“मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा, लोहे जैसा- तपते देखा- गलते देखा- ढलते देखा, मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा!” यकीन मानिए, मैं जब-जब इस कविता से होकर गुजरा, बार-बार लगता रहा, जैसे प्रिय कवि केदारनाथ अग्रवाल ने, प्रो. चौथीराम यादव के व्यक्तित्व को ठीक-ठीक उकेरने के क्रम में ही यह कविता रची होगी शायद। अब जबकि हमारे समय के प्रख्यात आलोचक, साहित्यकार और सबसे ज्यादा बढ़कर एक जमीनी एक्टिविस्ट, प्रो. चौथीराम यादव, हृदयाघात के चलते हम सबको छोड़कर चले गए, तो अब यह कविता आगे भी उनको व उनके विचारों को याद करने और उनकी तरह होने के लिए प्रेरित करती रहेगी।
चौथीराम के व्यक्तित्व में कुछ पहलू ऐसे थे, जो बराबर चौकाते रहते थे। बढ़ती उम्र के साथ और ज्यादा बढ़ती हुई सक्रियता, ये दोनों बातें आम तौर पर एक साथ देखने को नही मिलती, बल्कि ठीक इसके विपरीत दिशा में बढ़ती हुई दिखती है, यानि बढ़ती उम्र के साथ, घटती सक्रियता एक स्थापित विचार है, जिसे चौथीराम ज़ी बराबर तोड़ते रहे और चरम बौद्धिक व शारीरिक सक्रियता से हम सब को चौंकाते रहते थे। यहां तक कि उम्र के इस पड़ाव में भी, यानि असमय मृत्यु से कुछ घंटे पहले तक भी, अपेक्षाकृत नए माध्यम, सोशल मीडिया पर अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराते रहना भी, चौथीराम ज़ी जैसे हरफनमौला व्यक्तित्व के ही बस का था।
गंभीर बौद्धिक कार्रवाई के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक पहलकदमी की जुगलबंदी भी अब हमारे समय में कम देखने को मिलती है, बौद्धिक दायरे की, सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाइयों से दूरी, और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं का बौद्धिक-सांस्कृतिक पहलकदमियों से परहेज़ करना, आज़ अखिल भारतीय स्तर पर और खासकर उत्तर भारत में आम बात है, चौथीराम ज़ी, बहुतेरे लोगों को हैरत में डालते हुए, इस आम चलन को भी बार तोड़ते और ध्वस्त करते रहे हैं। और दोनों ही मोर्चे पर बराबर सक्रियता बनाए रहे। सोच और समझ की इसी समग्रता के चलते ही चौथीराम जी इस फासिस्ट समय में जब चौतरफ़ा, नकारत्मकता और निराशा का जंगल और घना होता जा रहा है ठीक उसी दौर में वह उम्मीद और आशा से लबालब भरे हुए थे।
वैचारिक मोर्चे पर भी चौथीराम ज़ी बेहद स्पष्ट थे और अपने समय के केंद्रीय प्रश्नों को कभी आंखों से ओझल नहीं होने देते थे। आज जब सत्ता, 1200 वर्षो की गुलामी की बात कर पूरे मध्यकाल को निशाने पर लिए हुए है, और पूरे प्राचीन काल को हिंदू काल के बतौर प्रचारित कर रहा है, ठीक उसी समय चौथीराम ज़ी नाथो-सिद्धो व बुद्ध परम्परा से लेकर मध्यकालीन कबीर और रैदास की ताकतवर भारतीय परम्परा को मजबूती से सामने लेकर आते रहे। और उनका लोक, वैदिक व सनातन हमले के खिलाफ, चट्टान की तरह हरदम खड़ा मिला।
चौथीराम ज़ी, शिद्दत से वर्तमान फासिस्ट सत्ता को जाते हुए देखना चाहते थे,और इस बदलाव की मुहिम में मूक दर्शक नही बल्कि संघर्षरत योद्धा थे। और इस लिए बदलाव की जितनी भी राजनीतिक-सामाजिक धाराएं हैं, उन्हें अपने समय से मुठभेड़ करते हुए,एक साथ देखना चाहते थे।
ऐसी सभी धाराओं के साथ, व्यवहारिक और सैद्धांतिक धरातल पर व्यापक व गहरा रिश्ता, उन्होंने कायम कर रखा था, जो आज हमारे समय का केंद्रीय काम है, जिसे बहुतेरे लोग व संगठन, सही दिशा और आज़ की जरूरत मानते हुए भी अपनी तमाम किस्म की संकिर्णताओं के चलते नही कर पा रहे हैं। आज हमारे बीच ना के बराबर ऐसे शख्सियत मौजूद हैं ,जो बहुजन और वाम दोनों धाराओं के साथ गहरे संवाद में हो, जिनकी लोकप्रियता दोनों जगह बराबर की हो। और जो दोनों धाराओं की सकारात्मकता के साथ एकता और कमजोरियों के विरुद्ध संघर्ष को फक़त इस लिए चलाए जा रहे थे, ताकि वैचारिक-राजनीतिक एकता के कैनवास को व्यापक और बड़ा बनाया जा सके, गुणात्मक छलांग लगाया जा सके और इस फासिस्ट दौर को मुकम्मल तौर पर पीछे ढकेला जा सके।
अब जब कि प्रो. चौथीराम ज़ी हम सब को छोड़ कर बहुत दूर चले गए है, उन्हें अनगिनत लोग अपने-अपने तरीके से याद कर रहे हैं, उन्हें न केवल लोकधर्मी आलोचक, वरिष्ठ अध्यापक, सड़क पर संघर्षरत योद्धा, सुंदर, संवेदनशील मनुष्य बताया जा रहा है, बल्कि उनकी प्रतिबद्धता, वैचारिक स्पष्टता, ढृढ़ता और चरम सक्रियता को आहत हृदय से बड़े पैमाने पर याद किया जा रहा है, हालांकि हकीकत तो यही है कि इन सभी पहलुओं को मिला कर ही चौथी राम यादव जैसा मुकम्मल व्यक्तित्व बनता है, और निश्चित तौर पर आने वाले समय में भी ऐसे सभी जीवन मुल्यों को हासिल करने के लिए संघर्षरत हर आमो-खास आदमी के लिए प्रो. चौथीराम यादव प्रेरणास्रोत बने रहेंगे, बार-बार याद आते रहेंगे।
(मनीष शर्मा, संयोजक- कम्युनिस्ट फ्रंट)