बिना मुलाकाती के कैसी होगी जेल की दुनिया?

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(पत्रकार रूपेश कुमार सिंह ने बिहार के गया सेंट्रल जेल और शेरघाटी सब-जेल में 2019 में छह माह बिताएं हैं। इन पर भाकपा (माओवादी) का नेता होने और भाकपा (माओवादी) के बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमिटी के मुखपत्र ‘लाल चिनगारी’ का संपादक होने का आरोप बिहार पुलिस ने लगाया था। इन पर UAPA की आधा दर्जन धाराओं के साथ-साथ सीआरपीसी और आईपीसी की कई धाराओं के तहत मुकदमा किया गया था, लेकिन 180 दिन के अंदर जांच अधिकारी न्यायालय में चार्जशीट जमा नहीं कर पाए। फलस्वरूप ये डिफॉल्ट बेल पर 6 दिसंबर, 2019 को जेल से रिहा हो गए।)

पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की जेल डायरी ‘कैदखाने का आईना’ दिसंबर, 2020 में प्रलेक प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित हुई है, जो अमेजान और फ्लिपकार्ट पर भी मौजूद है।)

जेल में परिजनों और शुभचिंतकों से आमने-सामने मिलकर बात करना बंद हुए लगभग 10 महीने हो गए हैं। जेल में सबसे प्यारा, उत्साह-भरा, आशा और उम्मीद का कोई शब्द है, तो वह है मुलाकाती और जमानत। ये दोनों शब्द सुनकर एक बार तो जरूर ही बंदी उछल पड़ते हैं। इन दोनों शब्द में से ‘जमानत’ पर बंदी या बंदी के परिजनों का कोई वश नहीं रहता है, वह पूरी तौर पर ‘जज साहब’ व ‘सरकार’ के रहमोकरम पर निर्भर होता है, लेकिन ‘मुलाकाती’ शब्द पर पूरा नियंत्रण बंदियों के परिजनों पर रहता था, वे चाहें तो हर सप्ताह जेल में बंद को ‘मुलाकाती’ शब्द की खुशी दे सकता था। मगर, कोविड-19 और लॉकडाउन के प्रारंभ से ही सरकार ने बंदियों के परिजनों से सप्ताह में एक दिन जेल में बंद बंदियों से मिलने का अधिकार भी छीन लिया और अब तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि कब तक बंदी ‘मुलाकाती’ के अधिकार से वंचित रहेंगे?

इस मामले पर तमाम विपक्षी राजनीतिक दल और बंदियों के अधिकार पर काम करने वाले संगठन भी चुप्पी साधे हुए हैं। शायद उनके लिए जेल के बंदी कोई मायने ही नहीं रखते हैं या फिर ये बंदी उनकी ‘राजनीति’ के ‘लोकप्रिय एजेंडे’ में जगह ही नहीं बना पाते हैं।

मैंने जब पहली बार 7 जून, 2019 को बिहार के गया जिलांतर्गत ‘शेरघाटी सब-जेल’ में प्रवेश किया, तो जेल की ‘नित्यक्रिया’ की जानकारी देने के क्रम में ही एक बंदी ने बताया कि यहां ‘सोमवार’ को छोड़ कर सप्ताह में छह दिन मुलाकाती होती है और सोमवार को छोड़कर सभी दिन आपके परिजन चाहें तो आपसे मिल सकते हैं। (दरअसल सभी जेलों में सप्ताह में एक ही दिन एक बंदी से मिलने उनके परिजन आ सकते हैं।

दोबारा मिलने के लिए उन्हें एक सप्ताह इंतजार करना होता है और मुलाकाती करने आए परिजनों के लिए यह व्यवस्था निःशुल्क होती है, लेकिन यहां पर सोमवार को छोड़कर प्रतिदिन परिजन मिल सकते थे, परंतु प्रति व्यक्ति (परिजन) 25 से 50 रुपये की घूस जेल प्रबंधन को देना पड़ता था। दूसरे दिन यानी 8 जून को सुबह नौ बजे से लाउडस्पीकर पर बंदियों के नाम की उद्घोषणा उनके पूरे पते के साथ होने लगी, यानी मुलाकाती प्रारंभ हो चुकी थी। यहां पर नौ बजे से 12 बजे तक मुलाकात कराई जाती थी।

