बिस्मिल, रोशन और अशफ़ाक़ का शहादत दिवस: सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..

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19 दिसम्बर पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह और अशफ़ाक़उल्लाह ख़ां जैसे वतनपरस्त इंक़लाबियों का शहादत दिवस है। मुल्क की आज़ादी के लिए जिन्होंने कम उम्र में ही अपनी जान क़ुर्बान कर दी। इन तीनों क्रांतिकारियों का क्रांतिकारी जीवन का आग़ाज़ भले ही अलग-अलग हुआ हो, मगर अपने मादरे वतन पर कु़र्बान एक साथ हुए।

हिंदू-मुस्लिम एकता की बेजोड़ मिसाल जब ये इंक़लाबी फांसी पर चढ़े, तो बिस्मिल की उम्र महज़ 30 साल, तो अशफ़ाकउल्लाह ख़ां 27 साल के थे। देश में चल रहे आज़ादी के आंदोलन से बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्लाह ख़ां शुरू से ही मुतास्सिर थे। दोनों के दिल में अपने देश के लिए कुछ करने का जज़्बा था।

रामप्रसाद बिस्मिल पर आर्य समाजी भाई परमानंद, जो कि ग़दर पार्टी से जुड़े हुए थे, का काफ़ी असर था। अंग्रेज़ी हुकूमत ने लाहौर कांड में जब परमानंद भाई को फांसी की सज़ा सुनाई, तो बिस्मिल बद-हवास हो गए। उन्होंने गुस्से में ये क़ौल ली, “वे इस शहादत का बदला ज़रूर लेंगे। चाहे इसके लिए उन्हें अपनी जान क्यों न कु़र्बान करना पड़े।”

आगे चलकर रामप्रसाद बिस्मिल ने मशहूर क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित के संगठन ‘मातृवेदी’ से राब्ता क़ायम कर लिया। इस संगठन में पैदल सैनिकों के अलावा घुड़सवारों व हथियारों से लैस सैकड़ों क्रांतिकारियों का जत्था था।

‘मातृवेदी’ ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जो सशस्त्र संघर्ष चलाया, पंडित गेंदालाल दीक्षित के साथ बिस्मिल ने उसकी लीडरशिप की। इन दोनों ने मिलकर उत्तर प्रदेश सूबे के मैनपुरी, इटावा, आगरा व शाहजहांपुर आदि जिलों में बड़े ही प्लानिंग से एक मुहिम चलाई और नौजवानों को इस संगठन से जोड़ा।

रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला ख़ां दोनों का शुरुआत में कांग्रेस से भी वास्ता रहा। उन्होंने कलकत्ता और अहमदाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशनों में भी हिस्सा लिया। अहमदाबाद अधिवेशन में जब मौलाना हसरत मोहानी ने कांग्रेस की साधारण सभा में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा, तो रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला ख़ां और दीगर इंक़लाबी ख़यालात के नौजवानों ने इसकी हिमायत की थी। लेकिन महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया।

बहरहाल, चौरीचौरा कांड के बाद, महात्मा गांधी द्वारा अचानक असहयोग आंदोलन वापस लेने के फै़सले से क्रांतिकारी विचारों के नौजवानों को काफ़ी निराशा हुई। उन्होंने ज़ल्द ही एक जुदा राह इख़्तियार कर ली। तमाम इंक़लाबी ख़यालात के नौजवान जिसमें भगतसिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, भगवतीचरण बोहरा, रोशन सिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, यशपाल, मन्मथनाथ गुप्त और दुर्गा भाभी आदि के साथ रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाकउल्ला खां शामिल थे, इंक़लाब की रहगुज़र पर चल निकले।

पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला ख़ां की मुलाक़ात कैसे हुई और ये दोनों किस तरह एक ही राह के हमसफ़र हुए, इसका क़िस्सा मुख़्तसर में यूं है। अशफ़ाक़उल्ला ख़ां जब स्कूल में ही थे, तो बंगाल के इंक़लाबियों की सरगर्मियों की ख़बरें अख़बारों में पढ़ते और सुनते रहते थे। मैनपुरी साज़िश के सिलसिले में उनके स्कूल और शाहजहानपुर में हुई गिरफ़्तारियां, खु़दीराम बोस और कन्हैया लाल दत्त की क़ुर्बानियों के नुक़ूश उनके मासूम जे़हन पर अपना असर छोड़ रहे थे।

