उत्तर प्रदेश में पिछले साल हुए बिजली कर्मियों के दमन का बड़ा नुकसान भारतीय जनता पार्टी को उठाना पड़ा है। राबर्ट्सगंज संसदीय क्षेत्र प्रदेश का प्रमुख औद्योगिक केंद्र है। यहां की ओबरा विधानसभा मजदूर बाहुल्य है। इसमें उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम के अनपरा में 2630 मेगावाट व ओबरा का 1100 मेगावाट के तापीय विद्युत उत्पादन गृह और रिहंद जलाशय पर बना 360 मेगावाट का जल विद्युत उत्पादन गृह है। इस लोकसभा चुनाव में ओबरा एवं अनपरा तापीय परियोजना के इंजीनियरों, कर्मचारियों और ठेका मजदूरों के बूथों पर मिले मतों को यदि देखा जाए तो इस मेहनतकश वर्ग ने भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी के रूप में चुनाव में उतरे अपना दल को खारिज किया है।
ओबरा तापीय परियोजना के कर्मचारी बाहुल्य बूथ संख्या 48, 49, 50, 51, 52, 53, 54, 55, 61 में समाजवादी पार्टी प्रत्याशी को 151, 173, 143, 179, 102, 124, 122, 200, 107, 101 और एनडीए प्रत्याशी को 80, 107, 106, 83, 76, 77, 67, 125, 79, 56 वोट मिले। इसी प्रकार दूसरे औद्योगिक केंद्र अनपरा तापीय परियोजना के कर्मचारी बाहुल्य बूथ संख्या 207, 208, 209, 210, 212 में सपा 76, 125, 109, 133, 104 और एनडीए को 76, 61, 51, 67, 68 वोट मिले। कुल मिलाकर मजदूर बाहुल्य ओबरा विधानसभा में एनडीए प्रत्याशी 4660 वोटों से पीछे रहीं। जबकि ओबरा विधानसभा में भाजपा का बड़ा जनाधार रहा है। वह लोकसभा चुनाव में इस विधानसभा में लगातार जीतती रही है और दो बार से विधानसभा भी जीत रही है। यही नहीं यहां के विधायक योगी सरकार में समाज कल्याण राज्य मंत्री भी हैं।
वोटों का यह पैटर्न साफ तौर पर दिखाता है कि बिजली कर्मचारी मोदी-योगी सरकार से बेहद नाराज़ हैं। दरअसल बिजली के निजीकरण और उत्तर प्रदेश के बिजली विभाग में कॉरपोरेट कल्चर थोपकर हो रहे उत्पीड़न के खिलाफ 16 मार्च 2023 की रात से बिजली कर्मचारी सांकेतिक तीन दिवसीय कार्य बहिष्कार पर चले गए थे। इस कार्य बहिष्कार का तात्कालिक कारण यह था कि इससे पहले नवंबर 2022 में बिजली कर्मचारियों ने अपनी सर्विस कंडीशन बेहतर करने, बिजली विभाग में हो रहे बेइंतहा उत्पीड़न पर रोक लगाने, बिजली के निजीकरण के प्रयासों और विद्युत संशोधन विधेयक 2022 को रद्द करने जैसे सवालों पर कार्य बहिष्कार किया था।
इस आंदोलन में 3 दिसंबर 2022 को प्रदेश के ऊर्जा मंत्री ए. के. शर्मा के साथ कर्मचारी संगठनों का लिखित समझौता हुआ था और इस समझौते को 15 दिनों में लागू करने की बात हुई थी। लेकिन इस समझौते को लागू करने की कौन कहे प्रदेश में बिजली कर्मचारियों का उत्पीड़न बदस्तूर जारी रहा। इस समझौते को लागू कराने के लिए जनवरी-फरवरी दो माह तक लगातार धरना-प्रदर्शन, आम सभाएं आदि करके सरकार का ध्यान विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति ने आकृष्ट कराया। लगातार इस सवाल पर वार्ता करने के अनुरोध के बावजूद ऊर्जा मंत्री समेत नौकरशाही के किसी भी अधिकारी ने वार्ता करने से इनकार कर दिया। मजबूरन कर्मचारियों को 16 मार्च से कार्य बहिष्कार पर जाना पड़ा।
