चुनावी हार पर हाय-तौबा छोड़कर वोटों के पैटर्न को परखिए

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नई दिल्ली। जब समीकरण बिगड़ने लगे तब तथ्यों की ओर मुड़ना चाहिए। उन्हें गौर से देखना चाहिए और उन्हें ठीक-ठीक जगह रखकर उससे निकलने वाले निहितार्थों पर गौर करना चाहिए। संभव है, आप जिन निष्कर्षों को देखकर चौंक रहे हों या निराश हो रहे हों, उससे आप ऊबर जायें।

इस बार के पांच राज्यों के चुनाव परिणाम से जिस तरह लोग परेशान हैरान हो रहे हैं, उनके लिए तो यह और भी जरूरी है। यहां मुश्किल यही है कि किन तथ्यों को कैसे रखा जाये। तथ्यों का क्रम अलग-अलग निष्कर्षों तक भी पहुंचाता है। जिन लोगों को चुनाव की प्रक्रिया और वोट की बहुसंख्या में फासीवाद का खतरा दिख रहा है, उनके लिए निश्चित ही उन तथ्यों को देखना होगा, जिसमें हिंदुत्ववाद अपने को कैसे अभिव्यक्त कर रहा है। जिन लोगों को चुनाव की प्रक्रिया में लोकतांत्रिकरण के मजबूत होने की उम्मीद बची हुई है उन्हें जरूर ही वोट के बढ़ते प्रतिशत के कारणों की तलाश में जाना चाहिए। जिन्हें लगता है कि लोकतंत्र का यह सारा नजारा एक बड़ा फ्रॉड है, उन्हें जरूर ही इसकी निस्सारता की जगह, इसकी जुआबाजी की व्यवस्था को सामने लेकर आना चाहिए।

मेरे लिए इन चुनावों के परिणाम उस निष्कर्षों तक पहुंचाते हैं, जिसमें चुनाव की प्रक्रिया एक ऐसे राजसत्ता को बनाने में लगी है, जो शासन कर रही पार्टी को पैसे, कॉडर और नेतृत्व के स्तर पर इस कदर मजबूत कर रही है कि वह खुद ही राजसत्ता बन रही है। वह चुनाव को एक वैधानिक माध्यम बना रही है। वह राजसत्ता का प्रयोग कर दूसरी पार्टियों को पैसे, कॉडर और नेतृत्व के आधार को कमजोर और खत्म करने में लगी हुई है। इस हथियार का प्रयोग वह उनके खिलाफ भी कर रही है, जो न सिर्फ इन चुनावों को जनता के साथ धोखा मानते हैं बल्कि उसका सक्रिय विरोध करते हैं।

चूंकि ऐसी पार्टियों का एक शासक वर्गीय पार्टियों के साथ विरोध बना रहता है, इसकी वजह से उनके खिलाफ बन रहा राजनीतिक माहौल संभव है विरोधी पार्टियों के पक्ष में चला जाये। इस वजह से भी उनके खिलाफ ‘नक्सल’ के नाम पर कथित राजकीय अभियान भी चलाया जाता है। इस तरह चुनाव की प्रक्रिया और चुनाव के परिणाम, भारतीय लोकतंत्र की राजनीति में एक नया रूप ले रहे हैं, जो निश्चित ही चुनौतीपूर्ण है और यह एक विश्लेषण की मांग करता है। विश्लेषण तथ्यों के डरावने चेहरे का मुखौटा उतार देते हैं और उसके पीछे सच्चाई साफ दिखने लगती है।

किसे कितना वोट मिला

यह देखना जरूरी है कि किसे कितना वोट मिला। चुनाव आयोग की ओर जारी आंकड़ा देखना ही सबसे उपयुक्त है। छत्तीसगढ़ में- भाजपा 46.27 प्रतिशत, कांग्रेस 42.23 प्रतिशत। मध्य प्रदेश- भाजपा 48.55, कांग्रेस 40.40 और बसपा 3.40। राजस्थान- भाजपा 41.69, कांग्रेस 39.53, बसपा 1.82 और सपा 0.01। तेलगांना- भाजपा 13.90., बसपा 1.37, कांग्रेस 39.40 और बीआरएस 37.35।

