नरेंद्र मोदी सरकार के दस साल के सफरनामे की बेबाक पड़ताल करती एक किताब

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साल 2014 की मई के बाद भारतीय सत्ता और राजनीति का चरित्र सिरे से बदलने लगा। अंधी सांप्रदायिकता, जाति का कोढ़, आवारा पूंजी का मूलतः देश विरोधी खेल और फासीवाद के खुले एजेंडे खुलकर बजबजाने लगे। नतीजतन आज 2024 तक व्यापक भारतीय समाज विघटन की कगार पर ही नहीं आया बल्कि बाकायदा विघटन का शिकार हो गया। हालांकि इसकी खुरदरी जमीन 2014 से पहले तैयार होनी शुरू हो गई थी। लोकतंत्र की नई परिभाषा (जो अपने मूल में जनविरोधी थी/ हिंदू राष्ट्र के सपने से लबरेज थी) की इबादत नागपुर, अहमदाबाद और दिल्ली में लिखी जा रही थी।

2014 में घोर सांप्रदायिक और तानाशाह सरकार सामाजिक ध्रुवीकरण के प्रत्यक्ष बलबूते केंद्रीय सत्ता में आई। इसी के साथ कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सरीखी संस्थाएं भोथरेपन के जोरदार संक्रमण की जद में आ गईं। अपवाद अभी जैसे-जैसे बचे हुए हैं। दीगर है कि वे भी खुद को बचाने की जद्दोजहद में बेलगाम तथा बेरहम सत्तातंत्र के सीधे निशाने पर हैं। फासिज्म की राहों को अपना आदर्श मानने वाली केंद्रीय सत्ता को समानांतर और वैकल्पिक जैसे मुहावरों से सख्त नफरत है। इन्हें लोकतंत्र के शब्दकोष से हटाने की कवायद तेज है।

आज का देश (भारत) इन्हीं का है-यह ईथोस (मानसिक मौसम) ताकत के बूते बना दिया गया है। शेष लोग अपने हिस्से का देश बचाने की लड़ाई अपने-अपने तईं लड़ रहे हैं। कुछ शिद्दत के साथ और कुछ थक-थक कर उठते हुए! रोजाना साजिशन, सोची-समझी नीति के तहत लोकतांत्रिक मूल्यों के किसी न किसी हिस्से का शिकार किया जा रहा है और खिलाफत करने वालों की जंग अपनी जगह जारी है। 1947 के बाद इतना सघन व तनावपूर्ण घटनात्मक माहौल कभी नहीं रहा। जो घट रहा है और घट चुका है वह राजनीति विज्ञान के बड़े-बड़े विद्वानों को भी विस्मय में डाल रहा है।

जिन अहम घटनाओं ने 2014 के बाद देश-समाज बदला; उनका सिलसिलेवार ब्यौरा लेकर आई है वरिष्ठ पत्रकार दयाशंकर मिश्र की विस्तृत किताब ‘राहुल गांधी (सांप्रदायिकता/ दुष्प्रचार/ तानाशाही से ऐतिहासिक संघर्ष)’। साढ़े सात सौ पन्नों की इस किताब में राहुल गांधी महज एक बिंब हैं। किताब दरअसल केंद्र में नरेंद्र मोदी के शासन के बाद की घटनाओं की सिलसिलेवार पड़ताल है। उन लोगों के लिए जरूरी, जो जानना चाहते हैं कि 2014 के बाद लगातार ऐसा क्या होता चला गया कि देश का ऐसा हश्र और खंडित चेहरा सामने है।

‘राहुल गांधी…’ ग्यारह खंडों और 116 अध्यायों के लंबे फलक पर फैली हुई है। लेखक दयाशंकर मिश्र शुरुआत अन्ना आंदोलन की तार्किक चीर-फाड़ से करते हैं। वह तथ्यात्मक ढंग से स्थापित करते हैं कि अन्ना हजारे का आंदोलन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा स्क्रिप्टिड और निर्देशित था। बाद में इसका सीधा फायदा भाजपा, नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल को मिला। आम आदमी पार्टी (आप) का जन्म अन्ना आंदोलन से हुआ। किताब संकेत देती है कि ‘आप’ के फलने-फूलने में दक्षिणपंथी ताकतों की महत्ती भूमिका थी ताकि मध्यमार्गी और भाजपा की राह का एक बड़ा रोढ़ा कांग्रेस को निहायत कमजोर अथवा खोखला किया जा सके। किताब का यह शुरुआती अध्याय ‘आप’ सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की महत्वाकांक्षा और अवसरवादिता पर भी रोशनी डालता है।

मौजूदा सत्ता ने अपने दस साल के हाहाकारी कार्यकाल में कदम-दर-कदम नागरिक अधिकारों को कुचला है। सत्ताई गुंडे देश के एक से दूसरे कोने तक फैले हुए हैं। दनदनाते इन गुंडो के हाथ दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश सरीखे जनपक्षीय बुद्धिजीवियों के खून से सने हुए हैं। रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या होती है। अवाम की और खड़े बुद्धिजीवियों व पत्रकारों को झूठे मुकदमों में हंस कर जेल में डाल दिया जाता है। जेएनयू और जामिया मिलिया इस्लामिया सहित बेशुमार शिक्षा संस्थानों में ‘खाकी-हिंसा।’ गुजरात में दलितों की पिटाई यानी गुजरात मॉडल का एक और चेहरा! किताब इन घटनाओं पर खास तथ्य सामने रखती है।

