चाहता हूँ और इसकी ग़लत नीतियों का विरोध करता हूँ।”

2020 के जनवरी माह में अमेरिका की संसद में आयोजित एक प्रोग्राम में भाषण देने के लिए मैंने मैगसेसे पुरस्कृत समाजसेवी संदीप पांडेय को भारत से आमंत्रित किया। संदीप भाई मेरा निमंत्रण स्वीकार करके अमेरिका आ भी गए। जिन सांसद महोदय की मदद से हमारा आयोजन हो रहा था उनकी एक कर्मचारी का मेरे पास प्रोग्राम से एक दिन पहले फ़ोन आया। बोली, “संदीप पांडेय तो अमेरिका को दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी बताते हैं।” मैंने संदीप भाई से पूछा। बोले सही बात है। दरअसल जब वो मैगसेसे अवार्ड लेने फ़िलीपीन्स गए थे तो उन्होंने सार्वजनिक भाषण में अमेरिका को दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी बताया था। संदीप भाई बोले आज भी यही मानता हूँ।

हमारा कार्यक्रम बिंदास हुआ। संदीप भाई ने भारत की परिस्थिति पर ज़बरदस्त तक़रीर की। संसदीय कर्मचारियों, अमेरिकी विदेश मंत्रालय के अधिकारियों और मानवाधिकार संगठनों के नुमाइंदों से हॉल खचाखच भरा था।

सैंतीस साल पहले जवानी में जब मैं दिल्ली रहने आया था तो बहुत सारे मार्क्सवादी, कम्युनिस्ट, समाजवादी लोगों से वास्ता पड़ा। कई बहुत अच्छे दोस्त बने। आज सोचता हूँ तो याद आता है कि इनमें कई मित्र अमेरिका को गाली देते हुए अमेरिका आकर, अमेरिका को गाली देते हुए पीएचडी करके, अमेरिका को गाली देते हुए भारत लौट जाते थे। इनमें से किसी को चीन और क्यूबा में पीएचडी करते नहीं देखा।

मेरे कुछ मित्रों को लगता है कि मैं अमेरिका का मुरीद हो गया हूँ और अमेरिका के अत्याचार को नज़रअंदाज़ करता हूँ। पर यहाँ अमेरिका में तीन साल रहते हुए और यहाँ के तमाम मानवाधिकार संगठनों के साथ मिल कर काम करते हुए मुझे ये समझ आया है कि अमेरिका की ग़लत नीतियों का जितना विरोध अमेरिकी समाज के भीतर होता है उतना दुनिया के किसी देश के भीतर उस देश की नीतियों के ख़िलाफ़ नहीं होता है।

कम्युनिस्ट चीन में विरोध करने वाला ग़ायब कर दिया जाता है फिर चाहे वो जैक मा जैसा अरबपति क्यों न हो। सोवियत संघ में कभी ना मुँह खोलने वाला भी शक के आधार पर उड़ा दिया जाता था। भारत में तो ख़ैर छोड़ ही दीजिए जो है सो है।

(अजीत साही वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल अमेरिका में रह रहे हैं।)

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