गौरतलब है कि इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय भी स्वतः संज्ञान लेकर जनहित याचिका के रूप में सुनवाई कर रहा था। हाईकोर्ट ने कहा कि हड़ताल को तत्काल समाप्त कराया जाए। इसके बाद 18 मार्च को ऊर्जा मंत्री की मौजूदगी में बिजली कर्मचारियों के प्रतिनिधियों के बीच वार्ता हुई और 19 मार्च की सुबह कार्य बहिष्कार को वापस ले लिया गया। ऊर्जा मंत्री ने खुद मीडिया के सामने यह बात कही कि इस कार्य बहिष्कार के कारण किसी भी कर्मचारी का उत्पीड़न नहीं किया जाएगा और सौहार्दपूर्ण वातावरण में पूर्व की भांति कार्य संचालित किया जाएगा।
बावजूद इसके संविदा पर रखे गए करीब 3200 मजदूरों को काम से बर्खास्त कर दिया गया। सैकड़ों की संख्या में इंजीनियर, कर्मचारियों और अधिकारियों को निलंबित किया गया। उनके हड़ताल अवधि का वेतन व पेंशन काट लिया गया। निलंबन के बाद सभी का दूसरी जगह स्थानांतरण कर दिया गया और कर्मचारी नेताओं पर राज्य मुख्यालय से लेकर जिलों में एस्मा में एफआईआर दर्ज की गई। अनपरा और ओबरा के भी जो नेता थे वह सब इस दमन का शिकार हुए। आज भी हालत यह है कि सर्विस नियमावली में निलम्बन को 6 माह से ज्यादा न रखने के स्पष्ट प्रावधान के बावजूद 1 साल से ज्यादा समय होने बाद भी बहुतेरे लोगों का निलंबन वापस नहीं लिया गया।
वास्तव में उत्तर प्रदेश में डंडे का लोकतंत्र चल रहा है। असहमति की सभी आवाजों का दमन और उत्पीड़न किया जा रहा है। सब लोग जानते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 19 में भारत के हर नागरिक को संघ या यूनियन बनाने का अधिकार दिया गया है। इसी अधिकार के आधार पर ट्रेड यूनियनों का पंजीकरण होता है। ट्रेड यूनियनें सरकार व प्रबंधन और मजदूरों के बीच में एक सेफ्टी वाल्व का काम करती हैं। पूंजीवादी लोकतंत्र में सरकार की नीतियों और कार्रवाइयों से मजदूरों के बीच में जो गुस्सा पैदा होता रहा है उसे ट्रेड यूनियनें मांगों के रूप में सरकार और प्रबंध तंत्र के सामने पेश करके उसे हल कराने का प्रयास करती रही हैं।
नई आर्थिक-औद्योगिक नीतियां लागू होने के बाद जिस तरह से राज्य पर पूंजी का नियंत्रण स्थापित होता गया। उसने ट्रेड यूनियन की अर्थवादी भूमिका को समाप्त कर दिया और बारगेनिंग कैपेसिटी को बेहद क्षीण कर दिया है। मजदूरों के ज्यादातर आंदोलनों को बर्बर दमन करके खत्म कर दिया जाता है या उनकी अनदेखी की जाती है। आमतौर पर कल्याणकारी राज्य के दौर में मजदूरों को मिले अधिकारों को खत्म करने में सभी सरकारें लगी रही हैं।
मोदी सरकार ने तो एक कदम आगे बढ़कर 29 लेबर कानूनों को खत्म करके 4 लेबर कोड लाने का काम किया। जिसमें काम के घंटे 12 करने, न्यूनतम मजदूरी से भी कम फ्लोर लेवल मजदूरी का प्रावधान करने, ठेका मजदूरों के नियमितीकरण और समान काम के समान वेतन के अधिकार को खत्म करने और मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के प्रावधानों को समाप्त करने का काम किया है। सरकार में पुनः आने के बाद मोदी सरकार ने इन लेबर कोड को लागू करने की बात की है।
