दिल्ली में वायु प्रदूषण: जितने उपाय, उससे अधिक उलझाव

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नई दिल्ली। नवंबर में मौसम के अनुकूल होने और पराली जलाने में कमी आने के बावजूद दिल्ली की हवा पिछले साल के नवंबर के वायु प्रदूषण को पीछे छोड़ दिया है। आमतौर पर यह माना जाता है कि हवा में बहाव हो, दिन का तापमान अधिक हो जाये और बारिश हो जाए, तो आसमान साफ होना तय हो जाता है। इस नवंबर महीने में दिल्ली में ये तीनों संयोग उपलब्ध रहे।

देर से मानसून के उतरने की वजह से हवा का बहाव बना रहा। लेकिन, दिल्ली के अपने प्रदूषण के स्रोत, पराली के अचानक अधिक जलाने की घटनाएं और खुद दिल्ली वालों का प्रतिबंध की ऐसी-तैसी करते हुए पटाखों से आसमान को जहरीला बना देने की घटना ने प्रकृति की देय उपलब्धियों को नष्ट कर दिया। दिल्ली में दूसरी बार वायु गुणवत्ता सूचकांक 900 के पार चला गया।

अब, जबकि नवंबर के आधे दिन निकल गए हैं और ऊपर का तापमान नीचे की ओर जाएगा, ऐसे में दिल्ली के आसमान में ठहराव की स्थिति बनेगी। दिन की गर्मी जितनी कम होगी, गर्म हवा का उठान ऊपर की ओर उतना ही कम होगा। ठंड के बढ़ने से, खासकर रात की ठंड इस उठती हवा को बहुत ऊपर जाने से रोक लेती है। कोहरा और प्रदूषण से बना धुंध कुछ सौ मीटर से अधिक ऊपर नहीं उठ सकेगा।

सूरज की रोशनी कम होने और हिमालय की ठंडी हवा के नीचे उतरने से हवा का दबाव नीचे की ओर बढ़ता जाता है। ऐसे में, दोपहर में थोड़ी राहत जरूर हो जाती है लेकिन रात और देर सुबह तक प्रदूषण से भरे धुंध और कोहरे का बना रहना लाजिमी सा हो जाता है। ऐसे दृश्य को हम गांव या खुले इलाकों में साफ तौर पर देख सकते हैं। जब गांव से उठता धुंआ या दूर दराज फैक्टरियों का धुंआं शाम के समय आसमान में एक खास ऊंचाई पर देर तक तैरता हुआ दिख जाएगा। यह हवा का लॉक सिस्टम है।

दिल्ली में भारी गैसीय और निर्माण कण होने की वजह से हवा का उठना ऐसे भी कम होता है। जाड़ों में ठंडी हवा की वजह से बने दबाव की वजह से वो हमारे सांस लेने की ऊंचाई पर बने रहते हैं। पृथ्वी की सतह अमूमन दिन के समय में सूरज की गर्मी और गाड़ियों के संचालन और अन्य गतिविधियों की वजह से बढ़ जाती है, जबकि ठंडी हवाएं ऊपर से लॉक सिस्टम बना देती हैं, ऐसे में जानलेवा गैस और पार्टिकल हमारे रोजमर्रा के आम जीवन की वायु व्यवस्था में बने रहते हैं।

वायु प्रदूषण से बचने के उपाय और उलझाव

पिछले दिनों जब न्यायालय सक्रिय हुए तो उन्होंने कई सारे प्रस्ताव और निर्देश दे डाले- जंगल का क्षेत्र बढ़ाना, पराली जलाने पर कड़ी रोक, पंजाब में धान की खेती की जगह मोटे अनाज के उत्पादन पर जोर, स्मॉग टॉवर बनाना, पानी का छिड़काव और ग्रैप के विभिन्न प्रावधानों को कड़ाई से लागू करना मुख्य रहा। ये सारे प्रयास हवा के प्रदूषण को लेकर थे। जाहिर है, प्रदूषण के प्रति जो उपाय सुझाये जा रहे थे, वे प्रदूषण की अन्य समस्याओं को नहीं देख रहे थे।

खासकर, सीवेज और कचड़ा की वजह से पानी, भूतल और यमुना नदी में हो रहे प्रदूषण गिनती से बाहर ही रह गये। जबकि, हर साल इन्हीं महीनों में यमुना नदी एक जहर भरे नाले में तब्दील हो जाती है। बहरहाल, हवा के प्रदूषण पर भी जितनी बातें हुईं, उसे जमीन पर उतारना भी एक बड़ी मशक्कत और कई वर्षों में पूरे होने वाले ही उपाय थे। लेकिन, जिन तात्कालिक उपायों की बात हुई वे कम उलझाव भरे हैं, ऐसा नहीं है।