इन्हीं राज्यों के 2018 में हासिल हुए वोटों का प्रतिशत भी देख लेना जरूरी है। छत्तीसगढ़ में- भाजपा 33.0 प्रतिशत, कांग्रेसः 43.0 प्रतिशत और बसपा 3.9 प्रतिशत। मध्य प्रदेश- भाजपा 41, कांग्रेस 40.89, बसपा 5.01 और सपा 1.3। राजस्थान- भाजपा 38.77, कांग्रेस 39.3, बसपा 4.03। तेलगांना- भाजपा 6.98, कांग्रेस 28.43 और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति 46.87।

यदि हम सिर्फ वोट के प्रतिशत को देखें, तब कांग्रेस का वोट प्रतिशत तेलगांना छोड़कर बाकी तीन राज्यों में कमोबेश स्थिर है। लेकिन, भाजपा के वोट प्रतिशत स्थिर नहीं हैं। उसका वोट प्रतिशत बढ़ता हुआ दिखता है। यहां यह देखना उपयुक्त होगा कि वोट का प्रतिशत सपा और बसपा दोनों का ही तेजी से नीचे गिरते हुए दिखता है। यह स्थिति उन छोटी पार्टियों का भी जो एक या दो सीटें निकाल लेने में कामयाब होती हैं, उनका वोट प्रतिशत भी नीचे गिरा है।

वोटों का भाजपा के साथ यह संघनीकरण वोटों के हिंदुत्ववादीकरण को ही दिखा रहा है। जबकि कांग्रेस एक स्थिर वोट के साथ यह दिखा रहा है कि वह अपने वोट का विस्तार नहीं कर पा रही है। उसे जितना विपक्ष के गठबंधन पर काम करना चाहिए, वह भी नहीं कर पा रही है। निश्चित ही इसके लिए जो सबसे जरूरी काम है पार्टी की संरचना को नीचे तक ले जाना और नेतृत्व के स्तर पर गठबंधन की राजनीति को मजबूत करना। इन दोनों ही मोर्चों पर उपरोक्त तीन राज्यों में इसकी असफलता के कारण साफ तौर पर दिखते हैं। ये आंकड़े वोट की ठोस पकड़ सिर्फ विचारधारा या एजेंडा तक सीमित नहीं है, यह उसे बूथ तक लाने और उसे पार्टी के पक्ष में ढालने की क्षमता को भी दिखाते हैं।

चुनाव लड़ने और वोट पाने के लिए कार्यकर्ता

1980 तक कांग्रेस बतौर एक पार्टी एक विशाल कार्यकर्ताओं की विशाल फौज थी। इस फौज का इस्तेमाल कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान किया। ये कार्यकर्ता एक ऐसे सामंतवादी संरचना का निर्माण करते थे, जिसमें वोट से लेकर सरकार चलाने तक के काम में मुस्तैद रहते थे। राजे-रजवाड़ों से लेकर गांधी का नाम लेकर कोऑपरेटिव चलाने वालों तक का एक बड़ा विशाल समूह था। संजय गांधी के नेतृत्व में एक नवधनाढ्यों का एक बड़ा समूह भी इसमें घुसा जो माफिया बनने की ओर था और वह सत्ता प्रतिष्ठान को इसके साथ जोड़कर एक नई शक्ल दे रहा था। ये मुस्लिम विरोधी दंगों से लेकर सिख विरोधी दंगों में सीधे भागीदार होते थे। यह आने वाले समय में भाजपा का आधार बना रहे थे। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि राहुल गांधी के समय इनका नेतृत्व कांग्रेस को अपने नियंत्रण में ले लिया। ऐसे में कांग्रेस का विभाजन तय था और भाजपा का उभरना भी तय था।

