भयावह रूप से क्यों गायब हो रही हैं भारत से महिलाएं और लड़कियां?

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आज देश में महिलाओं और लड़कियों के प्रति अपराधों में भयानक रूप से वृद्धि हो रही है, विशेष रूप से बलात्कार के मामले में। देश का कोई राज्य इससे अछूता नहीं है। इसके प्रति कड़े कानून भी बनाए गए, बावज़ूद इसके यह सिलसिला थमने को नहीं आ रहा है। विभिन्न राजनीतिक दल अपने-अपने राजनीतिक हितों के अनुरूप ही महिलाओं पर अत्याचार के मुद्दे उठाते हैं।

पिछले दिनों कोलकाता में एक महिला डॉक्टर से बलात्कार और हत्या के मामले में इन चीज़ों को भलीभांति देखा जा सकता है। महिलाओं के साथ केवल बलात्कार के मामले ही नहीं है, बल्कि देश भर में महिलाओं और लड़कियों के ग़ायब होने तथा उनके अपहरण के मामले भी बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं और उससे सम्बन्धित आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं। 

 देश में 2019 से 2021 के बीच लापता हुई लड़कियों और महिलाओं में सबसे अधिक लगभग दो लाख लड़कियां मध्य प्रदेश से और दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल था। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2019 से 2021 के बीच देश भर में 18 वर्ष से अधिक आयु की 10,61,648 महिलाएं और उससे कम आयु की 2,51,430 लड़कियां लापता हुईं।

फेमिनिज़्म इन इंडिया यूएनएफपीए की रिपोर्ट बताती है कि यदि भारत की जनसंख्या वर्तमान दर से, जो लगभग एक प्रतिशत प्रतिवर्ष है, इसी‌ तरह बढ़ती रही तो अगले 75 वर्षों में यह वर्तमान से दोगुनी हो जाएगी, लेकिन भारत महिला जनसंख्या के मामले में आज भी पिछड़ा हुआ है और यहां महिलाओं और लड़कियों की संख्या अनुमान से करोड़ों कम है।

हमारे देश में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का एक क्रूर रूप है महिलाओं का लापता हो जाना। अफसोस की बात है ये महिलाओं और किशोरियों की आर्थिक स्थिति, शैक्षिक स्थिति, सामाजिक और यहां तक कि राजनीतिक स्थिति से भी जुड़ी है।   

देश में लापता महिलाओं और लड़कियों की व्यापक वास्तविकता बेहद चिंताजनक और निराशाजनक है। हाल ही में विधानसभा में कांग्रेस विधायक और पूर्व गृह मंत्री बाला बच्चन द्वारा सवाल उठाए जाने के बाद आधिकारिक आंकड़ों में पता चला है कि पिछले तीन सालों में मध्य प्रदेश में 31,000 से ज़्यादा महिलाएं और लड़कियां लापता हुई हैं। कुल लापता लोगों में से 28,857 महिलाएं और 2,944 लड़कियां साल 2021 से 2024 के बीच लापता हुईं।

एनडीटीवी की एक रिपोर्ट मुताबिक मध्य प्रदेश में हर दिन औसतन 28 महिलाएं और तीन बच्चे लापता होते हैं, इसके बावजूद आधिकारिक तौर पर सिर्फ 724 मामले ही दर्ज़ किए गए। पिछले 34 महीनों में उज्जैन में कुल 676 महिलाएं लापता हुईं, लेकिन एक भी मामला दर्ज नहीं हुआ।

रिपोर्ट बताती है कि राज्य के सागर जिले में सबसे ज्यादा 245 लड़कियां लापता हुईं। वहीं इंदौर में 2,384 मामले दर्ज़ किए गए, जो किसी भी जिले में सबसे ज्यादा है, लेकिन इंदौर में केवल 15 मामले दर्ज़ किए गए, जबकि इस में इस क्षेत्र में एक महीने में लापता मामलों की संख्या 479 है।