दिल्ली वायु प्रदूषण नियंत्रण कमेटी ने एनजीटी को अपनी रिपोर्ट देते हुए बताया कि स्मॉग टॉवर वायु प्रदूषण को दूर करने में बहुत अधिक सक्षम नहीं है। 16 नवम्बर, 2023 को हिंदुस्तान में छपी खबर के अनुसार, दिल्ली वायु प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जुड़ी वरिष्ठ वैज्ञानिक नंदिता मोइत्रा ने बताया कि “25 करोड़ की लागत से कनॉट प्लेस में लगा स्मॉग टॉवर सिर्फ 100 मीटर के रेडियस में वायु प्रदूषण को 17 फीसदी तक ही कम कर सकता है।”

यदि इतनी सफाई को उचित मान लिया जाए तब दिल्ली के 1,483 वर्ग किमी क्षेत्र में 47,000 से ज्यादा स्मॉग टॉवर लगाने पड़ेंगे। एक स्मॉग टॉवर की लागत फिलहाल 25 करोड़ रुपये है और महीने का प्रबंधन खर्च प्रति 15 लाख रुपये और होगा। बोर्ड ने 2021-22 के आंकड़ों से बताया है कि आनंद विहार स्मॉग टॉवर ने पीएम 2.5 कण को 17 प्रतिशत और पीएम 10 को 27 प्रतिशत ही कम किया।

एक अन्य उपाय कृत्रिम बारिश को लेकर आ रहा है। संभव है कि इससे तात्कालिक राहत मिल जाये, लेकिन इस संदर्भ में कोई खास अध्ययन और आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। दिल्ली का क्षेत्र कई राज्यों के साथ जुड़ हुआ है। यहां हिमालय से उतरने वाली हवा में यदि गति हो और पश्चिमी विक्षोभ की सक्रियता हो, तब यहां आसमान के साफ होने की उम्मीद की जा सकती है।

यदि ये दोनों ही स्थितियां न हों तब हवा का दबाव और ठहराव, जिसे हम हवा का लॉक सिस्टम कह सकते हैं, दिल्ली को उसके अपने ही प्रदूषण से बोझिल बना देगा। कृत्रिम बारिश के दौरान यदि हवा का बहाव न हो तो तब यह ठहरे प्रदूषण को नीचे ला सकता है, लेकिन यह राहत चंद दिनों से अधिक की नहीं रह सकती है। खासकर, जब दिल्ली के प्रदूषण के स्रोत लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं।

कोर्ट के सुझाव और निर्देश में खेती के पैटर्न में बदलाव और जंगल क्षेत्र बढ़ाने की बातें एक दूरगामी उपाय ही हैं। आमतौर पर यह देखा गया है कि जंगल क्षेत्र बढ़ाने के जितने भी दावे किये जाएं, उनकी न तो कटाई रुकती हुई दिखती है और न ही कभी उनका विस्तार होते हुए दिखता है। हर आने वाली सरकार ऐसे जंगल के कानून लेकर आती है, जिससे वो ‘विकास’ की भेंट चढ़ते रहते हैं। दिल्ली जैसा छोटा सा प्रदेश भी इसमें पीछे नहीं है। यहां भी जंगलों का क्षेत्र बढ़ने की बजाए घट गया है, जबकि हर साल पर्यावरण दिवस पर लाखों-करोड़ों पौधे लगाये जाते हैं।

यही स्थिति खेती के पैटर्न की है। यह बाजार से जुड़ा हुआ है और इस पर सरकार की नीतियों का सीधा असर होता है। सरकार और किसान के बीच हो रही टकराहटों में किसानों को अपनी उपज की उपयुक्त लागत के आधार पर कुछ हासिल नहीं हो रहा है। किसान लगातार खेती की बढ़ती लागत की समस्या में फंसा हुआ है।

खेती की व्यवस्था किसानों के सिर पर एक ऐसे बोझ की तरह बन गयी है, जिसे न तो वह उतारने की स्थिति में है और न ही साथ लेकर चल पाने की स्थिति में। कोर्ट का प्रदूषण के संदर्भ में धान की खेती दिया गया सुझाव समस्या का हल की बजाय कुछ और ही दिशा में ले जाने वाला है, जो एक व्यापक अध्ययन की मांग करता है।

रास्ता क्या है? 

