दखिनीलाल (72 वर्ष) अस्थमा के मरीज हैं, साथ ही उनके कमर और पीठ में भी जकड़न और दर्द है। वो डॉक्टर को दिखाने के लिए मूसेपुर गांव, तहसील सोरांव से शहर के बेली अस्पताल आये। डॉक्टर ने देखा और दवा लिख दिया। दखिनीलाल दवा वितरण खिड़की (डिस्पेंसरी) में लाइन पर लगे। वहां उन्हें और दवाईंया तो मिल गयी पर गैस की दवा नहीं मिली। डिस्पेंसरी पर बैठे कर्मचारी ने बताया कि अब गैस की दवा आनी बंद हो गयी है। आपको बाहर से ख़रीदना पड़ेगा।
दखिनीलाल बताते हैं कि मड़ाई करने और भूसा रखने के बाद से ही उनकी सांस वाली तकलीफ़ बढ़ गयी है। कब से है यह तकलीफ़ पूछने पर दखिनीलाल बताते हैं कि पिछले 2-3 साल से उन्हें ये तकलीफ़ हुयी है वर्ना पहले तो खेती का सारा काम वो खुद ही देखते थे। 4 बीघे ज़मीन के काश्तकार दखिनीलाल बताते हैं कि गैस की समस्या अलग से नहीं है। सांस फूलने की दवा जब से खाने लगे हैं उसके बाद से गैस की दिक्कत होने लगी है। चार बेटे और दो बेटियों के पिता दखिनीलाल निराशा जाहिर करते हुए कहते हैं अब एक दवा के लिए बाहर भटकना पड़ेगा। सरकार को सारी दवा देनी चाहिए।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में एमए की छात्रा आरती को कल बेली अस्पताल से डिस्चार्च करते हुए डॉक्टर ने दवा की पर्ची लिखी। पर्ची में लिखी तीन चार सस्ती दवाईयां तो सरकारी अस्पताल की डिस्पेंसरी में मिल गयीं। लेकिन Adicifix-200, DDR-D, VMS max, Decdic दवाईंया सरकारी डिस्पेंसरी में नहीं मिली जिसे 1769 रुपये देकर बाहर से ख़रीदना पड़ा।
गांव पेठियन देहतीपुर, जिला अम्बेडकर नगर निवासी आरती शहर में किराये का कमरा लेकर यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करती है। जबकि उसके पिता फूलचंद हरियाणा फरीदाबाद में एक एक फैक्ट्री में मज़दूरी करते हैं। बेटी के भर्ती होने की ख़बर पाकर वो एक दिन पहले ही शहर लौटे हैं। 22 मई को आरती को लूजमोशन शुरू हुआ उसके सहपाठी और अध्यापक उसे लेकर अस्पताल आये और एडमिट कर लिया गया।
आरती बताती हैं कि अगले दिन एक नर्स आयी और उसने आरती को लगभग हड़काते हुए घर जाने को कहा और उसे अगले ही दिन यानि 23 मई को डिस्चार्ज कर दिया गया। दो दिन बाद 25 मई को आरती को फिर वही लूजमोशन और असहनीय पेटदर्द शुरु हो गया। तो 25 मई को उसे दोबारा से एडमिट कर डायरिया का इलाज शुरु हुआ। जहां एक के बाद तीन दिन में 20 बोतल ग्लूकोज चढ़ा दिया गया। लेकिन पेटदर्द नहीं ठीक हुआ। इलाहबाद यूनिवर्सिटी में आधुनिक इतिहास के प्रोफ़ेसर विक्रम ने अस्पताल पहुंचकर डॉक्टरों से बात की तब जाकर आरती का अल्ट्रासाउंड जांच लिखा गया। जांच में गॉल ब्लैडर स्टोन निकला। फिलहाल डायरिया रिकवर होने के बाद 27 मई को आरती को दवा लिखकर डिस्चार्ज कर दिया गया है।
मरीजों से बात करने के बाद हमने तेज बहादुर सप्रू अस्पताल (बेली) के डिस्पेसंरी के सामने दीवार पर लगी ‘चिकित्सालय में उपलब्ध औषधियों की सूची’ देखी। जिसमें केवल 68 दवाईंयों के नाम लिखे थे। हमने डिस्पेंसरी की खिड़की पर दवा वितरित करने वाले कर्मचारी से पूछा कि क्या सिर्फ़ यही 68 दवाईयां आपके यहां उपलब्ध हैं या और दवाईयां भी आपके पास उपलब्ध हैं। उसने कहा साहेब ऊपर बोर्ड में जितनी दवाईयों के नाम लिखे हैं सिर्फ़ वही दवाईयां डिस्पेंसरी में हैं। एक तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो देश के सबसे पिछड़े राज्यों में शुमार बिहार के सरकारी असपतालों में मुफ़्त मिलने वाली दवाओं की संख्या 611 है। जिसमें कैंसर और किडनी की बीमारी की भी दवाईंया शामिल हैं।
बिटोला देवी कृषि मज़दूर हैं। कटाई का काम करने के बाद अचानक उनके दाये हाथ में बहुत तेज दर्द शुरु हो गया। काम-धाम करना तो दूर हाथ हिलाना-डुलाना भी मुहाल हो गया। पति बेरोज़गार है। ऐसे में बिटोला देवी के पास सरकारी अस्पताल में जाने के सिवा और कोई विकल्प भी तो नहीं था। फिर भी पति-पत्नी के गांव से अस्पताल आने-जाने के लिए 200 रुपये किराया मैनेज करना था। वहां दिखाने गये तो डॉक्टर ने दवा लिख दिया साथ ही कुछ जांच भी। बेरोज़गार दम्पत्ति के लिए दोनों को दवा और जांच का खर्च उठाने के लिए कर्ज़ लेना पड़ा।
