रामगढ़। झारखंड के रामगढ़ जिला मुख्यालय से मात्र 12 किलोमीटर और मांडू प्रखंड मुख्यालय से 30 किमी दूर बसा है फूलसराय गांव। गांव में तीन समुदाय के लोग बसते हैं। आदिवासी समुदाय के बेदिया, गैर आदिवासी समुदाय के साव और महतो एवं मुस्लिम समुदाय के लोग यहां रहते हैं।
गांव की आबादी लगभग 15,000 की है, जिसमें लगभग 8,000 की आबादी बेदिया समुदाय के लोगों की है, वहीं मुस्लिम समुदाय के लोगों की आबादी लगभग 6,700 है, जबकि गैर आदिवासी समुदाय के साव और महतो की संख्या सबसे कम लगभग 300 है। जबकि कुल वोटरों की संख्या 5,800 है।
गांव के लगभग लोगों के पास कृषि योग्य जमीन तो है लेकिन सिंचाई की समुचित व्यवस्था न होने के कारण यहां के लोग वर्षा के पानी यानी मानसून पर ही पूरी तरह निर्भर हैं। यही वजह है कि लोग केवल खरीफ फसल में धान और मकई की खेती कर पाते हैं, वह भी तब जब मानसून की मेहरबानी बनी रहे। अगर मानसून कमजोर रहा तो थोड़ी-बहुत मकई की उपज तो हो जाती है, मगर धान की फसल एकदम नहीं हो पाती है।
ऐसी स्थिति में गांव के प्रायः लोग मजदूरी पर निर्भर हैं। रोजगार के लिए जहां कुछ लोग दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं, वहीं कुछ लोग स्थानीय फैक्टरियों में दैनिक मजदूर के तौर काम करते हैं, जहां न तो न्यूनतम दैनिक मजदूरी मिलती है न ही उन्हें फैक्ट्री एक्ट का कोई लाभ मिलता है।
इस गांव का दुर्भाग्य यह है कि इसे 2018 में रामगढ़ नगर परिषद क्षेत्र में शामिल कर लिया गया, तब से इस गांव का विकास लगभग ठहर सा गया है। यह गांव मांडू प्रखंड के अंतर्गत आता है और प्रखंड की तमाम जनाकांक्षी योजनाओं का जो लाभ यहां के लोगों को मिलता था, उससे लोग अब वंचित हो गए हैं। प्रखंड सह अंचल कार्यालय में विकास की योजनाओं से रिश्ता लगभग खत्म हो चुका है। अब केवल जमीन से संबंधित मामलों के लिए ही क्षेत्र के लोगों का अंचल कार्यालय से संबंध रह गया है।

ग्रामीणों की इस पीड़ा की जानकारी तब मिली जब हम गांव के लोगों से बात की। गांव में प्रवेश के बाद सबसे पहले मिले किस्टो बेदिया, जो आजकल थोड़े बीमार चल रहे हैं। वे अपने घर के आगे सड़क किनारे बैठे मिले। बातचीत के क्रम में गांव के और कई लोग खड़े हो गए।
लोगों से बातचीत में यह सामने आया कि जब यह क्षेत्र पंचायत के अंतर्गत था, तब लोगों को मनरेगा योजना के तहत कई तरह के रोजगार उपलब्ध थे, गांव के अधिकांश लोग जो गरीबी रेखा से नीचे थे, उन परिवारों को इंदिरा आवास का लाभ मिलता था, वहीं कई अन्य योजनाओं का जो लाभ ग्रामीणों को मिलता था, वह नगर परिषद बनने के बाद खत्म हो गया है।
मनरेगा के तहत आवास निर्माण, जल संरक्षण, बागवानी, गौशाला निर्माण, वृक्षारोपण, लघु सिंचाई, ग्रामीण सम्पर्क मार्ग निर्माण, चकबंध, भूमि विकास और बाढ़ नियंत्रण आदि रोजगार मजदूरों को उपलब्ध था जिससे उनकी अजीविका चलती थी, जो अब बंद हो गया है।
लोगों ने बताया कि नगर परिषद के तहत विकास योजनाओं की एक लंबी लिस्ट तो दिखती है लेकिन वह केवल कागजों तक सीमित है यानी जमीन से नदारद है। जो कुछ काम हुए हैं उनमें पीसीसी सड़क, नाली, तालाब, शौचालय प्रमुख हैं लेकिन ये सारे काम केवल कमीशन खोरी के तहत कुछ खास लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए किए गए हैं।
पीसीसी रोड का हाल यह है कि वे एक साल के भीतर ही गड्ढों तब्दील हो गए हैं। नाली बनी है, लेकिन पानी के निकास का कहीं स्रोत न होने की वजह से वह भी अस्तित्व विहीन हो चली है। शौचालय का हाल यह है कि अपने निर्माण काल से ही पानी के लिए तरस रहा है। शौचालय के ऊपर उसके निर्माण के समय ही पानी की टंकी तो बिठा दी गई, लेकिन आजतक पानी सप्लाई नहीं हो पाई है, जिसके कारण उसकी उपयोगिता नदारद है। लोग आज भी शौच के लिए बाहर मैदान में जाते हैं।