साल 2023 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2019 से 2021 के बीच लापता लड़कियों और महिलाओं की संख्या 1.31 मिलियन से भी ज़्यादा थी। इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं का लापता होना देश में महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट से पता चलता है कि इसी समयावधि के दौरान 18 वर्ष से अधिक आयु की दस लाख से अधिक महिलाएं और 18 वर्ष से कम आयु की 25 लाख लड़कियां लापता हुई हैं।

डेक्कन हेराल्ड की एक खबर मुताबिक 2019 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर शुरू किए गए एनसीआरबी द्वारा किए गए पहले के विश्लेषण का उद्देश्य बाल और महिला तस्करी के लिए अतिसंवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करना था। इस विश्लेषण के अनुसार इन लापता मामलों के कारण जटिल और बहुआयामी हैं, जिनमें मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं और गलतफहमी से लेकर घरेलू हिंसा और आपराधिक उत्पीड़न तक शामिल हैं।

साल 2018 आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार देश में 63 मिलियन लापता महिलाएं और 21 मिलियन अवांछित लड़कियां हैं। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि लापता महिलाओं के लिए सेक्स-सिलेक्टिव अबॉर्शन और पोषण और स्वास्थ्य देखभाल में प्रसवोत्तर उपेक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ये लापता महिलाएं लड़कों के लिए एक मजबूत सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्राथमिकता को दर्शाती हैं।

भारतीय नोबेल पुरस्कार विजेता, अर्थशास्त्री अमर्त्य कुमार सेन ने गणना की कि किस प्रकार लिंग अनुपात और लापता महिलाओं की संख्या में परिवर्तित हो जाता है। सेन ने 1992 में ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में ‘लापता महिलाओं’ की अवधारणा प्रस्तुत की थी। उन्होंने अनुमान लगाया था कि 100 मिलियन महिलाएं लापता हैं, जिनमें से 80 फीसद भारत और चीन से हैं।

देश में 2019 से 2021 के बीच लापता हुई लड़कियों और महिलाओं में सबसे अधिक लगभग दो लाख लड़कियां मध्य प्रदेश से और दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल था। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2019 से 2021 के बीच देश भर में 18 वर्ष से अधिक आयु की 10,61,648 महिलाएं और उससे कम आयु की 2,51,430 लड़कियां लापता हुईं।

इस खबर मुताबिक मध्य प्रदेश में साल 2019 से 2021 के बीच 1,60,180 महिलाएं और 38,234 लड़कियां लापता हुईं। इसी समय अवधि में पश्चिम बंगाल से कुल 1,56,905 महिलाएं और 36,606 लड़कियां लापता हुईं।

महाराष्ट्र में भी इस समय में 1,78,400 महिलाएं और 13,033 लड़कियां लापता हुईं। इसी तरह इसी समय के बीच ओडिशा में 70,222 महिलाएं और 16,649 लड़कियां लापता हुईं, जबकि छत्तीसगढ़ से 49,116 महिलाएं और 10,817 लड़कियां लापता हुईं। वहीं दिल्ली में इस समय सीमा के बीच 61,0 54 महिलाएं और 22,919 लड़कियां लापता हुईं, जबकि जम्मू कश्मीर से 8,617 महिलाएं और 1,148 लड़कियां लापता हुईं।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) द्वारा जारी 2020 की वैश्विक आबादी की स्थिति रिपोर्ट के अनुसार पिछले 50 सालों में लापता हुईं महिलाओं की संख्या दुगुनी हो गई है। यह संख्या साल 1970 में 6.10 करोड़ थी जो 2020 में बढ़कर 14.26 करोड़ हो गई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में साल 2020 तक 4.58 करोड़ और चीन में 7.23 करोड़ और 23 लाख महिलाएं लापता हुई हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने 2016, 2017 और 2018 की अवधि में किए गए ‘भारत में लापता महिलाएं और बच्चे’ अध्ययन में पाया कि देश में 5,86,024 महिलाएं लापता हैं। इसका मतलब है कि भारत में हर दिन 550 से ज़्यादा महिलाएं लापता हो रही हैं।