इस दौर का वोट पैटर्न दिखाता है कि संसदीय राजनीति का समाजवादी वोट एक नई दिशा हासिल करने के लिए बेचैन दिखता है। संघ और भाजपा इन वोटों के ध्रुवीकरण में सारी सीमाएं लांघ जाने की तरफ बढ़ता गया है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिरते हुए लगभग 20 प्रतिशत के आसपास स्थिर हो गया। भाजपा को समाजवादी वोट में घुसपैठ के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। उसने दलित और ओबीसी के वोट तक पहुंचने के लिए हिंदुत्व को गांव गांव तक पहुंचाना था। निश्चित ही इसके लिए एक नये तरह की पार्टी की जरूरत थी। यह काम संघ और भाजपा दोनों ने ही मिलकर किया और इसे और अधिक ठोस बनाने के लिए एक फासिस्ट संरचना को अंगीकार किया। इसमें निर्णय और नेतृत्व ऊपर से आता है और संरचना का निर्माण और कार्यवाहियां नीचे से लागू होती हैं।

भाजपा के लिए सिर्फ इतना ही जरूरी नहीं था। वह जानता है कि समाज में सदियों से जातिगत विभाजन और वर्तमान की वर्गीय विभेदीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है। इस संरचना पर काम करने के लिए उसने पार्टी के साथ साथ राजसत्ता का प्रयोग उन पार्टियों के खिलाफ करना शुरू किया, जो गांव के स्तर पर नई गोलबंदी कर सकते थे। उन सभी लोगों को, जो भारतीय समाज के सबसे निचले स्तर पर भाजपा से अतिरिक्त गोलबंदी कर सकते थे, देश के दुश्मन की तरह दिखाने का काम और उनके खिलाफ राजद्रोह तक की कार्यवाहियां की जाने लगी। भाजपा ने सीधे कांग्रेस से लेकर सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के खिलाफ कार्यवाही का पूरा सिलसिला ही चला दिया।

राजदीप सरदेसाई अपनी पुस्तक ‘मोदी की जीत, 2019’ में लिखते हैंः ‘जिन लोगों ने भी संविधान में इस साम्प्रदायिक हस्तक्षेप का विरोध किया उन पर किसी न किसी रूप में हमले हुए और उन्हें ‘अर्बन नक्सल’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग, ‘खान मार्केट गैंग’ और ‘लिबतार्ड’ जैसे नामों से बदनाम करने की साजिशें की गईं। सभी नामकरण कोई न कोई राष्ट्रविरोधी व्यक्तित्व को लक्ष्य बनाकर बहुत चालाकी के साथ किये गये थे। उन पर इस प्रकार से निशाना साधा गया जैसे वे भाजपा विरोधी या मोदी विरोधी नहीं ‘राष्ट्र-विरोधी’ या ‘देशद्रोही’ हों।’ वहीं दूसरी ओर, प्रत्येक बूथ के लिए कम से कम 100 सदस्यों की भर्ती अभियान ने भाजपा की सदस्य संख्या को करोड़ के पार पहुंचा दिया। इसके साथ ही तकनीक और पैसे का प्रयोग पार्टी कार्यालयों के निर्माण और उसे हर कार्यकर्ता का हिस्सा बना देने के अभियान ने भाजपा का गांवों तक पहुंच का और भी मजबूत कर दिया।

सोशल मीडिया का प्रयोग और संघ से जुड़े संगठनों ने उसे विचारधारात्मक एकीकरण को और भी आगे ले गया और दूसरों पर हमलावर होने का रास्ता और भी आसान बना दिया। 2023 में मध्य प्रदेश में राज्य विधानसभा चुनाव में 64,523 बूथों पर 40 लाखा कार्यकर्ताओं ने काम किया। यह आंकड़ा और अनुपात दिखाता है कि भाजपा ने चुनाव को वोट पेरने की मशीन में बदल दिया है जिसमें महज कुछ प्रतिशत वोटों का फर्क एक उम्मीदवार को जिताने की ओर ले जाता है। इस मामले में अन्य सभी पार्टियां बहुत पीछे छूट गई हैं और सही कहा जाये तो भाजपा द्वारा पीछे ठेल दिया गया है।

