जो भी हो रहा है इस देश में वह चौंका देने वाला और गलत सिग्नल देता हुआ है: सुप्रीम कोर्ट

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“कुछ है जिसे अनुच्छेद 21 कहते हैं। जो भी हो रहा है इस देश में वह चौंका देने वाला और गलत सिग्नल देता हुआ है।” जी हां ये शब्द सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अभय ओका और कोटिश्वर सिंह के हैं। जिन्होंने बुलडोजर एक्शन पर फैसले की सुनवाई के दौरान एक बात कही। अपने हाल की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने अपने तेवर थोड़े कड़े करते हुए इस मामले की गंभीरता को देखते हुए यह फैसला दिया कि अब अगर गलत तरीके से मकान तोड़े जाते हैं तो राज्य सरकारें खुद उस मकान के निर्माण का कार्य करेंगी। 

यह एक बहुत ही युक्तियुक्त पहल है क्योंकि अगर राज्य केवल सजा देने का हक रख ले और उसकी गलती को पूरी तरीके से नजरअंदाज करते हुए एक “प्रश्न न सुनने वाली संस्था बन जाए” तो लोगों द्वारा चुना गया राज्य भी निरंकुश और अधिनायकतंत्र का परिचायक हो सकता है।

यह फैसला एक पिटीशन की सुनवाई में आया जिसकी अगुवाई वकील जुल्फिकार हैदर, प्रोफेसर अली अहमद और 2 विधवा औरतें कर रहे थे। याचिकाकर्ताओं की माने तो यह जमीन उन्होंने लीज पर ली थी और समय सीमा के रहते ही वह इसे फ्रीहोल्ड प्रॉपर्टी के रूप में बदलने के लिए कानूनी पहल करना चाहते थे उसी बीच एक रात को उनके पास एक नोटिस आता है और अगली सुबह उनका घर तोड़ दिया जाता है। 

इससे पहले भी उत्तर प्रदेश सरकार समेत मध्य प्रदेश और गुजरात के साथ उत्तराखंड सरकारों द्वारा लोगों के मकान कभी सांप्रदायिक झड़पों के कारण कभी आपराधिक कृत्य का आरोप लगाकर तोड़े जाते थे हैं और इसकी वाहवाही लूटने में सरकार मगन रही है।

जनता किसी प्रांत के मुख्यमंत्री को बुलडोजर बाबा का नाम देकर ऐसे कृत्यों को बढ़ावा दे रही है तो कहीं इसे त्वरित न्याय का तरीका बताया गया। “मुल्लों के घर टूट रहे हैं क्या ही दिक्कत होनी चाहिए भाई, इनकी चले तो बच्चा पैदा करें और जमीनों पर कब्जा करें।” जी हां ये बयान किसी अनपढ़ और अशिक्षित लोग के नहीं देश के स्थापित वकीलों, डॉक्टरों के, इंजीनियर के हैं। जिन्हें सबसे ज्यादा शिक्षा प्राप्त तबका देश का समझा जाता है। 

जी हां प्राकृतिक न्याय और “सभी को सुने जाने का अधिकार” (ऑडी अल्ट्रम पार्टम) की पूरी संकल्प महज एक न्यायिक दर्शन के रूप में नजर आती है जहां एक रात में किसी का घर गिरा दिया जाता है। अटॉर्नी जनरल ने जब सर्वोच्च न्यायालय से यह मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में भेजने की अपील की तब सर्वोच्च न्यायालय ने इसे समय की बरबादी बताते हुए खारिज कर दिया।

पर ऐसा क्या था जो अटॉर्नी जनरल उच्च न्यायालय में पा जाते। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमें पुराने मामलों को देखने से मिल जाता है जहां मकान ध्वस्त करने के मामले में उच्च न्यायालय ने कोई ठोस सवाल राज्य सरकार से न पूछते हुए उसकी वैधानिकता को ही सराहा है जिसका एक लाभ सरकारें उठती रही हैं।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनकी अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि सरकार ने एक पत्र द्वारा 2020 में ही इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि वह लीज को फ्रीहोल्ड में नहीं बदलेगी और उसके बाद याचिकाकर्ता को बिना समय दिया ही मामला खारिज कर दिया। अब बड़ा सवाल यही है कि जो अधिकार सर्वोच्च न्यायालय देने के पक्ष में है उसे उच्च न्यायालय सुन भी नहीं पा रही है। क्या यह निचली न्यायपालिका की सरकार के साथ कदमताल करने की प्रवृत्ति है? 