दुनिया के हर कोने में होने वाला यह अपराध सभी उम्र और पृष्ठभूमि के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को प्रभावित कर सकता है। मानव तस्करी एक गंभीर सामाजिक समस्या है, खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए, जो इस समस्या का सामना पुरुषों से अधिक करती हैं। यह उनकी गरिमा और मानवाधिकारों का हनन है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार महिलाओं और बच्चों की मानव तस्करी मानवाधिकारों के हनन के सबसे जघन्य प्रकारों में से एक है।

 चूंकि यह एक जटिल समस्या है, इसलिए इस पर शिक्षाविदों, कानूनी पेशे और नागरिक समाज ने बहुत कम ध्यान दिया है। इसे अक्सर सेक्स ट्रैफिकिंग से जोड़ा जाता है, जबकि यह मानव तस्करी की कहानियों का सिर्फ एक पहलू है।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ‘महिलाओं और बच्चों की तस्करी: चुनौतियां और समाधान’ के अनुसार श्रम और यौन तस्करी के लिए, भारत एक स्रोत, गंतव्य और ट्रांजिट देश है। भारत में 90 फीसद तस्करी देश के भीतर होती है, जबकि 10 फीसद राष्ट्रीय सीमाओं के पार होती है।

आंकड़ों के अनुसार भारत में मानव तस्करी किए गए 95 प्रतिशत लोगों को जबरन सेक्स ट्रैफिकिंग में डाल दिया जाता है। 2011 में मानव तस्करी के खतरे के संदर्भ में तस्करी सूचकांक में 196 देशों में से इसे सातवें स्थान पर रखा गया था। संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसे संगठनों ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए मजबूत, विश्वसनीय और अलग-अलग डेटा प्रणालियों को संभावित तरीकों के रूप में माना है।

2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, वे स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा और शासन जैसे प्रमुख क्षेत्रों में नैदानिक कार्य, रोकथाम और प्रतिक्रिया प्रयासों और नीतियों को सूचित करते हैं।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट  के अनुसार तस्करी की शिकार अधिकांश उत्तरदाता आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से थे। सरकार महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा की बात करती आ रही है। लेकिन लापता होती महिलाओं और लड़कियों की संख्या में कमी नहीं आ रही है। वहीं ये भी सच है कि ये सिर्फ दर्ज हुए केस हैं, क्योंकि बहुत से लोग लापता के मामले लोक लाज के डर से दर्ज नहीं कराते हैं।

असल में महिलाओं और लड़कियों का गायब होना और मानव तस्करी एक दूसरे से जुड़े हैं और ये बहुआयामी समस्या है, जिसमें गरीबी एक महत्वपूर्ण कारक है। आर्थिक संकट से निपटने के लिए, राज्यों को सभी कमज़ोर परिवारों, विशेष रूप से प्रवासियों और जोखिम में पड़े महिलाओं और किशोरियों की पहचान कर उन्हें सरकारी योजनाओं से जोड़ना चाहिए, ताकि नौकरी या अन्य झांसे के चक्कर में वे मानव तस्करी में न पड़े।

महिलाओं और किशोरियों का गायब होना एक गंभीर समस्या है, जो सामाजिक मानदंडों से जुड़ी है, इसलिए इसे सिर्फ़ कानूनी उपायों, सरकारी कार्यक्रमों या पहलों के ज़रिए संबोधित नहीं किया जा सकता। हमें रोजगार, आजीविका की संभावनाओं की कमी, लैंगिक भेदभाव जैसे गंभीर चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए इसकी रोकथाम के लिए सोचना होगा।

दुर्भाग्यवश महिलाओं के साथ हर तरह के अपराध; जिसमें बलात्कार, देहव्यापार और उनका अपहरण जैसे मुद्दे एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। सभी राजनीतिक दल इन‌ मुद्दों को अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए ज़रूर उठाते हैं, लेकिन इसे कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनाते। वास्तव में इसके पीछे वह पुरुष-सत्तात्मक मानसिकता ज़िम्मेदार है, जो महिलाओं और लड़कियों को दोयम दर्जे का‌ नागरिक मानती है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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