यहां वोटों की खरीद और चुनाव में होने वाले खर्चों को ध्यान में रखना होगा। इस बार भी, जबकि अभी पांच राज्यों का चुनाव खत्म नहीं हुआ था, चुनाव आयोग ने जो आंकड़ा पेश किया वह डराने वाला है। 20 नवम्बर, 2023 को भारत का चुनाव आयोग अपने बयान में बताया कि 9 अक्टूबर, 2023 को चुनाव प्रक्रिया घोषित होने के बाद से अब नगद, शराब, मुफ्त वितरण और कीमती धातु आदि जो पकड़ा गया है, उसका मूल्य 1,760 करोड़ रुपये से अधिक है। यह 2018 में हुए इन चुनावों के मुकाबले सात गुना अधिक है। उस समय तक सबसे ऊपर तेलगांना 659.2 करोड़ रुपये के साथ सबसे ऊपर था, दूसरे नम्बर पर राजस्थान था, 650.7 करोड़ रुपये। खासकर, ड्रग का वोटों के लिए प्रयोग एक खतरनाक मसला है। यह वोट पेरने की मशीन, यानी पार्टियां किसी तरफ जा रही हैं यह देखना भी जरूरी है। खासकर, दुनिया में तानाशाहों का जन्म हो या फासीवादी उभार, उसमें ड्रग एक बड़ी भूमिका अदा करता है। पिछले दस सालों में भारत में इसकी आमद और इसकी पकड़ का जो आंकड़ा दिख रहा है, वह काफी डरावना है।

तो रास्ता क्या है?

लेखन में अक्सर जब निबंध शैली एक रूप अख्तियार करता है तो अंत में एक निष्कर्ष देना होता है। लेकिन, कई बार बात पूरी नहीं हो पाती, तब भी आपकों ऐसे निष्कर्ष देने होते हैं। चुनाव की उपरोक्त बातें, कई और विश्लेषण की मांग कर रही हैं। लेकिन, इस बार में चुनाव के परिणाम भारत के राजनीतिक नक्शे को विभाजित रूप में पेश किया है। दक्षिण में भाजपा नहीं है। लोगों उत्तर भारत में भाजपा को लेकर चिंतित हैं। जाहिर है, रास्तों की इस तरह की तलाश भाजपा का अंत नहीं करने जा रही है। वोटों का पैटर्न दिखा रहा है कि भाजपा हिंदुत्वकरण की प्रक्रिया को अभी भी जारी रखे हुए है। ऐसे में भाजपा ने साफ कर दिया है कि वह जाति जनगणना का पक्ष लेने वाली नहीं है। और वह जाति को संस्कृति और वर्गीय रूप में देखना चाहती है।

दरअसल, वह इसकी ओट में छुप जाना चाहती है। ऐसा नहीं है कि वह यह कोई नया काम कर रही है। कांग्रेस से लेकर बहुत सारी पार्टीयों ने जाति की सच्चाई को इन्हीं तर्कों के पीछे जाकर छुपती रही हैं। उत्तर भारत में, भाजपा का तर्क सवर्णों को ही नहीं पिछड़ों के भी एक बड़े हिस्से को, खासकर युवा वर्ग को प्रभावित करेगा। इन पांच राज्यों के चुनाव में, कांग्रेस में राहुल गांधी ने भले ही इसे मुद्दा बनाया हो, लेकिन न तो कांग्रेस के अन्य नेतृत्व ने इसे मुद्दा बनाया और न ही अन्य पार्टियों ने इस दिशा में काम किया। ऐसे में आधे अधूरे तरीके से जाति का मसला भाजपा के पक्ष में झुक जाना तय होगा। जैसे राज्यों के चुनाव के नतीजे और वोट का ध्रुवीकरण दिखा रहे हैं।

भाजपा का उभार और एक पार्टी की तरह विस्तार अन्य पार्टियों के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। भाजपा ने राजसत्ता का प्रयोग दूसरी पार्टीयों को नष्ट करने, कमजोर करने और उन्हें नाममात्र के एक ढांचे में बदल देने के लिए किया है और यह प्रयास उसका अभी जारी है। उसने ‘नक्सल’ के नाम पर या उनके साथ संबंधों के नाम पर वाम पार्टियों, व्यक्तियों पर सीधा हमला किया है।