इस पूरे समुदाय को सांप सूंघ जाता है जब इस देश में लेबर लॉ के बारे में बात होती है। अनुकम्पा पर नौकरियों की वेकेंसी सरकारों के भ्रष्टाचार के कारण कभी सफल नहीं हो पाती है, महंगाई का हवाला बाहरी दबाव में दिया जाता है। परन्तु मुसलमानों को गाली देने में ये सबसे आगे हैं।

मैं मानता हूं कि यह हो भी क्यों न; ये आज भी जिसे आदर्श मानते हैं वह अपने समय के ऐसे लोग हैं जो रुतबे से समझदार और नासमझ को मानते हैं। ये आज भी उस ब्राह्मणवादी ज्ञान–मीमांसा में डुबकी लगाते हैं जो अपनी कमियां छुपाने के लिए एक लंबे समय तक बौद्ध धर्म को गाली देता रहा कि विदेश जाना पानी लांघना घोर पाप है और बाद में कर्मकांड द्वारा लोगों को बेवकूफ बनाते रहे।

इनके हिसाब से आज तक वही समाज में बड़ा इंटेलेक्चुअल है जिसकी भाषा लोगों को समझ में नहीं आती है और वह एक ऐसा तबका बनाने का आदर्श लिए घूमता है जिसमें 1 प्रतिशत मिलकर पूरे 99% जनता का मुस्तकबिल लिख रहे हैं। 

मेरी समझ से ऐसे लोगों के लिए बुलडोजर न्याय की परिभाषा में कोई खामी नजर नहीं आनी चाहिए क्योंकि इनके लिए मूल समस्या तो बच्चा पैदा करने में, उल्टे हाथ से खाना खाने में, आतंकवाद की जड़ ढूंढने में है। इसके लिए यह खेमा अभी कुछ दिन में अभय ओका और जस्टिस नागरत्ना जैसे लोगों को भी ’लिबरल’ और ’वामपंथी’ बोलकर ट्रोल करेंगे।

पर बड़ा सवाल यह भी है कि इनके पास इसके अलावा कुछ है भी नहीं। मैं इससे पहले के अपने लेखों में अर्थशास्त्रीय समस्याओं और न्यायिक पहल में भारतीय राज्य की सीमाओं को दिखाते का प्रयास किया है।

ये कानूनी हस्तक्षेप के ऐसी प्रक्रिया होती है जिससे सरकारें पूरे समाज में एक संदेश देना चाहती है कि वह जो चाहे वह कर सकती हैं परन्तु अगर उसके विरोध में कोई आवाज उठाता है या अपने अधिकार के लिए खड़ा होता है तो उसे एक व्यापक “अन्यायिक प्रक्रिया” से गुजरना होगा जो न केवल उसके बल्कि पूरे समाज के लिए घटक है।

परन्तु बड़ा सवाल अभी भी यही है कि न्यायालय जो पहल दिखा रही है उसका खामियाजा इस देश की जनता को ही भोगना पड़ेगा जहां पर उनके पैसे से सरकारें दोबारा मकान बनवाएंगी। परन्तु उनका क्या जो ऐसे आदेश देकर समाज में और प्रशासनिक महकमे में घूम रहे हैं। क्या उनपर बिना कार्यवाही किए हुए उन्हें छोड़ देना चाहिए? 

यहीं से एक बड़ा सवाल भी खड़ा होता है, जिसे लंबे समय से न्यायपालिका ने भी अनदेखा किया है कि जिन लोगों पर लंबे-लंबे मुकदमे चलाए जाते हैं वह इंसान अगर दोषमुक्त बरी होता है तो उसके कंपनसेशन के लिए सरकारें क्या करें और उन अधिकारियों पर क्या कार्यवाही होनी चाहिए जिन्होंने गलत जांच करके सबूतों की सही से जांच न करते हुए, साक्ष्यों को जानबूझकर बनते हुए लोगों को फंसाते हैं। उसको लेकर न्यायालय की चुप्पी एक बड़े सरकारी सरगना को जन्म देता है, जो खुले तौर पर कुछ भी कर सकते हैं और वह जानते हैं उनपर कोई कार्यवाही नहीं होगी। 

मॉन्टेस्क्यू ने, जब राज्य तीन इकाइयों में बनता था, तब उसकी भी यही समझदारी थी कि अगर समस्त शक्ति किसी एक जन के हाथ में दी जाए तो वह निरंकुश और तानाशाह हो जाती है।

मार्क्स ने जब 100 साल बाद उस बात को लिखा तब उन्होंने भी इसी बिंदु को छूने का प्रयास किया कि कम्युनिटी बेस्ड व्यवस्था का होना जरूरी है जहां सबका अपना हक हो और वर्गीय असमानता समाप्त हो। कार्यपालिका और विधायिका लगभग मिल चुकी है न्यायपालिका के ऊपरी स्तर को अगर छोड़ दें तो निचली अदालतें सरकार के खिलाफ फैसला देने से ज्यादातर बच ही रही हैं। ऐसे में देश की जनता को गंभीरता से इस सवाल को लेना चाहिए। 

(निशांत आनंद कानून के छात्र हैं।)

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