कॉलेजियम से नरीमन, लोकुर और पांचू के सवाल: जस्टिस मुरलीधर को सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं लाया गया?

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हाल के दिनों में देश के सबसे बेहतरीन न्यायाधीशों में से एक, एस मुरलीधर, 7 अगस्त 2023 को उड़ीसा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त हुए। इस लेख का उद्देश्य कॉलेजियम से यह पूछना है कि उनकी सेवानिवृत्ति की तारीख 7 अगस्त 2026, सुप्रीम कोर्ट से क्यों नहीं थी।

मुरलीधर का एक वकील के रूप में शानदार कैरियर था, मुख्यतः उच्चतम न्यायालय में। एक वकील के रूप में, और अपनी शैक्षणिक गतिविधियों में, कानून के साथ उनका जुड़ाव व्यापक और गहरा था, जिसके कारण उन्हें कानूनी सहायता और भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली पर थीसिस के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि मिली। इस विषय पर उनकी पुस्तक, ‘लॉ, पॉवर्टी एंड लीगल एड: ऐक्सेस टू क्रिमिनल जस्टिस’, उनका एक मौलिक योगदान है। उन्होंने महत्वपूर्ण मामलों में अपनी भूमिका निभायी। टी एन शेषन के समय में वे चुनाव आयोग के वकील थे, और भारत के विधि आयोग के अंशकालिक सदस्य भी थे। उनका जीवन प्रभावशाली रहा है।

2006 से 2020 तक दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान उनका आभा-मंडल और भी निखर गया। वह एक आदर्श न्यायाधीश थे- समझने में तेज, सुनने में धैर्यवान, फैसलों में निष्पक्ष, और इस सबके साथ-साथ उन्होंने एक जादुई दक्षता के साथ अपने न्यायालय का प्रबंधन किया। पूरी व्यवस्था को पेपरलेस करने वाले शुरुआती लोगों में से वे एक थे। उन्होंने न्याय के चरम संतुलन को सुनिश्चित करने के लिए पैमाने को बिल्कुल सही ढंग से समायोजित किया था।

उनके महत्वपूर्ण मामलों की शृंखला काफी लंबी है। न्यायमूर्ति ए पी शाह के साथ, उन्होंने नाज़ फाउंडेशन का एक नयी लीक शुरू करने वाला फैसला लिखा, जिसने आईपीसी की धारा 377 के अंतर्गत दर्ज सहमति से समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया। उन्होंने 1984 के सिख विरोधी दंगों में भूमिका के लिए कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को दोषी ठहराया। उन्होंने हाशिमपुरा में 38 मुसलमानों की इरादतन हत्या के लिए 16 पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। उन्होंने भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार कार्यकर्ताओं में से एक गौतम नवलखा को जमानत दे दी।

2020 में दिल्ली दंगों के दौरान, उन्होंने पीड़ितों के लिए एम्बुलेंस सेवाओं और पुनर्वास उपायों को अनिवार्य करने के लिए देर रात बैठक की। उनकी पीठ ने भड़काऊ भाषणों के लिए भाजपा नेताओं के खिलाफ मामला दर्ज नहीं करने के लिए सॉलिसिटर जनरल और पुलिस को फटकार लगाई। इसके नतीजे के तौर पर आधी रात को कार्यकारी आदेश जारी करके उनका तबादला पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में कर दिया गया। संवैधानिक और वाणिज्यिक कानून, नागरिक और आपराधिक मामलों और इसी तरह के अन्य मामलों पर भी उनके उत्कृष्ट फैसलों की एक लंबी फेहरिस्त है।

जनवरी 2021 में उन्हें उड़ीसा उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। उड़ीसा और उसके उच्च न्यायालय को काफी शांत जगह माना जाता है, जहां करने को ज्यादा कुछ नहीं होता है। वहां मुरलीधर के प्रवेश के साथ यह स्थिति बदल गयी। अगले दो वर्षों के लिए, वह न्यायालय टेक्नोलॉजी को संग्रहालयों तक फैलाने, न्यायालय और कानूनी कार्यप्रणाली के लगभग सभी पहलुओं को टेक्नोलॉजी के दायरे में लाने जैसे नये परिवर्तनों और नयी पहलक़दमियों का राष्ट्रीय केंद्र बन गया।

किसी संस्थान को अतीत से उठाकर भविष्य में ले जाने की एक समग्र कवायद के रूप में, यह दृष्टांत ऐसा है जिसका अध्ययन हार्वर्ड के कानून स्कूल और बिजनेस स्कूल, दोनों ही के करने योग्य है। बस उड़ीसा उच्च न्यायालय की वेबसाइट पर एक नज़र डालें। इसकी फाइलिंग, रिकॉर्ड, फीस, सब ई-मोड में हैं, इसमें पेपरलेस बेंच, हाइब्रिड सुनवाई और ई-लाइब्रेरी है। भारी बैकलॉग को दूर करने के लिए वारंट ई-मोड में दिए जाते हैं। एक ई-पीआईएल पोर्टल जनता को महत्वपूर्ण मामलों और प्रासंगिक आदेशों के बारे में जानने में सक्षम बनाता है। यह मुरलीधर के ई-मोड का करिश्मा है।