एनआईए और इंटेलीजेंस एजेंसियों का प्रयोग से लेकर अन्य सरकारी एजेंसियों का प्रयोग सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों से लेकर समाज में एनजीओ बनाकर काम करने वालों के खिलाफ लगातार किया जा रहा है। इससे मानवाधिकारी संगठनों से लेकर गांधीवादी और वामपंथी संगठनों और पार्टियों तक के आधार को या तो खत्म कर दिया है या उससे बेहद कमजोर कर दिया है।

गुप्त सांगठनिक संरचना वाली पार्टियों और संगठनों को आतंकवाद की श्रेणी में डालकर गिरफ्तारी, रेड और पूछताछ की अनवरत प्रक्रिया ने वर्ग की अवधारणा पर काम करने वाली वामपंथी पार्टियों के आधार को इसने लगातार कमजोर किया है। इसके नीचे वे पार्टियां, जो किसानों और मजदूरों में काम करते हुए मध्य वर्ग में अपना विस्तार करती हैं, ऐसी संरचना वाली पार्टियां भी अपना आधार तेजी से खो रही हैं।

सपा, बसपा जैसी पार्टियों का आधार कमजोर संरचना के चलते तेजी से बिखर गया है और उसमें मध्यवर्ती नेतृत्व हिंदुत्व का दामन थामने की ओर बढ़ चला है। कांग्रेस का न तो मजदूरों में कोई आधार रह गया है और न ही किसानों में। शहरी आधार पर चल रही पार्टी छात्रों और युवाओं में से भर्ती की लगातार कोशिश कर रही है। लेकिन, उसे एक नई पार्टी बनने में अभी काफी वक्त है।

भाजपा की सारी कोशिश ऐसी किसी भी पार्टी को बनने से रोकना है जिसकी जमीन गांव से लेकर शहर के मजदूर और मध्यवर्ग तक हो। भाजपा की चुनौती तभी दी जा सकती है, जब एक ऐसी पार्टी का बने जिसका आधार व्यापक हो। जिसकी संरचना कॉडर आधारित हो, जिसका नेतृत्व विचारधारा में समझौता करने वाला न हो और जो जनता को आंदोलित करने की क्षमता रखता हो। एक फासीवादी संरचना का उभार ही राजनीतिक की लोकतांत्रिक संरचनाओं के टूटने, बिखरने और कई बार क्षरित होने से होता है। एक मजबूत जनपक्षधर पार्टी के बिना भाजपा का विकल्प बनना संभव नहीं है।

भाजपा का हिंदुत्वकरण की प्रक्रिया से बनने और उससे अलग होने वाला वोट लगभग दस प्रतिशत है। यह वही वोट है जो कई बार सपा, बसपा और अन्य स्थानीय पार्टियों के पक्ष में जाता है। वोट के प्रतिशत हिस्सेदारी में कांग्रेस और भाजपा का वोट लगभग बराबर की स्थिति में है। यदि कांग्रेस को वह दस प्रतिशत वोट हासिल करना है, तब उसे भाजपा के हिंदुत्व बनाम हिंदुत्व की राजनीति से नहीं, गठबंधन की राजनीति के प्रति ईमानदारी निभाने से हासिल कर सकती है और वह इस संदर्भ में आगामी लोकसभा चुनाव में मल्लिकार्जुन खड़गे को प्रधानमंत्री का उम्मीदवारी देकर इस दिशा में बढ़ सकती है।

संभव है, इससे उन लोगों को राहत हासिल हो जो भाजपा से हर हाल में मुक्ति चाहते हों। हालांकि यह इतना आसान नहीं होगा। सबसे अधिक जरूरी है, आमूल बदलाव लाने वाली ऐसी पार्टी को मजूबत करना, जिसकी मजबूत संरचना हो और वह गांव और शहर में सबसे निचले वर्ग और जाति के बीच काम कर रही हो और वैचारिक स्तर पर जनवाद की हिमायत में सबसे ऊंची आवाज हो। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में कॉडर बेस पार्टी के बिना सारी लड़ाईयां सिर्फ लड़ने का भ्रम पैदा करती हैं, ऐसे भ्रम से बाहर रहना जरूरी है।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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