कुछ लोग जो आर्थिक रूप से थोड़े सक्षम हैं उन्होंने खुद का शौचालय बना लिया है, जबकि बहुसंख्य लोग खेत बगैरह के ही सहारे हैं। स्वच्छता अभियान का हाल यह है कि जो डस्टबीन कचड़ा जमा करने के लिए रखे गए हैं वे अब खुद कचड़े में बदल गए हैं। करोड़ रुपये की लागत से बने तालाब के सौंदर्यीकरण के लिए चारों तरफ बिजली के पोल और उसमें बल्ब लगा तो दिए गए हैं, लेकिन पिछले डेढ़ साल से पोल पर विराजमान बल्ब बिजली का इन्तजार कर रहे हैं।
क्षेत्र में नगर परिषद बनने से एक नया बदलाव यह हुआ है कि क्षेत्र के लोगों को होल्डिंग टैक्स से परिचय हो गया है जिससे वे पंचायत में महरूम थे। उन्हें इस नयी जानकारी से काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। क्षेत्र के बहुत कम लोग हैं जो इस होल्डिंग टैक्स को झेलने में सक्षम हैं।
बाकी मजदूर वर्ग के लोग हैं जो किसी तरह अपने सिर पर एक छप्पर बना पाए हैं। उन्हें अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है, तब जाकर उन्हें दो जून की रोटी मिल पाती है। वहीं कुछ लोगों को जो गरीबी रेखा से नीचे है उन्हें इंदिरा आवास मिला है, उन्हें भी होल्डिंग टैक्स देना पड़ रहा है। ऐसे लोगों को यह होल्डिंग टैक्स क्यों है, समझ से परे है, यह एक मजाक से कम नहीं है।
गांव के एक युवा सगीर आलम कहते हैं, “हमारा गांव किसी भी लिहाज से नगर परिषद के लायक नहीं है। इस गांव को नगर परिषद में शामिल करके इसे हाथी का दांत बना दिया गया है। जबकि जमीनी हकीकत यह है कि जबसे गांव को नगर परिषद में शामिल किया गया है, हम ग्रामीणों की परेशानी बढ़ी है। पंचायत था तो रोजगार के कई अवसर उपलब्ध थे। मनरेगा योजना के तहत कुआं, नाली, सड़क, डोभा, चेकनाला वगैरह निर्माण कार्य के तहत लोगों को रोजगार मिलता था।”
सगीर आगे कहते हैं कि “आसपास की फैक्ट्रियों में भी गांव के लोग पार्ट टाइम मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। गरीब लोगों को इंदिरा आवास भी मिलता था, जो अब नहीं मिल सकता है। अब गांव के मजदूरों को रोजगार के लिए भटकना पड़ रहा है। पंचायत था तो पेयजल की सुविधा के लिए चापाकल की व्यवस्था सहित जलमीनार जैसी सुविधा थी, जो अब नहीं है।”

