अकादमिक स्वतंत्रता बना बड़ा मुद्दा, सब्यसाची दास और बालाकृष्णन के समर्थन में उतरे देश भर के प्रोफेसर

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नई दिल्ली। देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला शिक्षाविदों को पसंद नहीं आ रहा है। अशोका विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के दो प्रोफेसर सब्यसाची दास और पुलाप्रे बालाकृष्णन के निकाले जाने के बाद अब कई संस्थानों के प्रोफेसर खुलकर उनके समर्थन में सामने आ रहे हैं। विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र और अन्य विभागों के द्वारा गवर्निंग बॉडी को लिखे गए पत्र के अनुसार दो मांग रखी गई थी। उनमें से एक मांग निकाले गए प्रोफेसर को उनके स्थान पर वापस लाना है। 

हालांकि ये पहला मौका नहीं है जब मोदी शासनकाल में किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज से ऐसी खबर आ रही है। हाल के समय में कई शैक्षणिक संस्थानों और मीडिया संस्थानों पर अभिव्यक्ति को लेकर शिकंजा कसा गया। चाहे वो हरियाणा का अशोका विश्वविद्यालय हो, बेंगलुरू का आईआईएससी हो या अनएकेडमी जैसे संस्थान हो। अभी दो दिन पहले जम्मू-कश्मीर के समाचार पोर्टल कश्मीरवाला को ब्लॉक कर दिया गया था।   

रविवार को करीब 300 से अधिक शैक्षणिक संस्थानों ने एक बयान जारी कर कहा कि डॉ दास को अपनी शैक्षणिक स्वतंत्रता गंवानी पड़ी क्योंकि उन्होंने एक ऐसे विषय को अपने अध्ययन के लिए चुना जो किसी एक राजनीतिक दल के खिलाफ था, और डॉ दास के इस काम के लिए विश्वविद्यालय द्वारा उनके खिलाफ कार्रवाई करना शैक्षणिक स्वतंत्रता के कई सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। विश्वविद्यालय का यह कारनामा यह बताने के लिए काफी है कि निजी विश्वविद्यालय, अपने तमाम उदारवादी विचारधारा होने के दावों के विपरीत काम करता हैं। हालांकि समझने की बात ये है कि सरकार सभी निजी और सरकारी विश्वविद्यालयों/संस्थानों पर समान दबाव बना रही है, और अशोका विश्वविद्यालय इस दबाव के सामने झुक गया और अपने ही तय किए पैमाने से पीछे हट गई है।

उन्होंने अपने बयान में आगे कहा कि हम उम्मीद करते हैं कि अशोका विश्वविद्यालय में चल रही गड़बड़ी, निजी और सार्वजनिक दोनों संस्थानों के लिए एक व्यापक चर्चा का विषय बनेगी, जो भारत में शैक्षणिक स्वतंत्रता पर हो रहे हमले के खिलाफ कवच की तरह काम करेगा।

शैक्षणिक संस्थानों के बयान को समर्थन देने वालों में दिल्ली विश्वविद्यालय की आभा देव हबीब, सतीश देशपांडे और सेवानिवृत्त प्रोफेसर अनीता रामपाल, जेएनयू के प्रोफेसर अजित कन्ना, सुचेता महाजन, सुचरिता सेन, वाई.एस. अलोन और निवेदिता मेनन शामिल हैं। जेएनयू के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हरबंस मुखिया, अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली की दीपा सिन्हा, जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अभिजीत रॉय, दक्षिण अफ्रीका के विटवाटरसैंड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दिलीप मेनन और लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय ने भी बयान का समर्थन किया है।

हरियाणा स्थित अशोका विश्वविद्यालय पिछले कुछ समय से विवादों में है। अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर सब्यसाची दास ने अपने रिसर्च पेपर में 2019 लोक सभा चुनाव में “वर्तमान केंद्रीय पार्टी” के द्वारा चुनावी हेरफेर का आरोप लगाया था। जिसके बाद सत्तारूढ़ भाजपा के कार्यकर्ताओं ने उनके रिसर्च पेपर पर विरोध दर्ज कराया। विवाद बढ़ता देख विश्वविद्यालय की गवर्निंग बॉडी के द्वारा रिसर्च पेपर की जांच शुरू हो गई और रिसर्च पेपर की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाए गए। बाद में डॉ दास ने अपना पद छोड़ दिया था। दूसरे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बालाकृष्णन ने यह कहते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया कि “दास के पेपर को लेकर विश्वविद्यालय के रवैये ने शैक्षणिक स्वतंत्रता का अपमान किया है।”

रविवार को नए छात्रों का स्वागत करते हुए एक ईमेल में, कुलपति सोमक रायचौधरी ने कहा कि इस मुद्दे को हल करने के लिए बातचीत जारी है।

अशोका विश्वविद्यालय के अकादमिक फैकल्टी और गवर्निंग बॉडी के बीच इस मामले को खत्म करने के लिए लगातार चर्चा हो रही है। दोनों निकायों के बीच चल रही बातचीत रचनात्मक रही है, और दीर्घकालिक समाधान खोजने की दिशा की ओर केंद्रित है, जो आने वाले समय में अकादमिक स्वतंत्रता और श्रेष्ठता के लिए विश्वविद्यालय की प्रतिबद्धता को मजबूत करेगी।

पिछले सप्ताह प्रोफेसर दास के पद छोड़ने के बाद एकजुटता दिखाते हुए अर्थशास्त्र विभाग ने विश्वविद्यालय के गवर्निंग बॉडी को पत्र लिखा था जिसमें दो मांगों को रखा गया था, पहला है डॉ दास को विभाग में वापस लाना और दूसरा गवर्निंग बॉडी किसी भी प्रोफेसर द्वारा किए गए रिसर्च का मूल्यांकन नहीं करेगी। और ये भी कहा था डॉ दास की वापसी पर फैसला 23 अगस्त तक हो जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो प्रोफेसरों के लिए विश्वविद्यालय में आगे काम कर पाना मुश्किल होगा। अर्थशास्त्र विभाग के बाद, अन्य विभाग भी डॉ दास के समर्थन में आ गए हैं और उन्होंने भी गवर्निंग बॉडी को पत्र लिखकर इन्हीं शर्त्तों को रखा है। उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के कई शिक्षक समूहों से भी समर्थन मिला।

हालांकि, गवर्निंग बॉडी के अघोषित आश्वासन के बाद अर्थशास्त्र विभाग ने 19 अगस्त को यह अल्टीमेटम वापस ले लिया था।

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