फासीवाद के विरोध में सीपीएम और टीएमसी की एकजुटता क्यों जरूरी?

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क्या सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस को ये भूलकर की वे आपस में परस्पर विरोधी हैं, फासीवाद के खिलाफ एकजुट हो जाना चाहिए? अगर मैं कहूं हां तो, फिर कैसे? इसे इस तरह से समझना होगा कि 1923 में इटली और 1933 में जर्मनी में जो हुआ था और 2023 में भारत में जो घटित हो रहा है वो बहुत कुछ मिलता जुलता है।

1923 का इटली

बेनितो मुसोलिनी की फासीवादी पार्टी ने खुद को देश में सबसे शक्तिशाली राजनीतिक गुट के रूप में स्थापित किया। प्रसिद्ध मार्क्सवादी एंटोनियो ग्राम्शी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट, सड़कों पर और संसद के अंदर फासीवादियों का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। ग्राम्शी विपक्षी एकता के प्रति समर्पित रहे। वह समाजवादियों और उदार लोकतंत्रवादियों के साथ गठजोड़ करके एक ठोस राजनीतिक समूह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अमादेओ बोर्डिगा के नेतृत्व में उनकी पार्टी के भीतर संप्रदायवादियों ने उनके प्रयासों को विफल कर दिया और उग्र फासीवादियों के खिलाफ बहुत जरूरी एकता साकार नहीं हो पाई।

मुसोलिनी ने पूर्ण सत्ता हथियाने के लिए विपक्ष के भीतर इस अलगाव का फायदा उठाया। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के बाद, वह अपना ध्यान अपने राजनीतिक विरोधियों की ओर केंद्रित करता है। क्रूर दमन शुरू हो जाता है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उनके क्रूर हमलों से सबसे ज्यादा पीड़ित कम्युनिस्ट हैं। ग्राम्शी को 10 साल की जेल की सज़ा सुनाई गई। जेल के अंदर ही उन्होंने अपनी प्रतिष्ठित पुस्तक ‘जेल नोटबुक’ पूरी कर ली।

1933 का जर्मनी

एडॉल्फ हिटलर की नेशनल सोशलिस्ट पार्टी (नाज़ी) ने 33 प्रतिशत वोट हासिल किए और जर्मनी में सबसे मजबूत राजनीतिक धारा के रूप में उभरी। कम्युनिस्ट, सोशल डेमोक्रेट और ईसाई डेमोक्रेट मिलकर बहुमत बनाते हैं। फिर भी वे फासिस्टों के खिलाफ एकजुट मोर्चा खोलने में बुरी तरह विफल रहे। कम्युनिस्ट अकेले ही बर्लिन, ब्रेमेन, हैम्बर्ग और अन्य शहरों में नाज़ियों के ख़िलाफ़ सड़क पर लड़ाई लड़ते रहे। लेकिन उन्हें घेर लिया गया और पराजित कर दिया गया।

थॉमस मान और बर्टोल्ट ब्रेख्त जैसे महान लेखकों को निर्वासन में जाने के लिए मजबूर किया गया। मुसोलिनी के नक्शेकदम पर चलते हुए और राष्ट्रपति हिंडनबर्ग की मदद से हिटलर ने पूर्ण शक्ति हासिल कर ली। इसके बाद वह सैकड़ों कम्युनिस्टों, समाजवादियों और उदारवादियों को यातना शिविरों में कत्ल कर दिया गया। बाद वाले निर्णायक क्षण में वहां के लोग एकजुट होने में विफल रहे और उन्हें इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। एक बार फिर, जर्मनी में कम्युनिस्ट, फासीवादी उत्पीड़न के बुरी तरह शिकार बने थे।

इस बारे में जो बात विशेष तौर पर गौर करने लायक है वह यह है कि मुसोलिनी और हिटलर दोनों ने सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए, पहले चरण में, चुनावी प्रक्रिया का उपयोग किया था। बाद में, विपक्ष के बिखराव का फायदा उठाते हुए, उन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नष्ट कर दिया और पूर्ण सत्ता पर कब्जा कर लिया।

भारत 2023

गंभीर सवाल यह है कि भारतीय कम्युनिस्टों, नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इन दोनों विनाशकारी अनुभवों से क्या सीखा है?
कम्युनिस्ट दावा करते हैं कि वे दूसरों से अधिक इतिहास के सूक्ष्म विद्यार्थी हैं। इतिहास ने उन्हें क्या सिखाया है? या, इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि क्या वे वर्तमान समय में भारतीय राजनीति में व्याप्त बुनियादी और प्रमुख राजनीतिक विरोधाभास की खोज करने में सक्षम हैं? उनका सबसे कट्टर दुश्मन कौन है, भाजपा, हिंदुत्व और संघ परिवार या बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और केरल में कांग्रेस?