अल्पसंख्यकों; खासतौर से मुसलमानों को दोयम दर्जे से भी नीचे की रेखा में धकेलना हिंदू दक्षिणपंथियों का बुनियादी एजेंडा रहा है। कभी-कभी लगता है कि शासन व्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा युद्ध स्तर पर 2014 से यह सब करने में लगा है। दयाशंकर मिश्र तीन तलाक, सीएए, शाहीन बाग, दिल्ली दंगों, गौ रक्षा के बहाने हुई मॉब लिंचिंग, धर्म संसद, सबरीमला, सकल हिंदू समाज, मोहम्मद जुबेर को जेल, अतीक अहमद की पुलिस हिरासत में हत्या, बिलकिस बानो प्रकरण, सावरकर के जन्मदिन पर नए संसद भवन के उद्घाटन, सेंगोल और मणिपुर हिंसा पर खंड-चार/ ‘सांप्रदायिकता’ में शाब्दिक चर्चा करते हुए इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि असहिष्णुता का जहर उन तबकों और जमातों को बेमौत मार रहा है-जो अलग-अलग वजहों से फिरकापरस्त सियासत तथा हुकूमत की आंख की किरकिरी हैं।

महात्मा गांधी सदैव संघ परिवार की ‘हिटलिस्ट’ में शिखर पर रहे हैं। केंद्रीय सत्ता का शीर्ष 2014 के बाद महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ वैचारिक रूप से हमलावर रहा है। नेहरू पर सीधा हमला किया जाता है तो गांधी को पर्दे के पीछे से अप्रासंगिक बनाने की मुहिम जारी है। गोया दोनों ने आजादी की लड़ाई की अगुवाई करके या पहली कतार में शुमार होकर बहुत बड़ा गुनाह किया हो।

‘राहुल गांधी…’ में दयाशंकर मिश्र ने महात्मा गांधी और नेहरू पर हमलों की कुछ बानगियां प्रस्तुत की हैं: गांधी को सफाई अभियान तक रखने की साजिश, अमित शाह का महात्मा गांधी को अपमानजनक ढंग से ‘चतुर बनिया’ कहना, प्रज्ञा ठाकुर द्वारा नाथूराम गोडसे को देशभक्ति का सर्टिफिकेट, मनोज सिन्हा का कथन कि गांधी के पास शैक्षणिक डिग्री नहीं थी, सिनेमा से गांधी को खारिज करने की कोशिशें, सांप्रदायिक रुझान वाली ‘गीता प्रेस’ को गांधी शांति पुरस्कार देने के पीछे की कहानी, NCERT में गांधी की जगह सावरकर।

इतिहास नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को अपने पन्नों में तानाशाही व मनमर्जी के नए सांचे गढ़ने के लिए भी खास जगह देगा! 2014 से लेकर 2024 तक ताकतवर बेशर्मी के साथ संवैधानिक संस्थाओं, न्यायपालिका और मीडिया पर कब्ज़ों का सिलसिला शुरू किया गया, जो अनवरत जारी है। 8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे बड़ी गैरजिम्मेदारी के साथ नोटबंदी की घोषणा कर दी गई। अवाम पर इसका कितना नागवार असर पड़ा, अलग से बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन दयाशंकर मिश्र मनमर्जी के शासन के इस पहलू की विशेष व्याख्या करते हैं।

विपक्ष और विरोधियों के खिलाफ ईडी, सीबीआई तथा अन्य एजेंसियों को कैसे हथियार बनाया जाता है और पेगासस के जरिए अपने नागरिकों की जासूसी मौजूदा भारतीय सरकार कैसे करती है-किताब में इसकी सूक्ष्म पड़ताल की गई है। एक अध्याय में बताया गया है कि इस ‘भ्रम’ से बाहर आने की जरूरत है कि व्हाट्सएप कॉलिंग बातचीत का सुरक्षित जरिया है। इस भ्रम को किताब के ‘व्हाट्सएप कॉलिंग को सुन रही सरकार’ के माध्यम से दूर किया जा सकता है।