जहां तक बात उत्तर प्रदेश के बिजली उद्योग की है, वहां हालात बेहद खराब हैं। प्रदेश जबर्दस्त बिजली संकट से गुजर रहा है। भीषण गर्मी के इस मौसम में लोगों को बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है और बिजली की डिमांड 30000 मेगावाट से ज्यादा रह रही है। अमर उजाला की 18 जून की रिपोर्ट के अनुसार राज्य विद्युत उत्पादन निगम की अनपरा तापीय परियोजना से 2074 मेगावाट, ओबरा से 1033 मेगावाट, हरदुआगंज से 966 मेगावाट, पारीक्षा से 591 मेगावाट, जवाहरपुर से 255 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है।
निगम को बिजली शेयर करने वाली लैंको कोंडपल्ली अनपरा से 1101 मेगावाट, बजाज एनर्जी से 406 मेगावाट, बारा की पीपीजीसीएल से 1716 मेगावाट, ललितपुर से 1842 मेगावाट, मेजा से 1201 मेगावाट, रोजा से 1084 मेगावाट, टांडा से 297 मेगावाट कुल 12566 मेगावाट बिजली की सप्लाई सरकार को हो रही है। इसके अलावा केन्द्रीय पूल से बिजली मिलती है और बेहद महंगी दरों पर बिजली अंबानी जैसे बड़े कॉर्पोरेट घरानों से खरीदी जा रही है। उत्तर प्रदेश में तो उलटा अर्थशास्त्र चलता है। यहां सबसे सस्ती बिजली बनाने वाले अनपरा जैसे उत्पादन गृहों में थर्मल बैकिंग यानी बिजली उत्पादन को रोक दिया जाता है। इन नीतियों से लगातार बिजली की लागत पर खर्च बढ़ता जा रहा है और विद्युत विभाग को घाटे का सामना करना पड़ रहा है।
दरअसल पावर कारपोरेशन की हालत यह है कि गर्मी में होने वाली बिजली की अत्यधिक डिमांड के अनुसार जनवरी और फरवरी माह में जो मेंटेनेंस कार्य करना होता है उसके लिए पर्याप्त पैसे की व्यवस्था नहीं की जा रही है। विद्युत वितरण के कार्य को संपादित करने के लिए जितने कर्मचारियों और अभियंताओं की जरूरत है उसके अनुरूप भर्ती नहीं हो रही है। हर साल अधियाचन मंगाने की घोषणा करने वाली सरकार में बिजली विभाग में हजारों पद खाली पड़े हुए हैं। इससे मौजूदा इंजीनियरों से लेकर कर्मचारियों के ऊपर अत्यधिक वर्कलोड है। आमतौर पर संविदा श्रमिकों के बलबूते बिजली सब स्टेशंस और मेंटेनेंस कार्य को कराया जाता है। इन मजदूरों की भी आए दिन दुर्घटना में मौतें होती रहती हैं।
अनपरा और ओबरा तापीय परियोजना में तो ठेका मजदूरों की और भी बुरी हालत है। सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी का भी यहां भुगतान नहीं किया जाता है। 7-8 हजार के बेहद कम वेतन पर एक ही जगह यह मजदूर पूरी जिंदगी काम करते हैं। इनको नियमित करने की कोई योजना सरकार के पास नहीं है। हाईकोर्ट के आदेश और कारखाना अधिनियम के स्पष्ट नियमों के बावजूद मजदूरों को सेफ्टी उपकरण तक नहीं दिए जाते। अबकि बार तो सरकार ने यहां चलने वाले ठेकों के कई कामों को खत्म करके बड़ी कम्पनियों को दे दिया है। जिससे ठेका मजदूरों की छटंनी हो रही है। एक ही उदाहरण से स्थिति की गम्भीरता को समझा जा सकता है अनपरा तापीय परियोजना में कोयले की क्वालिटी चेकअप की महत्त्वपूर्ण व्यवस्था समाप्त कर इसमें लगे मजदूरों को काम से निकाल दिया गया। इससे मजदूरों के साथ परियोजना पर भी खतरा पैदा हो गया है।