केरल में स्थिति बहुत कम जटिल है, जहां भाजपा नहीं बल्कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट सीधे तौर पर एक-दूसरे का विरोध करते हैं। सभी नहीं तो लगभग सभी सीटें दोनों मिलकर जीतेंगे। यदि भाजपा किसी निर्वाचन क्षेत्र या किसी अन्य में मामूली रूप से भी मजबूत दिखाई देती है, तो एक सरल उपाय है कि “धर्मनिरपेक्ष” उम्मीदवार को मैदान में उतारना होगा, जिसे कांग्रेस के साथ-साथ कम्युनिस्टों का भी समर्थन प्राप्त हो।

भाजपा, अपनी ओर से, इस “नकली मित्रता”, यहां तक कि दोनों विरोधियों के “पाखंडी दोहरेपन” की तीखी आलोचना करेगी, लेकिन कोई भी इसे अहंकारपूर्वक नजरअंदाज कर सकता है। दूसरे शब्दों में, भाजपा कांग्रेस और कम्युनिस्टों का मजाक उड़ाने के लिए अपने सभी तीरों का इस्तेमाल करने की कोशिश करेगी, लेकिन इससे उन्हें परेशान नहीं होना चाहिए।

बंगाल में जहां भाजपा 35 लोकसभा सीटें जीतने का सपना देख रही है, जाहिर तौर पर वह मुमकिन नहीं है। मध्यमार्गी-धर्मनिरपेक्ष सत्ताधारी दल, तृणमूल और सीपीएम के नेतृत्व वाली वाम-धर्मनिरपेक्ष ताकत, दोनों ने अमर्त्य सेन के भाजपा और संघ परिवार को “सांप्रदायिक फासीवाद” के खूंखार प्रतिनिधियों के रूप में बताये जाने को स्वीकार कर लिया है। फिर भी एकरूपता के बावजूद, दोनों राजनीतिक समूहों ने अब तक किसी भी राजनीतिक समायोजन के संकेत नहीं दिए हैं। इस विशेष क्षेत्र में सत्ताधारी तृणमूल ने खुद को कम लचीला दिखाया है।

दूसरी ओर, सीपीएम मुख्य आरोप पर अड़ा रहा और वह है पंचायत चुनावों के दौरान तृणमूल की बेकाबू सक्रियता। जहां तक इस कारण की बात है तो सीपीएम के हिंसा का इतिहास भी कम नहीं है। दिन के उजाले में आनंदमार्गियों को आग लगाने से लेकर नंदीग्राम में नरसंहार तक, मरीचझापी, गरबेटा, केशपुर के अलावा कई जगहों पर लूटपाट हुई।

ममता बनर्जी के आलोचक तृणमूल पर बेहद भ्रष्ट होने और पूरी तरह से लम्पट होने का आरोप लगाते हैं। लेकिन तृणमूल ने ऐसा कुछ नहीं किया जैसा 2002 में गुजरात में और 2023 में मणिपुर में हुआ।

तो क्या तृणमूल, वामपंथी और कांग्रेस किसी तरह से बंगाल में एकजुट होकर चमकदार राजनीति का उदाहरण नहीं दे सकते? और कुछ नहीं, तो उन्हें रोम और बर्लिन के उदाहरण से प्रेरित होकर दोबारा सोचना चाहिए।

कोई भी योजना जो भाजपा विरोधी वोटों के निरर्थक अलगाव की ओर ले जाती है वो केवल प्रमुख प्रतिद्वंद्वी को ही फायदा पहुंचाएगी। जहां तक व्यावहारिक और संभव हो, आमने-सामने की लड़ाई को निर्णायक रणनीति के रूप में काम करना चाहिए।

इस समय, मुझे सीपीएम के एक बहुत वरिष्ठ सदस्य, एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद की प्रतिक्रिया याद आ रही है, जो बंगाल में पिछले विधानसभा चुनावों से पहले बहुत चिंतित थे। मतगणना के दिन उन्होंने रुझान जानने के लिए एक से अधिक बार फोन किया। जब उन्होंने आख़िरकार सुना कि तृणमूल ने भाजपा को हरा दिया है, तो उन्हें निश्चित रूप से राहत महसूस हुई और परिणाम पर “प्रसन्नता” महसूस हुई।

“लेकिन क्या आप एक समर्पित पार्टी सदस्य नहीं हैं?” मैंने पूछ लिया।

उनका स्पष्ट उत्तर था: “चाहे मैं तृणमूल को कितना भी नापसंद करूं, इसने पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक फासीवाद की प्रगति को प्रभावी ढंग से विफल कर दिया है।”

(सुभोरंजन दासगुप्ता मानव विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर हैं।)

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