ऐसा लगता है कि सरकार के पास प्रदूषण को लेकर कोई व्यापक योजना नहीं है और यह मुख्यतः राज्य सरकारों के जिम्मे छोड़ दिया गया है। इसकी वजह से राज्य सरकारें, जो किसी न किसी पार्टी की होती हैं, एक दूसरे के ऊपर आरोप लगाने में लगी होती हैं। इस बार पंजाब और दिल्ली में आप पार्टी की सरकार है, इसकी वजह से अरोप प्रत्यारोप कम लग रहे हैं। लेकिन, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने निश्चय ही एक बयान देकर प्रदूषण पर चर्चा गरम करने में योगदान दिया।

योगी आदित्यनाथ पिछले दिनों नोएडा आये। उन्होंने बताया कि जब वह वायुयान से बाहर आये तब उनकी आंखें जलने लगीं। उन्होंने अपने अधिकारी से जीपीएस आधारित मानचित्र देखने के लिए कहा, जिसमें पंजाब में लाल-लाल धब्बे दिख रहे थे। जब वह यह बात रहे थे, तब वह इस बात को नजरअंदाज कर रहे थे कि नोएडा, गाजियाबाद भी सर्वाधिक प्रूदषित इलाकों में से एक है और यहीं पर हिंडन नाम की नदी मर रही है।

बहरहाल, दिल्ली के कुल प्रदूषण में पिछले दस सालों में जो भी प्रयास हुए हैं, वे कुछ खास प्रभाव डालने में असफल रहे हैं। यहां समझना होगा कि यह समस्या न तो केवल दिल्ली से जुड़ी हुई है और न ही इसके दायरे में सिर्फ दिल्ली के लोग आते हैं। यह समस्या सैकड़ों किलोमीटर में फैले एनसीआरे के इलाके में है।

भारत में प्रदूषण की वजह से प्रतिवर्ष लगभग 17 लाख लोग मर जाते हैं। लेकिन, यह सबसे अधिक घातक असर बच्चों पर करता है। दिल्ली और एनसीआर में प्रति मिनट पर एक शिशु के मौत की खबर आ रही है। दैनिक भाष्कर की रिपोर्ट के अनुसार अकेले उत्तर प्रदेश में पांच वर्ष तक के प्रति लाख बच्चों में से 110 बच्चों की मौत फेफड़ों के निचले भाग में हुए संक्रमण की वजह से हुई। ये संक्रमण प्रदूषण से होते हैं। इस मामले में उत्तर प्रदेश और राजस्थान का रिकॉर्ड सबसे खराब है। पूरी दुनिया में प्रदूषण से कुल बच्चों के मौत का आंकड़ा 4.76 लाख प्रतिवर्ष है जिसमें भारत की हिस्सेदारी 1.2 लाख की है।

पहले प्रदूषण को एक साइलेंट किलर माना जाता था, लेकिन आज यह एक खुली किताब की तरह है। अब इसका सीधा असर दिखने लगा है और आंकड़े काफी भयावह हैं। ऐसा नहीं है कि प्रदूषण को हल करने का अनुभव हमारे पास नहीं है। यूरोप और अमेरीका में इससे निपटने के उपायों के अनुभव हैं। इसी तरह दक्षिण एशियाई देशों के भी उदाहरण सामने हैं। इन देशों के शहरों की हवा को साफ रखने के लिए किए गए तात्कालिक और दूरगामी उपायों से सीखा जा सकता है और यहां की परिस्थितिकी में उसका प्रयोग किया जा सकता है।

इसके लिए सबसे पहले प्रदूषण के स्रोतों को चिन्हित करना होगा और उन्हों रोकने व कम करने के उपायों-विकल्पों पर काम करना होगा। इसके लिए निश्चित ही लागत की जिम्मेदारी सरकार को लेनी होगी। दूसरा, प्रदूषण की संभावित स्थिति से निपटने के लिए तात्कालिक और दूरगामी योजना बनानी होगी और, इस संदर्भ में न सिर्फ बोर्ड का गठन बल्कि जरूरी खर्चों की व्यवस्था करनी होगी। तीसरा, आम लोगों को इस संदर्भ में सचेत और हिस्सेदार बनाना होगा।

लेकिन, सबसे अधिक जरूरी है सरकार की ओर वायु प्रदूषण और उससे प्रभावित इंसान की जिंदगी के प्रति रूख में बदलाव। यह भयावह है कि प्रदूषण के कारण बच्चों की पढ़ाई को रोक दिया जाये, जबकि लाखों लोग अपनी जीविका के लिए जानलेवा प्रदूषण में काम पर जा रहे होते हैं। इससे भी अधिक भयावह है, प्रदूषण की आपातकालीन हालात में बीमार लोगों को उनके हाल पर छोड़ देना।

जो बात अपने देश में एक विशिष्ट उपलब्धि की तरह दिखाई जाती है, वह है विशाल श्रम का भंडार। संभवतः यह वह कारण भी है जिसमें उसकी जिंदगी का मूल्य भी श्रम की तरह गिरा रहता है। जहर भरी हवा को पीते हुए यह विशाल गरीब संसार श्रम करने में जुटा रहता है और प्रदूषण की मार में अपनी जिंदगी को छोटा करता जाता है।

लेकिन, मालिक, चाहे वह सरकार हो या पूंजीपति या दोनों ही, उनको इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन, इस बार की सबसे भयावह बात बच्चों को पढ़ने से रोक देना है। यह हमारा रास्ता नहीं हो सकता।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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