गांधी में कला और कला में गांधी

Estimated read time 1 min read

सन 2005 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने वाले ब्रिटिश नाटककार हेराल्ड पिंटर ने पुरस्कार प्राप्त करते समय जो व्याख्यान दिया था उसके कुछ अंश बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उनका कहना था कि एक कलाकार को पूरा हक है कि वह किसी भी घटना या तथ्य को अपने ढंग से बदल कर व्यक्त करे। उसमें वह अपनी कल्पना के रंग भरे और चाहे तो उसे पूरा बदल दे। लेकिन उसे हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी दर्शक या श्रोता को उतना ही हक है सत्य को जानने का। जो लोग कलाकार और उसके प्रेमियों के इस रिश्ते को नहीं समझते वे ही या तो किसी कलाकार को अश्लील कहते हैं और किसी कलाप्रेमी को नैतिकता की कठोर दृष्टि से ग्रसित बताते हैं।

महात्मा गांधी की कलादृष्टि की इसी जटिलता और अंतर्विरोध को व्यक्त करते हुए प्रतिबद्ध गांधीवादी पत्रकार अरविंद मोहन ने गांधी की कला नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार और कला मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी ने लिखी है। उनकी टिप्पणी इस पुस्तक के महत्त्व को कुछ इस प्रकार स्पष्ट करती है-

महात्मा गांधी के कला-बोध और कलाओं से उनके संबंध और उनकी अपेक्षाओं पर समग्रता से एकत्र विचार करने वाली, हमारे जाने, यह पहली पुस्तक है। गांधी जी जीवन, कर्म और दृष्टि में पारदर्शिता और नैतिकता का आग्रह करते थे और कलाएं इस आग्रह से मुक्त नहीं हो सकती थीं। उनके निकट कलाओं को पहले सत्यदर्शी और मंगलकारी होना चाहिए था तभी उसमें सौदर्य संभव था। अरविंद मोहन ने इस सिलसिले में प्रामाणिक साक्ष्य जुटाया है और सम्यक विवेचन कर गांधी जी की कला-दृष्टि विन्यस्त की है।

कला समीक्षकों का एक खेमा गांधी की कला दृष्टि को ऐंद्रिकता और यौनिकता के इतना विरुद्ध बताता है कि वह उन्हें तालिबान के करीब खड़ा कर देता है। इसी दृष्टि के कारण एक सनसनीखेज आख्यान विद्वत जनों के एक तबके में प्रचलित है कि गांधी ने इस्लामी आक्रांताओं की तरह से खजुराहो की नग्न या मैथुनरत मूर्तियों को नष्ट करने या सीमेंट की चादर से ढकने का आदेश दे दिया था। इस काम के लिए उनके सहयोगी और देश के जाने माने उद्योगपति जमनालाल बजाज ने सीमेंट और बजरी वर्धा की ओर रवाना भी कर दिया था। अरविंद मोहन ने कई समाजशास्त्रियों और कला इतिहासकारों के इस तथ्य को चुनौती देते हुए बताया है कि यह प्रसंग एकदम उल्टे तरीके से प्रस्तुत किया जाता है और इसमें गांधी को इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जैसे वे तालिबानी शासन के मुल्ला उमर हों और बामियान बुद्ध की मूर्तियां तोड़ने का आदेश दे रहे हों।

वास्तव में यह प्रसंग कुछ भिन्न है और उसमें गांधी की भूमिका अपने एक सहयोगी के प्रस्ताव पर विचार कर उसे रोकने की है। दरअसल धनश्याम दास बिड़ला ने एक पत्र के माध्यम से गांधी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था और गांधी जो कि कभी खजुराहो गए नहीं थे, उन्होंने इस पर देश के प्रसिद्ध कलाकार नंदलाल बसु से राय मांगी थी। बिड़ला जी पुरी में प्रस्तावित कांग्रेस अधिवेशन के लिए तैयारी में लगे थे और खजुराहो का दौरा करते हुए आए थे। उन्होंने एक पत्र के माध्यम से गांधी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस सम्मेलन के लिए जो प्रतिनिधि आएंगे वे इन नग्न मूर्तियों को देखकर कुप्रभाव ग्रहण करेंगे इसलिए क्यों न उन्हें सीमेंट की चादर से ढकवा दिया जाए।

गांधी नंदलाल बसु को अपना कला गुरु मानते थे और उन्होंने बिड़ला जी के उस प्रस्ताव को नंदलाल जी के पास भेजा। इस पर नंदलाल की प्रतिक्रिया ने गांधी को नए किस्म की समझ प्रदान की और फिर वह प्रसंग वहीं खत्म हो गया। नंदलाल बसु ने लिखा-