यह भी गौर करने वाली बात है कि मोदी सरकार विद्युत (संशोधन) विधेयक को पारित कराने पर आमादा है। इस विधेयक के पारित होने के बाद सब्सिडी और क्रास सब्सिडी की जो व्यवस्था अभी चल रही है। जिसमें भारी उद्योगों और वाणिज्यिक संस्थानों को महंगी बिजली देकर उससे प्राप्त आमदनी से कृषि, एमएसएमई और कम बिजली उपभोग करने वाले उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली दी जा रही है, वह खत्म हो जायेगी। इसके पारित होने के बाद 7.5 हार्स पॉवर के सिंचाई कनेक्शन के लिए किसानों को 10000 रूपए प्रति माह देने पड़ेंगे। इससे पहले से ही संकट का शिकार कृषि क्षेत्र में किसानों की लागत में अभूतपूर्व इजाफा होगा। यही नहीं इसमें निजी वितरक, वितरण के बुनियादी ढांचे में निवेश करने को बाध्य नहीं है।
इसके विपरीत राज्य बिजली सुविधाओं के अपने बुनियादी ढांचे को निजी कम्पनियों को उपलब्ध कराने के लिए मजबूर हैं। यहां तक कि निजी निवेशकों को ब्रेक डाउन के लिए मुआवजा पाने का अधिकार है। केन्द्र सरकार ने इस संशोधन विधेयक के लागू होने के पहले ही बिजली क्षेत्र में बुनियादी बदलाव करना शुरू कर दिया है। अडानी और टाटा को फायदा पहुंचाने के लिए प्रीपेड स्मार्ट मीटर योजना शुरू कर दी है। जिसमें कृषि और गैर कृषि लाइनों को अलग करना, उनका विभाजन करना और क्रास सब्सिडी को खत्म करना शामिल है। इससे बड़े पैमाने पर नौकरियां खत्म होंगी और आम उपभोक्ता को इस मीटर को लगाने के लिए 8000 से 12000 रुपए खर्च करना होगा।
मोदी सरकार ने 14 जून 2023 को विद्युत (उपभोक्ताओं के अधिकार) नियमों को संशोधित कर दिया है। अब सभी उपभोक्ता स्मार्ट मीटर तत्काल लगाने के तुरंत बाद टाइम आफ डे (टीओपी) टैरिफ में परिवर्तित हो जायेंगे। इसका मतलब है कि शाम और रात में बिजली की दरें अधिक होगी। कुल मिलाकर कहा जाए कि इस संशोधन विधेयक से बिजली क्षेत्र का निजीकरण होगा और आम आदमी को बेहद महंगी दरों पर बिजली खरीदने पर मजबूर होना पड़ेगा, गरीबों के लिए तो बिजली जैसी बुनियादी सुविधा पाना ही मुश्किल हो जायेगा।
स्वभावतः इन परिस्थितियों में इंजीनियरों, कर्मचारियों से लेकर ठेका मजदूरों में गहरा आक्रोश है। जिसका प्रतिबिम्बन इस चुनाव में हुआ है और अपने वोट से बिजली कर्मियों ने अपने ऊपर हुए दमन का प्रतिवाद किया है। इससे सबक लेकर उत्पीड़नात्मक कार्रवाईयों से पीछे हटने की जगह सरकार कर्मचारियों से अभिव्यक्ति की आजादी के न्यूनतम लोकतांत्रिक अधिकार को छीनने में लगी है। पूरे प्रदेश में एस्मा तो लगातार लगा ही रहता है कल ही उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी शासनादेश निकाल दिया है कि सरकार का कोई भी कर्मचारी प्रेस, मीडिया और सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर बिना अनुमति के कुछ नहीं कहेगा। साफ है कि दमन और मजदूर विरोधी नीतियों को लागू करने के रास्ते से पीछे हटने को भाजपा सरकार तैयार नहीं है इसलिए मजदूरों, कर्मचारियों को एक बड़े राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए अपने को तैयार करना होगा।
(दिनकर कपूर ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के प्रदेश महासचिव हैं)
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