रामकथा और भोजन-भंडारे में नहीं जनता के बुनियादी मुद्दों पर सक्रिय रहते हैं ग्वालियर के विधायक प्रवीण पाठक

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ग्वालियर। ऐसे समय जब देश में और उसमें भी खास कर मध्य प्रदेश भाजपा और कांग्रेस में खुद को धर्मनिष्ठ दिखाने की होड़ मची है। दोनों पार्टियों के शीर्ष नेताओं से लेकर छुटभैये नेता तक आए दिन किसी न किसी पाखंडी और धंधेबाज बाबा या कथावाचक के चरणों में लोटते दिखाई दे रहे हैं। सूबे के मालवा-निमाड़ इलाके में तो कांग्रेस और भाजपा के नेताओं में पिछले कुछ महीनों से इस बात की होड़ लगी हुई है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए कौन ज्यादा शिव पुराण, भागवत कथा, रामकथा, भोजन-भंडारे, शिवलिंग वितरण, रुद्राक्ष वितरण आदि के आयोजन कराता है और अपने क्षेत्र के लोगों को तीर्थयात्रा पर ले जाता है। ऐसे माहौल में एक विधायक ऐसा भी है जिसने ऐसे आयोजनों से पूरी तरह दूरी बनाए रखते हुए लोगों के बीच पूरे पांच साल तक बुनियादी सरोकारों को लेकर अपनी क्रियाशील सक्रियता बनाए रखी और अपनी उसी क्रियाशीलता के बूते वह एक बार फिर चुनाव मैदान में है। 

एक निर्वाचित जन प्रतिनिधि का अपने क्षेत्र की जनता से कैसा रिश्ता हो सकता है या कैसा होना चाहिए, इसका उदाहरण मध्य प्रदेश के ग्वालियर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र में पिछले दिनों देखने को मिला। इस क्षेत्र के विधायक हैं 42 वर्षीय प्रवीण पाठक, जो पिछले विधानसभा चुनाव में परंपरागत रूप से भारतीय जनता पार्टी के प्रभाव वाले इस क्षेत्र में कांग्रेस के टिकट पर कशमकश भरे मुकाबले में महज 121 वोटों से जीते थे। 

उस चुनाव के लिए उन्हें अपनी पार्टी का टिकट हासिल करने में भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। सबसे बड़ी चुनौती तो ज्योतिरादित्य सिंधिया की थी, जो उन्हें टिकट देने के सख्त खिलाफ थे। वजह यह थी कि प्रवीण पाठक कभी उनके दरबारी नहीं रहे और सीधी रीढ़ वालों को सिंधिया ने कांग्रेस में रहते हुए कभी पसंद नहीं किया। यह और बात है कि कांग्रेस से भाजपा में जाने के बाद सिंधिया खुद अपनी रीढ़ ही सीधी नहीं रख पाए, क्योंकि वहां उनसे भी बड़े-बड़े कई ‘महाराज’ हैं। 

बहरहाल प्रवीण पाठक ने सिंधिया सहित तमाम अवरोधों को पार करते हुए पार्टी का टिकट तो हासिल कर लिया, लेकिन दक्षिण ग्वालियर जैसे इलाके में जीतना आसान नहीं था, क्योंकि यह वह इलाका है जहां हिंदू महासभा का राष्ट्रीय मुख्यालय है, जो आजादी के पहले से कायम है। कुछ साल पहले इसी इलाके में महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का पैतृक निवास और जन्म स्थान भी इसी क्षेत्र में है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संभागीय मुख्यालय यहां है। इसी क्षेत्र में संघ द्वारा संचालित दो सरस्वती शिशु मंदिर और दो कॉलेज हैं।

कुल मिला कर यह भाजपा की बेहद मजबूत सीट थी। इसके अलावा उनके सामने पार्टी की भीतरी चुनौतियां भी कम नहीं थीं। कांग्रेस में टिकट के जो दूसरे दावेदार थे उन्होंने भी भीतरघात करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इस सबके बावजूद वे जैसे-तैसे जीतने में कामयाब रहे थे।

