देहरादून। उत्तराखण्ड में बाघ खेतों और खलिहानों से लोगों को उठा कर ले जा रहे हैं जबकि वन विभाग के अफसर सदैव कुर्सी की लड़ाई में मशगूल रहते हैं। राज्य सरकार को ‘काॅमन सिविल कोड’ और धर्मान्तरण की तो चिन्ता रहती है मगर वन्यजीवों के निवाले बनते जा रहे नागरिकों की चिन्ता नहीं रहती।सरकारी आंकड़ों को भी देखें तो राज्य गठन से लेकर अब तक प्रदेश में 503 लोग गुलदारों द्वारा और 69 लोग बाघों द्वारा मारे जा चुके हैं।
इस साल जनवरी से लेकर अब तक उत्तराखण्ड में 11 लोग वन्य जीवों के हमलों में मारे जा चुके हैं और 36 लोग घायल हो चुके हैं। अगर राज्य गठन से लेकर अब तक के वन्य जीव और मानव संघर्ष पर गौर करें तो इस पहाड़ी राज्य में प्रतिवर्ष औसतन 46 लोग वन्य जीवों के निवाला बन रहे हैं और सैकड़ों लोग घायल या अंगभंग हो रहे हैं। भारत में मानव-वन्यजीव संघर्ष के मामले में उत्तराखण्ड शीर्ष दो राज्यों में शामिल है।
देश का इतना छोटा राज्य और मानव जीवन के लिये इतना बड़ा खतरा सचमुच बेहद चिन्तनीय है। इस तरह देखा जाय तो कभी सुरक्षित मानी जाने वाली हिमालय की गोद आज उत्तराखण्ड वासियों के लिये दैवी आपदाओं के बाद वन्य जीवों के हमलों के कारण सबसे अधिक असुरक्षित हो गयी है।
नौबत यहां तक आ गयी है कि राजधानी देहरादून भी गुलदारों के खतरों से सुरक्षित नहीं है। देहरादून हरिद्वार मार्ग पर लच्छीवाला क्षेत्र में हाथियों का आतंक तो रहता ही है लेकिन झाड़ियों में घात लगाकर बैठे गुलदार भी लोगों को अक्सर दबोच लेते हैं। पौड़ी जिले के 24 गावों में प्रशासन को इस अप्रैल में रात का कर्फ्यू लगाना पड़ा।
गत 13 अप्रैल को एक 73 वर्षीय किसान बीरेंद्र सिंह अपनी पत्नी के साथ पौड़ी जिले के कालागढ़ टाइगर रिजर्व की सीमा से सटे रिखणीखाल ब्लॉक के डल्ला गांव में अपनी गेहूं की फसल काट रहे थे और इसी दौरान एक बाघ ने उन पर हमला कर दिया। मदद के लिए पत्नी के चिल्लाने के बावजूद जानवर किसान को खींच ले गया। बाद में ग्रामीणों को कुछ दूर पर व्यक्ति का क्षत-विक्षत शव मिला।
उसके तुरन्त बाद दूसरी घटना में जो दल्ला से बमुश्किल 35 किमी दूर हुई, 75 वर्षीय सेवानिवृत्त शिक्षक रणवीर सिंह का आधा खाया हुआ शव 15 अप्रैल को नैनीडांडा ब्लॉक के सिमली गांव में उनके घर के पास मिला था। वन विभाग के मुताबिक, बीते दस सालों में गुलदार ने पौड़ी जिले में करीब 45 लोगों की जानें ली हैं।
गुलदारों के सर्वाधिक हमले पौड़ी रेंज में ही हुए हैं क्योंकि सर्वाधिक मानव पलायन इसी जिले में हुआ है। प्रदेश में मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। एक साल में मानव वन्यजीव संघर्ष के 428 मामले प्रकाश में आये हैं जिनमें 80 लोग मारे गए।
भारत में बाघों और गुलदारों के हमलों से 10 राज्य प्रभावित घोषित किये गये हैं। जिनमें उत्तराखण्ड राज्य महाराष्ट्र के बाद दूसरे स्थान पर तथा कर्नाटक तीसरे स्थान पर आता है। महाराष्ट्र में ताडोबा-अंधारी टाइगर रिजर्व, पेंच टाइगर रिजर्व और संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान जैसे कई संरक्षित क्षेत्रों के साथ महाराष्ट्र में बाघों और तेंदुओं की काफी आबादी है। इसीलिये वह राज्य मानव-वन्यजीव संघर्षों के लिहाज से सर्वाधिक संवेदनशील राज्यों की सूची में शामिल किया गया है।
इसी प्रकार उत्तराखंड में भी बाघों और गुलदारों की भारी संख्या के चलते इस राज्य को दूसरे नम्बर पर रखा गया है। जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क, राजाजी नेशनल पार्क और नंदा देवी नेशनल पार्क सहित एक बड़े वन क्षेत्र और कई संरक्षित क्षेत्रों के साथ राज्य में जानवरों और मनुष्यों के बीच संघर्ष के मामले अक्सर देखे जाते हैं।