वे इन वाक़िआत से इतना मुतास्सिर हुए कि खु़द भी इंक़लाबी बनने का ख़्वाब देखने लगे। अपने वतन के लिए कुछ करने का यही जज़्बा था कि जब क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल मैनपुरी मामले के बाद शाहजहानपुर में अंडरग्राउंड थे, तो अशफ़ाक़उल्ला ख़ां न सिर्फ़ उनसे मिले, बल्कि इंक़लाबी तहरीक में शामिल होने की अपनी मंशा का इज़हार भी किया।

बिस्मिल ने शुरू में अशफ़ाक़उल्ला की इस पेशकश को ठुकरा दिया, लेकिन जब उन्होंने इस बात का लगातार इसरार किया, तो उन्हें अपने क्रांतिकारी दल में शामिल कर लिया। आगे चलकर अशफ़ाक़उल्ला ख़ां मुल्क की इंक़लाबी तहरीक के एक जांबाज़ इंक़लाबी साबित हुए। यहां तक कि ‘काकोरी ट्रेन एक्शन’ मामले में अदालत के अंदर जब सुनवाई शुरू हुई, तो मजिस्ट्रेट ने अशफ़ाक़उल्ला ख़ां को रामप्रसाद बिस्मिल का लेफ़्टिनेंट क़रार दिया।

साल 1924 में क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने कुछ साथियों के साथ ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना की। सचिन्द्र नाथ सान्याल संगठन के अहम कर्ता-धर्ता थे, तो वहीं रामप्रसाद बिस्मिल को सैनिक शाखा का प्रभारी बनाया गया। इस संगठन के माध्यम से क्रांतिकारियों ने पूरे देश में आज़ादी के आंदोलन को एक नई रफ़्तार दी।

संगठन की तमाम बैठकों में सिर्फ़ एक ही नुक्ते, देश की आज़ादी पर बात होती। यही नहीं अंग्रेज़ हुकूमत से किस तरह से निपटा जाए, क्रांतिकारी इसके लिए नई-नई योजनाएं बनाते।

क्रांति के लिए हथियारों की ज़रूरत थी और ये हथियार बिना पैसों के हासिल नहीं हो सकते थे। रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी दल ने एक और बड़ी योजना बनाई। यह योजना थी, सरकारी ख़ज़ाने को लूटना। 9 अगस्त, 1925 को सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली ट्रेन को काकोरी स्टेशन पर लूट लिया गया।

इस सनसनीख़ेज़ वाक़ए को रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ बख्शी, ठाकुर रोशन सिंह, केशव चक्रवर्ती और अशफ़ाक़उल्लाह ख़ां समेत दस क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया। क्रांतिकारी, ट्रेन में रखे ख़ज़ाने को लूटकर रफ़ू-चक्कर हो गए।

क्रांतिकारियों का यह वाक़ई दुःसाहसिक कारनामा था। इस वाक़िआत से पूरे देश में हंगामा हो गया। अंग्रेज़ी हुकूमत की नींद उड़ गई। काकोरी ट्रेन एक्शन के बाद बौखलाए अंग्रेज़ों ने हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के चालीस क्रांतिकारियों पर डकैती और हत्या का मामला दर्ज़ किया।

काकोरी कांड में शामिल सभी क्रांतिकारी एक के बाद एक गिरफ़्तार कर लिए गए। जेल में रामप्रसाद बिस्मिल और उनके क्रांतिकारी साथियों को पुलिस द्वारा कई प्रलोभन दिए गए कि वे सरकार से माफ़ी मांग लें, उन्हें रिहा कर दिया जाएगा। मगर वे इन प्रलोभनों में नहीं आए। काकोरी ट्रेन डकैती मामला, अदालत में तक़रीबन डेढ़ साल चला। इस दरमियान अंग्रेज़ सरकार की ओर से तीन सौ गवाह पेश किए गए, लेकिन वे यह साबित नहीं कर पाए कि इस वारदात को क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया है।

बहरहाल, अदालत की यह कार्यवाही तो महज़ एक दिखावा भर थी। इस मामले में फै़सला पहले ही लिख दिया गया था। क्रांतिकारियों को भी यह सब मालूम था, लेकिन वे जरा सा भी नहीं घबराए। अदालत के सामने हमेशा बेख़ौफ़ बने रहे। आख़िरकार, अदालत ने बिना किसी ठोस सबूत के रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला ख़ां और उनके दीगर साथियों को काकोरी कांड का गुनहगार ठहराते हुए, फांसी की सज़ा सुना दी।

