अयोध्या में बन रहे राम मंदिर में 22 जनवरी को होने जा रही प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम को लेकर वैश्विक स्तर पर जश्न मनाने के नाम पर विभाजनकारी राजनीति को सही ठहराने की कोशिशों को लेकर तमाम सामाजिक और मानवाधिकार संगठनों ने गहरी चिंता जतायी है। उन्होंने कहा है कि मंदिर बनाने को लेकर दिये गये सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर दुनिया भर में हैरानी जतायी गयी थी। बाबरी मस्जिद गिराने को अपराध बताने के बावजूद ऐसा फैसला करना अल्पसंख्यकों के प्रति किये गये अन्याय की तरह ही देखा जायेगा।
आरएसएस से जुड़े संगठन अमेरिका में भी 22 जनवरी को लेकर कई आयोजन कर रहे हैं। कार रैलियों, कार्यक्रमों और परेडों का आयोजन किया जा रहा है। भारत की बहुलतावादी और सहिष्णु सांस्कृतिक परंपरा के समर्थक संगठन आईएएमसी (इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल) ने एक बयान जारी करके कहा है कि यह जश्न एक ऐतिहासिक अन्याय की याद दिलाता है। संघ से जुड़े संगठनों ने संयुक्त राज्य भर में कार रैलियों, कार्यक्रमों और परेडों की योजना बनाई है, जो इस विभाजनकारी उत्सव के एक संकटपूर्ण विस्तार को दर्शाता है।
आईएएमसी के अध्यक्ष मोहम्मद जावेद ने कहा, “बाबरी मस्जिद के खंडहरों पर बने मंदिर को लेकर मनाया जा रहा जश्न विध्वंस की साजिश रचने वालों को मिली छूट और न्याय के साथ हुए विश्वासघात का खुला समर्थन है। यह मुसलमानों को न्याय देने और संविधान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बनाये रखने में भारतीय न्यायपालिका की विफलता की याद दिलाता है।”
IAMC के कार्यकारी निदेशक रशीद अहमद ने कहा, “संयुक्त राज्य अमेरिका में हाल ही में हुए व्यापक उत्सव चिंताजनक हैं। यह मस्जिद विध्वंस का वैश्विक स्तर पर महिमामंडन और धार्मिक असहिष्णुता का खुला समर्थन है”।
गौरतलब है कि 6 दिसंबर 1992 को आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की उग्र भीड़ ने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था। उस समय उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार थी जिसने इसे सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देने के बावजूद इसकी सुरक्षा के लिए जरूरी कदम नहीं उठाये। इसके बाद पूरे देश में बड़े पैमाने पर दंगे हुए, जिनमें हजारों लोग मारे गए, जिनमें मुख्य रूप से मुसलमान थे। लगभग तीन दशक बाद, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने, नवंबर 2019 में उस स्थान को मंदिर बनाने के लिए हिंदुओं को सौंप दिया।
अपने फैसले में, अदालत ने हिंदू पक्ष के इस दावे को खारिज किया था कि बाबरी मस्जिद का निर्माण मंदिर को ध्वस्त करने के बाद किया गया था। एएसआई की रिपोर्ट ने भी प्रमाणित नहीं किया था कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनायी गयी थी। अदालत ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस को एक “सोच समझकर किया गया कृत्य” भी करार दिया था।
भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और जस्टिस एस ए बोबडे, डी वाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण और एस ए नज़ीर के आदेश में कहा गया था, “मुकदमे के लंबित रहने के दौरान, सार्वजनिक पूजा स्थल को नष्ट करने की योजनाबद्ध कार्रवाई में मस्जिद की पूरी संरचना को गिरा दिया गया था। मुसलमानों को गलत तरीके से उस मस्जिद से वंचित किया गया है जिसका निर्माण 450 साल पहले किया गया था।”
बयान में याद दिलाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ए.के. गांगुली ने फैसले को “त्रुटिपूर्ण” बताया था और कहा कि अगर वह इस मामले में न्यायाधीश होते, तो उन्होंने “मस्जिद की बहाली का निर्देश दिया होता। ”
जस्टिस गांगुली ने कहा था, “अब सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि मस्जिद के नीचे कुछ संरचना थी। लेकिन यह दिखाने के लिए कोई तथ्य नहीं है कि वह ढांचा एक मंदिर था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि उनके पास यह कहने के लिए सबूत नहीं है कि एक मंदिर को ध्वस्त किया गया था और एक मस्जिद बनाई गई थी। नीचे कोई भी संरचना हो सकती थी – एक बौद्ध स्तूप, एक जैन संरचना, एक चर्च। लेकिन यह कोई मंदिर नहीं रहा होगा। तो सुप्रीम कोर्ट ने किस आधार पर पाया कि ज़मीन हिंदुओं की है या रामलला की?” उन्होंने कहा था कि अदालत का फैसला कानून के शासन पर नहीं आस्था के रहस्य पर निर्भर करता है।
नवंबर 2020 में, भारत की एक विशेष अदालत ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने की आपराधिक साजिश के आरोप में लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती सहित आरएसएस और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं सहित 32 आरोपियों को बरी कर दिया था। बरी किए जाने के फैसले ने 20 करोड़ से अधिक भारतीय मुसलमानों को न्याय से वंचित करके एक खतरनाक मिसाल कायम की।
इस चौंकाने वाले फैसले ने न केवल सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना की, बल्कि लिब्रहान आयोग के निष्कर्षों की भी अनदेखी की, जिसे भारत सरकार ने 1992 में मस्जिद के विध्वंस की जांच के लिए स्थापित किया था और निष्कर्ष निकाला था कि विध्वंस की सावधानीपूर्वक योजना बनाई गई थी।
आयोग ने कहा था कि अयोध्या में आरएसएस, बजरंग दल, भाजपा और शिवसेना के कार्यकर्ताओं का जमावड़ा “सहज या स्वैच्छिक” नहीं बल्कि “योजनाबद्ध” था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 60 से अधिक लोगों का नाम लिया और उन्हें “देश को सांप्रदायिक कलह के कगार पर ले जाने” के लिए “दोषी” ठहराया था।
भारतीय न्यायपालिका की विफलता के कारण अन्य मस्जिदों और तीर्थस्थलों, विशेषकर उत्तर प्रदेश के मथुरा और वाराणसी में हमलों को बढ़ावा मिला है।
IAMC ने कहा है कि वह एक न्यायपूर्ण और समावेशी भारत के लिए अपनी लड़ाई जारी रखेगा, जहां प्रत्येक नागरिक के साथ उनकी आस्था की परवाह किए बिना सम्मान और समानता का व्यवहार किया जाएगा।
(प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित)
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