प्रवीण बेशक कांग्रेस के विधायक हैं और परिवार भी पारंपरिक रूप से कांग्रेस से जुड़ा रहा है लेकिन उनकी विधायक रूप में उनकी कार्यशैली बीते जमाने के सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियों के विधायकों जैसी है। वे कांग्रेस के ऐसे विधायक हैं जिन्होंने न तो चुनाव जीतने के लिए किसी तरह के धार्मिक आयोजनों का सहारा लिया और न ही विधायक बनने के बाद वे ऐसे किसी चक्कर में पड़े। ऐसा नहीं है कि प्रवीण पाठक नास्तिक हैं, बल्कि वे और उनका परिवार भी पारंपरिक रूप से पूजा-पाठी है। उनके दादा की स्मृति में कुछ ही दिनों पहले उनके पिताजी ने एक मंदिर का निर्माण करवाया है।

बहरहाल विधायक बनने के बाद प्रवीण ने अपनी राजनीति को भोजन-भंडारे और धंधेबाज बाबाओं व कथावाचकों के प्रवचन जैसे आयोजनों से दूर रखा है। यह सब करने के बजाय उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र में अपनी विधायक निधि से सरकारी स्कूलों की मरम्मत का और उनमें फर्नीचर, शौचालय, पेयजल आदि का मुकम्मल इंतजाम करने का बीड़ा उठाया। यही नहीं, उन्होंने हर सरकारी स्कूल में ‘विधायक स्टेशनरी बैंक’ खुलवाए, जहां से बच्चों को कॉपी, पेन, पेंसिल, कम्पास आदि निशुल्क उपलब्ध कराए जाते हैं।

इस काम में उन्होंने जरूरत पड़ने पर विधायक के नाते अपने को मिलने वाले वेतन और भत्तों की राशि का उपयोग करने में भी संकोच नहीं किया। इसके साथ ही इन स्कूलों में पढ़ाई का स्तर सुधारने के लिए भी जो-जो जरूरतें थीं, उन्हें पूरा कराया। उन्होंने यह भी सुनिश्चित कराया कि शिक्षक-शिक्षिकाएं नियमित रूप से स्कूल आए और पूरे समय मौजूद रहते हुए बच्चों को पढ़ाएं।

ग्वालियर-चंबल क्षेत्र का सबसे बडा सरकारी अस्पताल भी उनके निर्वाचन क्षेत्र में ही है। एक हजार बिस्तरों वाले इस अस्पताल का उन्होंने पिछले पांच साल में पूरी तरह कायाकल्प करा दिया है। पिछले पांच वर्षों के दौरान अपने क्षेत्र में हुए सरकारी विकास कार्यो का शिलान्यास और उद्घाटन भी उन्होंने खुद न करते हुए संबंधित इलाके के किसी बुजुर्ग के हाथों करा कर एक नई मिसाल पेश की।

कोरोना महामारी थमने के बाद उन्होंने अपने क्षेत्र के लोगों से मिलने और उनकी समस्याएं जानने और उनका निराकरण करने के लिए पदयात्रा शुरू की। पिछले डेढ़ साल से वे बिना किसी ताम-झाम के पदयात्रा करते हुए घर-घर जाकर रोजाना लोगों से मिले। उनकी समस्याएं सुनी-समझी और उनका निराकरण भी कराया। कुल मिला कर उन्होंने अपनी सक्रियता और विनम्र व्यवहार से लोगों के दिलों में तो जगह बनाई ही। अपने क्षेत्र की जनता के प्रति अपने इस समर्पण भाव से वे न सिर्फ अपनी पार्टी में चुनौती विहीन हो गए बल्कि अपनी विरोधी पार्टी में भी किसी के पास उनके खिलाफ कहने को कुछ नहीं बचा। 

विधायक के नाते विधानसभा में उनका प्रदर्शन कैसा रहा, इस बारे में चर्चा करना बेमतलब है, क्योंकि बाकी राज्यों की तरह मध्य प्रदेश में भी विधानसभा का हर सत्र सिर्फ खानापूर्ति के लिए बुलाया जाता है, जो 5-6 दिन का ही होता है। इतना छोटा सा सत्र भी हंगामे और नारेबाजी में बीत जाता है और हंगामे के बीच ही बगैर बहस के विधेयक पारित हो जाते हैं।

बीते पांच साल में विधानसभा की कुल 105 बैठकें हुई हैं, जिसमें कई तो हंगामे की आड़ लेकर 15-20 मिनट की कार्यवाही के बाद ही दिनभर के स्थगित कर दी जाती रही हैं। ऐसे में जाहिर है कि किसी विधायक को कोई गंभीर मुद्दा उठाने का मौका ही नहीं मिलता। फिलहाल वे दूसरी बार विधानसभा चुनाव के मैदान में हैं, जहां कसौटी पर है उनका काम और बेदाग छवि।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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