“मूर्तियों को प्लास्टर से ढकवाना धर्म विरोधी कार्य होगा। जीवन में यौन भावना अंतिम मुक्ति अर्थात मोक्ष के सोपान में एक पग है। दूसरे पग हैं धर्म और अर्थ। शिशु का जन्म कभी अश्लील नहीं हो सकता। जो क्रिया जन्म की हेतु है वह सदाचार निरपेक्ष है और इसे धर्म का समर्थन हासिल है।”

लेकिन एक बात तय है कि गांधी स्त्री देह को लेकर साहित्य और कला में होने वाले तमाम श्रृंगारिक अभिव्यक्तियों के विरोधी थे। गांधी अपनी पत्रिका में लिखते हैं-

“आश्चर्य तो यह है कि पुरुषों के सौंदर्य की प्रशंसा में पुस्तकें बिल्कुल नहीं लिखी गई हैं। तो फिर पुरुष विषय वासना को उत्पन्न करने वाला साहित्य ही क्यों तैयार होता रहे? बात यह नहीं है कि पुरुषों ने स्त्री को विभूषणों से विभूषित किया है उन विशेषणों को सार्थक करना उसे पसंद है। स्त्री को क्या यह अच्छा लगता होगा कि स्त्री के सौंदर्य को पुरुष अपनी भोग-लालसा के लिए दुरुपयोग करे?  पुरुष के आगे अपनी सुंदरता दिखाना क्या उसे पसंद होगा? यदि हां तो किसलिए? मैं चाहता हूं कि यह प्रश्न सुशिक्षित बहनें अपने दिल से पूछें। यदि ये अश्लील विज्ञापनों और साहित्य से उनका दिल दुखता है तो उन्हें इसके विरुद्ध अविराम युद्ध चलाना चाहिए।”

गांधी के इस तरह से कई बयान हैं जिनसे लगता है कि वे कला में स्त्री देह के प्रयोग के घनघोर विरोधी थे। इससे यह भी प्रचारित किया जाता है कि उन पर विक्टोरियाई नैतिकता की श्लील और अश्लील दृष्टि सवार थी जो भारतीय कला संस्कृति की स्वतंत्र अभिव्यक्ति को बाधित करना चाहती थी।

स्त्री देह के वस्तुकरण और उसके विज्ञापनी प्रयोग पर आपत्तियां क्या सिर्फ गांधी जैसे सनातनी चिंतक तक सीमित है?  नहीं वह नारी आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण विमर्श है। अगर ऐसा न होता तो नौमी वुल्फ `द ब्यूटी मिथ’ जैसी पुस्तक लिखकर सौंदर्य प्रतियोगिताओं, विज्ञापनों और तमाम कामोद्दीपक फिल्मों और कार्यक्रमों के स्त्री देह के व्यावसायिक प्रयोग को चुनौती न देतीं। न ही जर्मेन ग्रीयर `द होल वूमेन’ जैसी पुस्तक लिखतीं।

इसके बावजूद अरविंद मोहन यह स्वीकार करते हैं कि गांधी की कला विरोधी छवि बनी है और उसके लिए कोई और नहीं बल्कि गांधी स्वयं जिम्मेदार हैं। अरविंद मोहन लिखते हैं-

“कहना न होगा इसकी मुख्य जिम्मेदारी गांधी पर ही है। गांधी इतिहास से अलग राजनीति करते हैं। यह आज हम बड़ी आसानी से कहते हैं पर क्या यह बात किसी के गले उतरती थी? कला के मामले में गांधी अपनी राजनीति और अर्थनीति जैसी लहर नहीं पैदा करते लेकिन वह अनदेखा करने लायक चीज भी नहीं रहती। गांधी का कला सौंदर्य बोध उनके हर काम से झलकता है। उनके आंदोलन से दिखता है और आंदोलन को बल देता है। (कम से कम खादी का आंदोलन तो जरूर) और जिस पश्चिमी सभ्यता की वे आलोचना करते हैं उसके समानान्तर एक नई लकीर खींचता है। अपनी पूरी लड़ाई को वे आपात धर्म मानकर ही लड़ते हैं।”

सो कला के मामले में भी वे स्थापित मूल्यों को आगे पीछे करते हैं। क्योंकि नए समाज शैतानी सभ्यता के समांतर खड़े होने वाले समाज के लोगों के कार्य व्यापार वाली कला शैतानी सभ्यता से संचालित नहीं हो सकती थी। यह चिंता टालस्टाय और रस्किन को भी थी।

अरविंद मोहन मौजूदा दौर के वैश्वीकरण और व्यावसायीकरण के माध्यम से हो रही कला की दुर्गति को सामने रखते हुए गांधी के नैतिक आग्रहों का मूल्यांकन करते हैं। इसीलिए वे लिखते हैं-