इसी तरह प्रवीण कुमार को ख़ूनी बवासीर, कमजोरी, चक्कर, थकान की तकलीफ है जबकि उनकी साथी को लगातार बुखार बना रहता है, थकान और कमजोरी, दर्द बना रहता है। शिल्पा बेरोज़गार हैं जबकि प्रवीण इफको में ठेका मज़दूर हैं। जहां दो महीने की ड्युटी के बाद एक महीने बैठकी रहती है। यानि साल में केवल आठ महीने ड्युटी मिलती है और महीने में केवल 22-22 हाजिरी। दोनों शहर के स्वरूपरानी अस्पताल गये जहां उन्हें जांच के लिए टोकन लेने के लिए 2500 रुपये जांच शुल्क जमा करने को कहा गया। जेब में पैसे न होने के चलते दोनों निराश होकर वापिस घर लौट आये। प्रवीण बताते हैं कि पति-पत्नी दोनों की जांच बाहर कराने पर साढ़े चार पांच हज़ार रुपये लगते। सरकारी में आधा ही लग रहा है। लेकिन एक मज़दूर के लिए जिसे बराबर काम भी नहीं मिलता हो 2500 रुपये भी बहुत ज़्यादा है।
अरविंद कुमार को कई दिनों से बुखार बना हुआ था। वो इलाज के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र फूलपुर गये। डॉक्टर ने देखने के बाद टाईफाईड और मलेरिया जांच लिखा। वो जांच कराने जांच कक्ष में गये तो वहां मौज़ूद कर्मचारी ने बताया कि मलेरिया की जांच तो हो जाएगी लेकिन टाईफाईड की टेस्टिंग किट खत्म हो गयी है। डॉक्टर सबको यही जांच लिख दे रहे हैं। जबकि आती सीमित मात्रा में है तो आप ये जांच बाहर करवा लो। अरविंद ने पूछा कि दो चार दिन में किट आ जाये तो वो इंतज़ार कर लें। इस पर उक्त कर्मचारी ने उन्हें बताया कि पिछली बार खत्म हुयी थी तो छः महीने बाद आया अबकि बार पता नहीं कब आये। अधिकारी वगैरह सब जानते हैं इसके बारे में।
फूलपुर सामुदायिक केंद्र में ही एक महिला मरीज बताती है कि वो डॉक्टर को दिखाने आयी थी। डॉक्टर ने सीबीसी जांच बाहर से कराने को लिखा है। कह रहे हैं किट खत्म हो गयी है। इसी तरह दवाइंया भी बाहर से लिख देते हैं। नेहा को कुछ दिक्कत हुई तो वो डॉक्टर को दिखाने अपने क्षेत्र के सामुदायिक स्वस्थ्य केंद्र पहुंची। वहां उन्हें यूरिक एसिड टेस्ट और यूरिन कल्चर टेस्ट लिखा गया। दोनों टेस्ट अंदर ही हो गया। लेकिन उसके लिए उन्हें जेब ढीली करनी पड़ी। कर्मचारी ने बेशर्मी को ढिठाई में बदलते हुए कहा कि क्या करें खत्म हो गया है। अब जो बहुत मज़बूर है, ग़रीब है उसके लिए चार छः बचाकर रखा है।
लोग आरोप लगाते हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर दवा वितरण में लगे लोग रजिस्टर में दवाईंया मरीज के नाम पर चढ़ा देते हैं, पर ह़कीकत में नहीं देते और उन्हें बुनियादी दवाईंया भी बाहर से ख़रीदनी पड़ती है। सरकारी दवाईंया क़स्बे के झोलाछाप डॉक्टरों के यहां बेंची जाती हैं। क्योंकि झोलाछाप डॉक्टर खुद से दवाईंया देते हैं वो दवा के लिए मेडिकल स्टोर नहीं भेजते।
जबसे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रो और जिला अस्पतालों में संविदा पर डॉक्टरों को रखने का सिलसिला शुरु हुआ है सरकारी डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस नहीं कर सकते ये मेडिकल इथिक्स खत्म हो गया है। क्योंकि संविदा पर रखे गये डॉक्टरों को बहुत कम पैसा दिया जाता है। ऐसे में उन्हें प्राइवेट प्रैक्टिस से रोका भी तो नहीं जा सकता है। एक महिला डॉक्टर जो कि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर भी बैठती हैं वो अपना खुद का भी क्लीनिक चलाती हैं। एक महिला मरीज जोकि पहले उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर दिखा चुकी थी उन्हें दोबारा दिखाने उनके प्राइवेट क्लीनिक पर जाती है।
चूंकि क्लीनिक पर खुद की डिस्पेंसरी भी चलाती है। तो अधिकांश प्राइवेट अस्पतालों की तर्ज पर वो जो दवा मरीज को लिखती हैं उसे उन्हीं के मेडिकल स्टोर से लेना पड़ता है। जहां उक्त मरीज को एक पैरासीटामोल का 10 टैबलेट का पत्ता 138 रुपये में ख़रीदना पड़ा। जबकि पैरासिटामोल सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में मुफ़्त में मिलता है। लेकिन छोटी-छोटी चोरियों से दवाओं का अकाल नहीं पड़ा है। सरकार ने सरकारी डिस्पेंसरी में मिलने वाली दवाईंयों की संख्या में भारी कटौती की है। साथ ही कई जांच अलग-अलग कारणों से नहीं किये जा रहे हैं। लम्बी लाइन लगने के बाद यदि मरीज को सभी दवाईंया और जांच नहीं मिलेगा तो वो सरकारी असपतालों में इलाज के लिए जाएंगे ही क्यों?
( प्रयागराज से सुशील मानव की रिपोर्ट)
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