मैं यह सब बहुत ही गौर से देख रहा था और बंदियों की मनोभावना को समझने की कोशिश कर रहा था। जैसे किसी बंदी के नाम की घोषणा होता, उस बंदी के चेहरे पर चमक आ जाती। तुरंत सबसे अच्छे कपड़े पहनकर तैयार हो जाता और लगभग दौड़ते हुए जेल गेट पर बने मुलाकाती कक्ष की ओर जाता। अगर बंदियों को पहले से पता होता कि आज उनकी मुलाकाती होने वाली है और कौन-कौन मिलने आ रहे हैं, तो वह उस अनुसार पहले से तैयार होकर बैठा रहता और कान को लाउडस्पीकर की तरफ लगाए रखता।

मुझसे दूसरे दिन भी कोई मिलने नहीं आया, जबकि मैं भी बेसब्री से अपने परिजनों का इंतजार कर रहा था, क्योंकि मुझे उनको बताना था कि मेरी गिरफ्तारी 6 जून (पुलिस के अनुसार) को नहीं बल्कि 4 जून को हुई है और मुझे गया (बिहार) के डोभी से बिहार पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया है, बल्कि हजारीबाग (झारखंड) के पद्मा से आईबी और एपीएसआईबी ने अपहरण कर दो दिनों कोबरा 205 बटालियन के कैंप में अवैध हिरासत में रखकर 6 जून को गया पुलिस को सौंपा है, लेकिन 8 जून को मैं यह बात अपने परिजनों को नहीं बता सका, क्योंकि कोई मिलने ही नहीं आया।

अंततः 9 जून को मेरे परिजन मुझसे मिलने आए और मैं उन्हें सब कुछ बता सका। बाद में मेरे परिजनों ने सारी सच्चाई मीडिया के जरिए दुनिया को भी बताई। मैं सोचता हूं कि अगर मेरी ‘मुलाकाती’ नहीं आती, तो दुनिया सच्चाई कैसे जानती और कैसे मेरी गिरफ्तारी का विरोध कर पाते? आज जब मुलाकाती बंद है, तो पता नहीं कितनी सच्चाई जेल में ही कैद होकर रह गई होगी।

शेरघाटी सब-जेल में मैंने कई ऐसे बंदियों को देखा, जो ‘मुलाकाती’ नहीं आने के कारण मानसिक अवसाद के शिकार हो गए थे। एक बंदी था छोटू मांझी, उसे ट्रैक्टर चोरी के आरोप में गिरफ्तार कर जबरदस्त शारीरिक टॉर्चर किया गया था। टॉर्चर के दौरान ‘बिजली के झटके’ का भी इस्तेमाल किया गया था, जिससे वह पागल हो गया था। वह काफी गरीब परिवार का था। उसे अगर कोई बंदी बोल देता था कि आज तेरा मुलाकाती आने वाला है, तो वह सुबह-सुबह ही नहा-धोकर तैयार होकर जेल गेट के पास मंडराने लगता था और मुलाकाती कक्ष में जाने की जिद करता था। कई बार उसे बंदी अंदर भी ले जाते थे और अपने परिजनों से ही उसका रिश्तेदार बताकर मिला देते थे।

यहीं पर एक बार एक डॉक्टर बंदी बनकर आया और रात में काफी जोर-जोर से चिल्लाने लगा। वह डिप्रेशन में जा रहा था, क्योंकि उसके घर में उसकी पत्नी और एक बच्चा ही था। दूसरे दिन जब उसका भाई उससे मिलने आया, तो उसे मैंने बोला कि इनकी पत्नी और बच्चे को कल इनसे मिला दीजिए। जब उस डॉक्टर से उसकी पत्नी औ बच्चे ने मुलाकात की तो वह डिप्रेशन से कुछ बाहर निकला। इसके बाद वह जब भी डिप्रेशन में जाता, उसकी पत्नी और बच्चे को बुला दिया जाता और वो ठीक हो जाते।

जब मैं गया सेंट्रल जेल के अंडा सेल में था, तो वहां एक युवक माओवादी होने के आरोप में बंद था। उनकी उम्र लगभग 40 वर्ष होगी। उनके बारे में मुझे एक बंदी ने बताया था कि यह कुछ महीने भाकपा (माओवादी) के जनमुक्ति छापामार सेना (पीएलजीए) में रहा था। बाद में पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ के बाद डरकर भाग गया और किसी होटल में काम करने लगा। वहीं पर एक दिन शराब के नशे में बोल दिया कि ‘मैं माओवादी की फौज में रहा हूं।’