इस एक तरफ़ा फै़सले के बाद भी आज़ादी के मतवाले जरा सा भी नहीं घबराए और उन्होंने पुर-ज़ोर आवाज़ में अपनी मनपसंद ग़ज़ल के अशआर अदालत में दोहराए, “सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।” यह अशआर अदालत में नारे की तरह गूंजा, जिसमें अदालती कार्यवाही देख रही अवाम ने भी अपनी आवाज़ मिलाई।

अपने मादरे वतन की आज़ादी के लिए कु़र्बान होने का जज़्बा रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला ख़ां के दिल में आख़िर तक बना रहा। 8 अक्टूबर, 1927 को जेल से अपने परिवार को लिखे ख़त में अशफ़ाक़उल्ला ख़ां ने बड़े ही फ़ख्र से लिखा था, “मैं तख़्ता-ए-मौत पर खड़ा हुआ ये ख़त लिख रहा हूं, मगर मुतमईन व ख़ुश हूं कि मालिक की मर्ज़ी इसी में थी। बड़ा खु़शक़िस्मत है वो इंसान, जो कु़र्बानगाह-ए-वतन पर कु़र्बान हो जाए।”

फांसी से चंद दिन पहले अशफ़ाक़उल्ला ख़ां ने देशवासियों के नाम एक लंबा पैग़ाम भी भेजा था, जिसमें देशवासियों से सभी मतभेदों को भुलाकर मुल्क पर मर मिटने की अपील की गई थी। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों से एकता और भाईचारा क़ायम करने की आरजू़ का इज़हार करते हुए लिखा, “हिंदुस्तानी भाइयो, आप कोई भी हों, लेकिन आप मुल्क के कामों को मुत्तहिद होकर अंजाम दीजिए, रास्ता चाहे मुख़्तलिफ़ हो, लेकिन सब की मंज़िल एक ही है।”

अशफ़ाक़उल्ला ख़ां और पं.रामप्रसाद बिस्मिल का मक़सद सिर्फ़ आज़ादी हासिल करने तक ही महदूद नहीं था, बल्कि वे किस तरह की आज़ादी चाहते हैं और देश की भावी तस्वीर किस तरह की होगी? इसके बारे में भी उनके ख़यालात साफ़ थे। उनके जे़हन में आज़ादी का क्या तसव्वुर था और किसानों, मज़दूरों के बारे में उनकी क्या राय थी? इसका खु़लासा अशफ़ाक़उल्ला ख़ां ने अपने इस पैग़ाम में यूं किया है-

“मेरा दिल ग़रीब किसानों और दुखी मज़दूरों के लिए हमेशा फ़िक्रमंद रहा है। मेरा बस हो तो दुनिया की हर मुमकिन चीज़ उनके लिए समर्पित कर दूं। हमारे शहरों की रौनकें उनके दम से हैं। हमारे कारख़ाने उन की वजह से आबाद और काम कर रहे हैं। मैं हिंदुस्तान की ऐसी आज़ादी का ख़्वाहिशमंद था, जिसमें ग़रीब खु़श और आराम से रहते और सब बराबर होते। खु़दा मेरे बाद ज़ल्द वो दिन लाए।”

19 दिसंबर, 1927 को अशफ़ाक़उल्ला ख़ां को फ़ैज़ाबाद में, तो पं. रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर की जेल में फांसी की सज़ा दी गई। फांसी देने से पहले जब बिस्मिल की आख़िरी चाहत पूछी गई, तो उन्होंने बड़े ही बहादुरी से जवाब दिया, “मैं अपने मुल्क से ब्रिटिश हुकूमत का ख़ात्मा चाहता हूं। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो।”

उसके बाद उन्होंने बुलंद आवाज़ में यह शे’र पढ़ा, “अब न अगले वलवले हैं और न वो अरमां की भीड़/ सिर्फ़ मिट जाने की इक हसरत दिल-ए-‘बिस्मिल’ में है!” जल्लाद फांसी का फंदा लेकर रामप्रसाद बिस्मिल की ओर बढ़ा, तो उन्होंने यह फंदा उससे छीनकर मुस्कराते हुए, ख़ुद ही अपने गले में डाल लिया।

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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