उत्तराखण्ड वन विभाग से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार इस साल जनवरी से लेकर 3 मई तक गुलदारों ने 3 लोगों को निवाला बनाया और 14 को घायल किया। इसी प्रकार बाघों ने 5 लोगों को अपना निवाला बनाया। गुलदार दिन-दहाड़े बस्तियों में लोगों और मवेशियों का पीछा करते नजर आते हैं।
वन विभाग के आंकड़ों के अनुसार 2001 से लेकर 2022 तक प्रदेश में 72 गुलदारों को मानवभक्षी घोषित कर मारा जा चुका है। अब भी कई मानवभक्षी बस्तियों के करीब घात लगाये बैठे रहते हैं। गुलदार ही नहीं राष्ट्रीय पार्कों और खास कर ‘कार्बेंट नेशनल पार्क’ और राजाजी के आसापास के क्षेत्रों में बाघों का आतंक भी बरकरार है। गुलदार के हमले से कोई बच भी जाय मगर बाघ के जबड़े में अगर कोई एक बार आ जाय तो उसे यमराज भी नहीं बचा सकता।
वन विभाग के आंकड़े भी यही बता रहे हैं। इस साल 7 मई तक गुलदार के हमलों में 4 लोग मारे गये और 14 घायल हुये हैं। जबकि बाघ की चपेट में पांच लोग आये तो पांचों ही मारे गये।
टिहरी जिले में देवप्रयाग-कीर्तिनगर रेंज और पौड़ी जिले में पौड़ी रेंज, उत्तराखंड में मवेशी उठाने और मानव मृत्यु के लिए सबसे अधिक संवेदनशील माने गये हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों के शोध पत्र के अनुसार पौड़ी जिले में समुद्रतल से 900 मीटर से लेकर 1500 मीटर की ऊंचाई वाला क्षेत्र मानव- गुलदार संघर्ष के लिये सबसे अधिक संवेदनशील है। जिले में 400 से लेकर 800 मीटर और 1600 से लेकर 2300 मीटर की ऊंचाई तक यह खतरा बहुत मामूली है जबकि 2300 मीटर से ऊपर और 400 मीटर से नीचे कोई मानव-गुलदार संघर्ष नहीं पाया गया है।
शोधपत्र के अनुसार नरेंद्रनगर वन प्रभाग गढ़वाल हिमालय में जैव विविधता का एक महत्वपूर्ण भंडार है। यहां जंगल में पादप विविधता के चलते जंगली जानवरों के बड़े समूहों को अनुकूल स्थिति मिलती है। इस वन प्रभाग के 3 रेंज मानिकनाथ, शिवपुरी और सकलाना के साथ-साथ हाल ही में बनाए गए नरेंद्रनगर और कीर्तिनगर रेंज हाथियों, बाघों, तेंदुओं, जंगली सूअरों, बंदरों, हिरणों आदि की आबादी के लिये मुफीद माने जाते हैं। इन वन्य जीवों की निकटता से आसपास की आबादी और वन्यजीवों का संघर्ष बढ़ जाता है।
उत्तराखण्ड में शिक्षा विभाग के बाद वन विभाग का सबसे बड़ा ढांचा है, जिसमें भारतीय वन सेवा के 66 पद स्वीकृत हैं जिन पर 95 अधिकारी बैठे हुये हैं। शीर्ष पर प्रमुख वन संरक्षक के 2 पद और उनके ऊपर भी एक हाॅफ ( हेड ऑफ फारेस्ट फोर्स) होता है। लेकिन कभी-कभी इस रैंक के 5 तक अधिकारी पदासीन रहते हैं। प्रमुख वन संरक्षक ‘हाॅफ’ की कुर्सी के लिये सदैव जंग छिड़ी रहती है। हाल ही में दो अफसर सेवा निवृति के दिन तक कुर्सी के लिये लड़ते रहे। इनके अलावा अपर प्रमुख वन संरक्षक के 4 पद स्वीकृत हैं जिन पर 10 तक अफसर बैठ जाते हैं।
मुख्य वन संरक्षक के स्वीकृत 14 पदों पर 21 तक अफसर होते हैं। वन संरक्षकों के भी 12 के मुकाबले 21 वन संरक्षक पदासीन रहते हैं। लेकिन जैसे-जैसे अफसरों के रैंक घटते जाते हैं तो उनकी संख्या भी घटती जाती है। जबकि जंगलों में असली सुरक्षा और संरक्षण का असली काम छोटे अफसरों और फारेस्ट गार्ड और फारेस्टरों का ही होता है। रेंजरों के 308 में से 199 पद भरे हुये हैं। फील्ड स्टाफ के 3650 में कुल 2457 पद ही भरे हुये हैं।
(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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