यह बात कानों-कान पुलिस तक भी पहुंच गई और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। ये काफी गरीब घर के थे और इनके परिवार में शायद ऐसा कोई नहीं था, जो इनकी जमानत करवा पाते। इसलिए बंदियों के बीच से ही चंदा जुटाकर इनकी जमानत करवाई जा रही थी। जब से ये जेल आए थे, तब से इनसे मिलने भी कोई नहीं आया था। एक दिन सुबह-सुबह मैंने देखा कि ये लगभग एक घंटे से साबुन घिस-घिस कर नहा रहे थे और काफी खुश थे। यह दिसंबर के ठंड का मौसम था। मैंने सुबह-सुबह नहाने का कारण पता किया, तो पता चला कि उन्हें किसी बंदी ने मजाक में कह दिया है कि ‘आपकी बहन अपनी ननद के साथ आपसे मुलाकात करने आने वाली है।’

मुलाकात का समय खत्म हो गया, लेकिन इनकी पर्ची नहीं आई, ये मन को सांत्वना देने लगे कि शायद देर हो गई हो, इसलिए मुलाकात नहीं करने दिया गया हो, लेकिन कुछ देर बाद इन्हें असलियत पता चल गई, फिर तो उन्होंने मजाक करने वाले बंदी को दिन भर गालियां दीं। बाद में तीन-चार दिन काफी दुखी रहे, फिर उन्हें कुछ बंदियों ने समझाया, तब ये अवसाद से बाहर आए।

जेल में ‘मुलाकाती’ के कई ऐसे दिलचस्प और दारूण उदाहरण भरे पड़े थे। शायद ही ऐसा कोई दिन होता होगा, जब मुलाकाती कक्ष के अंदर और बाहर आंसुओं की धार न फूटी हो। बंदियों पर मुलाकाती आने के बाद के लगभग दो दिन तक जरूर मुलाकाती का प्रभाव रहता था। मुलाकाती के परिजनों से की गई बातचीत का असर भी उन पर पड़ता था, जैसा अगर कोई खुशी शेयर की गई हो, तो वे खुश रहते थे और अगर कोई दुख शेयर किया गया हो, तो गम में रहते थे।

‘मुलाकाती’ आने का एक दूसरा फायदा भी था कि बंदी जेल के घटिया खाना खाने के अलावा उस दिन घर का बना खाना खाते थे, क्योंकि लगभग सभी बंदी के परिजन घर से कुछ न कुछ बना कर जरूर लाते थे। फिर तेल, साबुन, कपड़े और जरूरत के अन्य सामान के साथ-साथ मुकदमे का अपडेट भी मुलाकाती के जरिए मिल जाता था। वैसे गया सेंट्रल जेल और शेरघाटी सब-जेल में टेलिफोन बूथ के नाम पर ‘एसटीडी बूथ’ तो था, लेकिन उसके अंदर में फोन नहीं था। दबंग बंदियों के पास अपनी औकात के अनुसार मोबाईल जरूर था, लेकिन गरीब बंदियों के लिए अपने परिजनों से बात करने का मुलाकाती ही एक जरिया थे।

पिछले 10 महीने के दौरान जेल से जमानत पर रिहा हुए कुछ बंदियों ने मुझे बताया कि जेल की हालत पहले से काफी खराब हो गई है। जेल के अंदर बंदियों का जेल प्रशासन द्वारा उत्पीड़न और जेल में भ्रष्टाचार भी काफी बढ़ा है। इस दौरान कई बंदी गंभीर रूप से बीमार हो गए हैं, जिनके इलाज की समुचित व्यवस्था भी ‘लॉकडाउन’ का बहाना बनाकर नहीं की गई। इस दौरान भी जेल के अंदर बाहुबलियों और धनकुबेरों को कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि उनके लिए सारी सुविधाएं पहले के तरह ही जारी रहीं। अगर मूलभूत सुविधाओं के लिए भी कोई तरसा, तो वह था जेल में बंद गरीब बंदी थे।

(स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह का लेख।)

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