‘राहुल गांधी…’ किताब में न्यायपालिका और मीडिया को पूरी तरह अपने वश में करने (या कहिए कि पालतू बनाने) की कवायद पर विशेष खंड हैं। न्यायपालिका वाले खंड में गौरतलब: सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस, प्रधानमंत्री का सीजेआई दफ्तर में जाना, अयोध्या केस का फैसला किस जज ने लिखा?, कानून मंत्री रहते किरण रिजीजू की धमकियां, अनुराग ठाकुर की ‘हेट स्पीच’ पर हाईकोर्ट की ‘मुस्कुराहट’, सरकार दखल देती है तो न्यायपालिका पलटवार करे: दवे, ध्रुव तारा: संसद या सुप्रीम कोर्ट, 2047 तक हिंदू राष्ट्र वाया संविधान, आरएसएस से जुड़ी महिला वकील बनीं एडिशनल जज, गोगोई को राज्यसभा, जस्टिस नजीर बने आंध्र के राज्यपाल, ‘फेक न्यूज़’ पर सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई की टिप्पणियां, ‘मोदी उपनाम’ मामला: राहुल गांधी को दो साल की सजा, गुजरात दंगा: बीजेपी की पूर्व मंत्री समेत सभी आरोपी बरी और बिलकिस केस: दोषियों को छूट पर सुप्रीम कोर्ट के सवाल।

भारतीय मीडिया का जैसा पतन मोदी सरकार के कार्यकाल में हुआ, वह अभूतपूर्व है। शर्मनाक है कि हमारे अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ कहलाने में गर्व महसूस होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के लब्धनिष्ठ चिंतक, आलोचक व दार्शनिक नोम चोम्स्की ने मीडिया की समग्र भूमिका पर टिप्पणी की थी कि ‘जो मीडिया पर नियंत्रण करता है, वही लोगों के दिमाग को भी नियंत्रित कर लेता है।’ मोदी सरकार ने इसे बखूबी अंजाम दिया। किताब के ये अध्याय इस तथ्य की पुष्टि करते हैं: आपकी दुकान में चलता हूं, सत्यपाल मलिक के खुलासे: मीडिया की चुप्पी, बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर बैन; फिर छापे, संपादकीय पन्नों पर आरएसएस-बीजेपी का कब्जा, एनडीटीवी का बिकना और रवीश कुमार का इस्तीफा, हाथरस मामला: सिद्दीक कप्पन का दोष क्या?, ‘द वायर’ पर छापा, अनिल अंबानी ने किया केस, ‘कोबरा पोस्ट’ का मीडिया घरानों पर स्टिंग ऑपरेशन, मुखर आवाजों पर पाबंदी; गोदी मीडिया पर मेहरबानी और राहुल गांधी की सदस्यता रद्द होने पर मीडिया कवरेज। किताब में कई जगह मोदी शासन के तहत हुए व्यापक और कामयाब किसान आंदोलन का भी जिक्र है।

देश को आरएसएस के विचारधारात्मक प्रभावों के चलते फासीवाद की अंधी और अंधेरी गुफा की ओर धकेला जा रहा था तो गैरवामपंथी (गैरदक्षिणपंथी) राजनीति का क्या हस्तक्षेप और भूमिका थी? किताब में इस पर विस्तृत चर्चा है। यहां राहुल गांधी को हस्तक्षेप की राजनीति का प्रथम पुरुष बनाया गया है। सर्वविदित है कि राहुल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सबसे शक्तिशाली (राजनीतिक) अंग भाजपा से सीधे भिड़े हुए हैं। इसीलिए वह निशाने पर हैं।

700 पृष्ठों की किताब में राहुल गांधी को तकरीबन 50 अध्याय हासिल हैं। इन अध्यायों में राहुल गांधी के खिलाफ दुष्प्रचार से लेकर उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का विस्तृत वर्णन है। प्रतिरोध की आवाज बुलंद करते राहुल गांधी के भाषण भी दिए गए हैं। किताब के जरिए दयाशंकर मिश्र राहुल गांधी को लोकतंत्र का नायक मानते हैं और कहते हैं कि उनके कारवां बढ़ता जा रहा है। ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान’ राहुल गांधी का लोकप्रिय मुहावरा है।

आज के दिन राहुल की स्पष्ट लाइन आरएसएस, भाजपा, नरेंद्र मोदी और उनके अडाणी-अंबानी सरीखे पूंजीपति दोस्तों की पुरजोर तार्किक मुखालफत है। यकीनन यह सब वह बखूबी करके समूचे सत्तातंत्र के आगे बहुत बड़ी चुनौती दरपेश कर रहे हैं। दयाशंकर मिश्र को राहुल गांधी इसीलिए समकालीन भारतीय राजनीति में अपरिहार्य लगते हैं। प्रसंगवश, बेशुमार संघ, भाजपा और मोदी विरोधियों को भी लगते हैं।

खैर, सत्ता और व्यवस्था के विरोध में लिखने के लिए कोई पक्ष निर्भीकता से चुनना पड़ता है। दयाशंकर मिश्र ने भी चुना। इस किताब के लिए उन्होंने बेबाकी से कलम चलाई है। उनकी बेबाक कलम साधुवाद की हकदार है। यकीनन किताब ‘राहुल गांधी (सांप्रदायिकता, दुष्प्रचार, तानाशाही से ऐतिहासिक संघर्ष) भाजपा के सत्तातंत्र को कहीं न कहीं हिलाएगी, बेचैन करेगी और डराएगी। अंधकार के इस दौर में ज्यादा से ज्यादा ऐसी किताबें लिखी और पढ़ी जानी चाहिएं।

(समीक्षाकर्ता अमरीक पंजाब में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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