उन्होंने समझौते के लिए एक केंद्र और मध्यस्थता के लिए एक केंद्र बनाया। इन्हें अच्छी तरह से डिज़ाइन किया गया है और ये केंद्र स्टाफ से युक्त और कुशल हैं। उन्होंने यहां की सदियों पुरानी लाइब्रेरी में सुधार किया और संग्रहालय को उन्नत किया। यहां तक ​​कि उन्होंने वादियों, अदालत के कर्मचारियों और जनता सभी के लिए उचित व्यवस्था वाला एक मॉडल कोर्ट रूम भी डिजाइन किया। और इस सबके साथ-साथ उनका न्यायिक कार्य निर्बाध जारी रहा। 31 महीने में उनकी बेंच ने 33,322 मामलों का निपटारा किया और उन्होंने भिन्न-भिन्न रोस्टरों में भी 545 फैसले किये।

वे 62 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त हुए; वह अभी अपने उरूज पर थे, और अभी भी उनके पास करने और देने के लिए बहुत कुछ था। जाने-माने न्यायाधीशों और प्रमुख वकीलों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसके साथ ही कुछ अद्भुत घटा, जो सब कुछ बयां कर देता है। उनके विदाई समारोह में सैकड़ों वकील, न्यायाधीश और अदालत के कर्मचारियों-अधिकारियों ने क़तार में खड़े होकर उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया। जहां तक ​​नजर जा सकती थी, यह क़तार वहां तक ​​फैली हुई थी। हर तरफ से भावभीनी अभिव्यक्तियों के बीच से होकर उनके मुखिया विदा हो रहे थे। ऐसा पहले कभी भी, कहीं भी नहीं हुआ था।

न्यायपालिका ने एक बहुमूल्य रत्न को खो दिया है, एक ऐसा हीरा जिसे ताज पर चमकना चाहिए था। और इसलिए सवाल, कठिन सवाल, सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम से पूछे जाने चाहिए। वे इतने योग्य हैं और उन्होंने इतना शानदार काम किया है, फिर भी इस न्यायाधीश को सुप्रीम कोर्ट में क्यों नहीं ले जाया गया? इतनी योग्यता प्रदर्शित करने के साथ-साथ अतुलनीय सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के बावजूद, किस आधार पर उन्हें उनके उचित स्थान से वंचित किया गया?

कभी-कभी ये सवाल घुमा-फिरा कर पूछे जाते हैं, लेकिन यह मामला एक बेहद महत्वपूर्ण शख्सियत के बारे में है। एक न्यायाधीश और कानूनी विद्वान के रूप में मुरलीधर के अनुकरणीय रिकॉर्ड पर विचार करते हुए, कॉलेजियम को अपने निर्णय की व्याख्या करने की आवश्यकता है। यह ऐसा मामला है जो एक प्रणाली के कामकाज पर सवालिया निशान खड़ा कर देता है। यह हमें अवसर मुहैया कराता है कि इसके बहाने हम उस प्रणाली की जांच-परख कर सकें और उसमें जरूरी सुधार कर सकें।

और इसलिए हमें इस सवाल का जवाब चाहिए। अपने न्यायिक समुदाय, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, वकीलों और उन सभी लोगों, जिनकी एक बेहतर ढंग से काम करने वाली न्यायपालिका में रुचि और हिस्सेदारी है, उन सबकी ओर से हम यह जवाब जानना चाहते हैं। एस मुरलीधर को सुप्रीम कोर्ट में जज पद की पेशकश क्यों नहीं की गयी, खासकर तब, जब कि दो रिक्तियां मौजूद हैं?

और अपने मूल सवाल से विचलित हुए बिना एक अतिरिक्त सवाल हम यह भी कर रहे हैं, कि उन्हें मद्रास जैसे बड़े और चार्टर्ड उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश क्यों नहीं बनाया गया, जबकि यह क़दम कॉलेजियम द्वारा उठाया गया था, लेकिन जिसे सरकार ने नहीं माना, लेकिन कॉलेजियम द्वारा भी उस पर आगे कोई जोर नहीं दिया गया? नहीं, इन सवालों के जवाब इतने आसान नहीं हैं।

(फॉली एस नरीमन, मदन बी लोकुर और श्रीराम पांचू का लेख, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार; अनुवाद- शैलेश)

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