सगीर आलम कहते हैं कि “नगर परिषद बनते समय कहा गया था गांव के हर घर में जलापूर्ति की सुविधा होगी। लेकिन आज तक न तो पानी टंकी का निर्माण किया गया है न ही पाइपलाइन के माध्यम से गांव को पानी सप्लाई की सुविधा उपलब्ध कराई गयी है। जबकि इस गांव से होकर पाइपलाइन दूर के पंचायतों में ले जायी गई है। एक करोड़ की लागत से बने तालाब के सौंदर्यीकरण को लेकर पोल और बल्ब लगा दिए गए हैं लेकिन आज तक उसे जलाने के लिए बिजली नहीं लायी गयी है।”
वे कहते हैं, “नगर परिषद बनने से एक काम जरूर हुआ है। बिजली महंगी हुई है और होल्डिंग टैक्स के बहाने गांव के लोगों का सुख चैन छीन लिया गया है।
किस्टो बेदिया बताते हैं कि “जब हमारा गांव पंचायत के अंतर्गत आता था तब प्रखंड की तमाम जनाकांक्षी योजनाओं का लाभ यहां के लोगों को मिलता था। अब जब हमें नगर परिषद से जोड़ दिया गया है, हमलोग पंचायत की तमाम सुविधाओं से वंचित हो गए हैं। प्रखंड सह अंचल कार्यालय में विकास की योजनाओं से हमारा रिश्ता लगभग खत्म हो चुका है। अब केवल जमीन से संबंधित मामलों के लिए ही हमलोगों को अंचल कार्यालय जाना पड़ता है।”
बेदिया कहते हैं, “खैरियत है कि क्षेत्र में छोटे-बड़े कुछ औद्योगिक इकाइयां हैं जहां गांव के गरीब लोगों के लिए दैनिक मजदूरी के तौर पर रोजगार मिल जाता है। नहीं तो लोगों के सामने भूखे मरने की स्थिति रहती।” वे आगे कहते हैं कि “एक तरफ इन औद्योगिक इकाइयों में रोजगार मिल रहा है वहीं दूसरी तरफ इनके द्वारा फैलाए जा रहे प्रदूषण से यहां का जन-जीवन प्रभावित भी हो रहा है।”
होल्डिंग टैक्स पर किस्टो कहते हैं कि “क्षेत्र के पांच दस प्रतिशत ही लोग होल्डिंग टैक्स और बढ़ी हुआ बिजली दर देने में सक्षम हैं, बाकी को अपना पेट पालने में कठिनाई है। सबसे बड़ी दुखद स्थिति यह है कि जिन लोगों को सरकारी योजना से इंदिरा आवास मिला है उनसे भी होल्डिंग टैक्स लिया जा रहा है।”
ग्रामीण अब्बू शमा ने औद्योगिक इकाइयों द्वारा फैल रहे प्रदूषण पर चिंता जाहिर की और कहा कि “पूरा क्षेत्र बहुत पहले से ही फैक्ट्रियों के प्रदूषण से परेशान है। लोग कई तरह की खतरनाक बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। नगर परिषद तो बन गया, लेकिन परिषद ने भी आजतक इन समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया है।”

वहां से हम आगे बढ़े तो रास्ते एक युवा जियाउल हक से मुलाकात हो गई। जब हमने इस गांव को पंचायत से नगर परिषद बनने के फायदे और नुकसान पर बात की तो उसने हंसते हुए कहा कि “कहने को तो बहुत कुछ है, लेकिन गांव का मामला है, कुछ बोलने पर जो लोग परिषद से जुड़े हैं उनसे रिश्ते खराब होने का खतरा बढ़ जाएगा।”
वो कहते हैं कि “बस एक लाइन कहेंगे, कोई विशेष फायदा नहीं हुआ है, बस होल्डिंग टैक्स हमारे सिर पर लाद दिया गया है, बिजली की दर बढ़ गई है, सड़क बनी है जो एक साल में टूटने लगी है, शौचालय बना है जो पानी के बिना बेकार पड़ा है, महीने में एक बार क्षेत्र की सड़कों पर झाड़ू मार कर सफाई होने का कोरेम पूरा हो जाता है, पानी की सुविधा नदारद है।” फिर वे हंसते हुए कहते हैं- पंचायत में इन सुविधाओं का अभाव था।
जब हम लोगों से बात कर लौट रहे होते हैं तो सड़क किनारे झाड़ियों से घिरी बाउण्ड्री के पास कुछ महिलाएं दिखीं। घर को देखकर लगा शायद यह इंदिरा आवास होगा। यह जानने के लिए कि अगर यह इंदिरा आवास है तो क्या इन्हें भी होल्डिंग टैक्स देना पड़ रहा है? मैं वहां रुका और अपना परिचय देते हुए अपना सवाल रखा। झाड़ियों से घिरी बाउण्ड्री के भीतर का घर चमन बेदिया का है जो मजदूरी करने किसी फैक्ट्री में गए थे। उसकी पत्नी ने बताया कि यह हमने अपने पैसा से बनाया है।
नगर परिषद बनने से क्या क्या फायदा हुआ? के सवाल पर उन्होंने बताया कि कुछ भी फायदा नहीं हुआ। अपना घर बनाया है और इसका पैसा देना पड़ता है, बिजली का पैसा बढ़ गया है। पानी की कोई सुविधा नहीं है, शौचालय नहीं है, शौच के लिए बाहर मैदान में जाना पड़ता है।

झाड़ियों से घिरे बाउण्ड्री के बगल का घर सनी बेदिया का है। घर में उनकी पत्नी थीं। सनी की पत्नी रिमन देवी ने बताया कि उनका यह घर इंदिरा आवास है। होल्डिंग टैक्स पर उन्होंने बताया कि घर का पैसा देना पड़ता है। कितना? उन्हें पता नहीं है। पानी की सुविधा, शौचालय की सुविधा कुछ भी नहीं है। काफी दूर से पानी लाना पड़ता है। शौच के लिए बाहर खेत वगैरह में जाना पड़ता है।
वहां उपस्थित मेहरूनिशा ने कुछ भी बोलने से इसलिए मना कर दिया कि बोलने से कोई फायदा तो है नहीं, फिर बोलने क्या फायदा।
(विशद कुमार की रिपोर्ट।)
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