“गांधी अपने स्तर से दोनों तरह के काम करते हैं। बिकाऊ और बाजारू कला को हतोत्साहित और सभी में संगीत  और कला के बाकी स्वरूपों के प्रति संवेदनशीलता जगाते हैं। एक दूसरा प्रयास वे कला से जुड़े रसों के महत्त्व को अपने हिसाब और सोच से ऊपर नीचे करते हैं।”

अरविंद मोहन अपनी इस पुस्तक में यह सिद्ध करते हैं कि गांधी की कला विरोधी छवि भी एक मिथक है जो स्वयं गांधी की गढ़ी हुई है। शायद उनके पास कला के लिए ज्यादा समय नहीं था। इसके अलावा वे युद्ध में उतरे समाज को एक सीमा तक ही वासना और काम की ओर प्रवृत्त वास्तव में गांधी में कला के पारखी या उपासक की नजर गहरी है और इसीलिए वे कलाकारों को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, फिल्म, नाटक, फोटोग्राफी, वास्तुकला, वस्त्र विन्यास जैसी तमाम कलाएं ऐसी हैं जिन पर गांधी ने जमकर असर डाला। शायद बुद्ध और ईसा मसीह के बाद आज गांधी की सर्वाधिक मूर्तियां विश्व में हैं।

हालांकि गांधी ने अपने जीवन में सिर्फ दो फिल्में देखी थीं और वे फिल्म वालों को बहुत पसंद नहीं करते थे। लेकिन उनके जीवन और संदेश से प्रभावित फिल्मों की भरमार है। स्वयं चार्ली चैप्लिन ने उनसे मिलने के बाद दो फिल्में उनके संदेशों से प्रभावित होकर बनाई। रिचर्ड एटनबरो की `गांधी’ फिल्म ने तो कमाल ही कर दिया। इधर विधू विनोद चोपड़ा और राजकुमार हिरानी ने ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में जो गांधीगीरी दिखाई उसने एकदम नए सिरे से गांधी के संदेश को पकड़ा। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर जैसे महान रचनाकार से गांधी कला और सौंदर्यबोध को लेकर नोंक-झोंक करते रहते थे। लेकिन उनसे उनकी मित्रता काफी गहराई लिए हुए थी।

शांति निकेतन के ही नंदलाल बसु जैसे महान कलाकार ने कांग्रेस के हरिपुरा, त्रिपुरी और फैजपुर अधिवेशनों के पंडाल की जो सज्जा की और जिस तरह से पोस्टर बनाए वे आज भी उनके संग्रहालय में मौजूद हैं। मुकुल डे भी गांधी से बहुत प्रभावित थे और गांधी चाहते थे कि वे साबरमती में ही अपना संग्रहालय बनाएं। एम.एस सुब्बालक्ष्मी जैसी असाधारण सुर साधिका ने गांधी के ही प्रभाव में अपनी फीस तय नहीं की थी। वे व्यावसायिक कार्यक्रम भी नहीं करती थीं। अरविंद मोहन यह बात रेखांकित करते हैं कि गांधी की कलादृष्टि पर टॉलस्टाय का प्रभाव था। जो कि कला के लिए कला को स्वीकार नहीं करते थे।

गांधी शिक्षा में संगीत का समावेश करना चाहते थे और उसे बुनियादी तालीम का अनिवार्य हिस्सा बनाना चाहते थे। लेकिन अरविंद मोहन अपने विवेचन में गांधी की बदलती कला दृष्टि का भी विवेचन करते हैं और लिखते हैं कि गांधी एक मुकाम पर आकर यह मानने लगे थे कि उनकी सत्य पर आधारित नैतिक दृष्टि के दायरे में कला को बांधा नहीं जा सकता। वह जीवन की अपनी गति और सौंदर्य से संचालित होता है।

यहीं पर मैसूर की उस नग्न मूर्ति को गांधी के निहारने का वर्णन भी प्रासंगिक हो जाता है जिसमें कलाकार ने एक बिच्छू के माध्यम से काम को व्यक्त किया है और स्त्री अपने वस्त्रों से उसे झटक रही है और इस दौरान उसका दैहिक सौंदर्य प्रकट हो रहा है। यहां पर गांधी मानते हैं कि काम पराजित हो रहा है और स्त्री का अपना स्वत्व विजयी हो रहा है।

कुल मिलाकर यह पुस्तक गांधी की कमियों, कमजोरियों को उजागर करती है और उन तमाम मिथकों को तोड़ती है जो गांधी को कहीं विक्टोरियाई नैतिकता से प्रभावित तो कहीं तालिबानी नजरिए वाला खड़ूस व्यक्ति बनाते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार कुमार त्रिपाठी की समीक्षा।)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments