ग्राउंड रिपोर्ट: मिर्ज़ापुर के कछवां में बंद हुए कारखाने, आधुनिकता ने छीनी रोजी-रोटी तो जनप्रतिनिधियों ने भी नहीं ली सुध

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मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश। 80/90 का दशक उत्तर प्रदेश में कल कारखानों के लिए स्वर्णिम काल रहा है। इसके बाद मानो इसपर ग्रहण लगता गया। लालफीताशाही और सरकार, जनप्रतिनिधियों की अकर्मण्यता ने मानों कल कारखानों से लेकर ग्रामीण कुटीर उद्योग की रीढ़ तोड़नी शुरू कर दी।

आधुनिकता का प्रभाव ऐसा पड़ा की इनकी बची-खुची कमर भी टूट कर ढांचा बनकर रह गई। जिसका सीधा सा असर कारोबारियों से लगाए उन सैकड़ों हाथों और परिवारों पर पड़ा है, जिनकी रोजी-रोटी से लेकर घर गृहस्थी का संपूर्ण भरण-पोषण इससे चलता रहा है।

एक-एक कर बंद होते गए कछवां के कारखानों ने मजदूरों के अरमानों को कुचलकर रख दिया। कुछ महानगरों की ओर पलायन कर गए, तो की ऐसे भी बचें हैं, जो बेरोजगार होकर गांव घर में ही जैसे-तैसे मेहनत मजदूरी कर पेट पाल रहे हैं। 

कछवां के रहने वाले मनीष यादव उस दौर को याद करते हुए ‘जनचौक’ को बताते हैं कि, “कछवां में जब कोल्हू कारखानों का दौर था तो बाजार में खूब चहल-पहल होने के साथ-साथ तीन-चार हजार लोगों को इन कारखानों से रोजगार भी मिल रहा था।

कछवां कस्बे का अपना एक अलग ही नाम और रसूख हुआ करता था। चूंकि कछवां बाजार मिर्ज़ापुर-वाराणसी के मध्य में है गंगा नदी से लगा हुआ यह इलाका ऐतिहासिक चुनार नगरी से भी लगा हुआ है। ऐसे में इसकी महत्ता अपने आप में ही बढ़ जाती है।

वह बताते हैं कि यदि इस पर सांसद विधायक से लेकर सरकारों ने भी ध्यान दिया होता तो यह। कारोबार आज जरूर जीवित रहता।”

उत्तर प्रदेश का मिर्ज़ापुर जनपद अपने ऐतिहासिक, पौराणिक, धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य रमणीय स्थलों के लिए ही सरनाम नहीं रहा है, बल्कि यहां के गुलाबी पत्थर (खनन उद्योग), पीतल के बर्तन का कारोबार, कालीन, पाटरी कारोबार से लेकर कछवां बाजार का कोल्हू (गन्ना पेरने की मसीन), थ्रेसर, चारा मशीन बनाने का कारखाना भी सुविख्यात रहा है।

कालांतर में कछवां का कोल्हू कारखाना दम तोड़ चुका है, इससे जुड़े हुए हजारों हाथ बेरोजगार हो चुके हैं तो इसका बाजार भी बेजार हो उठा है।

उम्मीदवारों के एजेंडे से बाहर है कछवां का कोल्हू कारोबार

कभी एक बड़ा बाजार कहें जाने वाले कछवां मार्केट की पहचान वाराणसी और मिर्ज़ापुर के बाजारों से की जाती थी। खूब चहल-पहल रौनक भी हुआ करती थी।

मौजूदा समय में तकरीबन 12 हजार की आबादी वाले कछवां मार्केट की निर्भरता आज वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर की मंडियों पर बनी हुई है।

टाऊन एरिया (नगर पंचायत) का तमगा हासिल किया कछवां में इन दिनों चुनाव शोर-जोरों पर है। सभी एक दूसरे दलों की समीक्षा करते हुए। 

जीत हार की कयासबाजी में तल्लीन हैं। कस्बे के चट्टी चौराहे से लेकर चाय-पान की दुकानों पर बहस छिड़ी हुई है जीत हार को लेकर, इस क्षेत्र से चुने गए अब तक के जनप्रतिनिधियों के कामकाज की, उनकी सरकार की योजनाओं की, इन बहस बाजियों में कछवां के बंद पड़े कोल्हू कारखानों की कोई चर्चा नहीं है।

यहां तक की मझवां विधानसभा उप चुनाव में उतरे उम्मीदवारों के एजेंडे में भी यह शामिल नहीं है। और ना ही वह इसकी चर्चा करना चाहते हैं। वर्तमान में कछवां का कोल्हू कारोबार ठप्प पड़ा हुआ है, रही सही कसर और पहचान भी समाप्त होने के कगार पर है। 

इलाके के शरद चन्द्र दुबे कछवां के कारखानों की चर्चा छिड़ने पर यहां की उपेक्षा, पिछड़ेपन की चर्चा करते हुए जनप्रतिनिधियों पर बिफर पड़ते हैं कहते हैं, “हमारे यहां के नेता मुद्दों, रोजगार की बात ही नहीं करते हैं कि यहां के लोगों की रोजी-रोटी कैसे चलेगी, उनके बच्चे कैसे पढ़ें लिखेंगे, वह सिर्फ अपनी बात, अपने फायदे, राजनीति की बात करते हैं।

मंदिर मस्जिद, धर्म राजनीति की बात करते हैं, लोगों की भावनाओं को भड़का कर अपने फायदे की बात करते हैं। उनकी रोजी-रोटी चलती रहे, हमारी (जनता की) रोजी-रोटी कैसे चलेगी, इससे भला उन्हें क्या लेना-देना हो सकता है?”

मझवां विधानसभा उप चुनाव की ग्राउंड रिपोर्टिंग करने निकली ‘जनचौक’ की टीम कछवां क्रिश्चियन अस्पताल तिराहे से होते हुए यादव जी के मशहूर चाय की दुकान पर पहुंचती है।

जहां मलाईदार कुल्हड़ वाली चाय की चुस्कियों के बीच कछवां के कोल्हू कारखानों के बारे में पूछे जाने पर मनीष यादव कहते हैं, “वह तो कब का बंद हो चुका है भाई साहब, इसके बारे में तों आपको उन जनप्रतिनिधियों से पूछना चाहिए जो यहां से चुनाव जीतने के बाद पलटकर इधर झांकना भी नहीं चाहते हैं।

भूल से कभी इधर दिखाई भी दे गए तो शीशा बंद गाड़ी से ही झांक कर चले जाते हैं। कभी आना भी हुआ है तो अपने चहेतों के यहां बाकी लोगों से उन्हें क्या लेना-देना?” 

मनीष के शब्द भले ही व्यंग्य और कचोटते, चुभने वाले लगते हैं, लेकिन उनके शब्दों में कटु सच्चाई छुपी हुई नज़र आती है। वह खरी-खरी बोलकर चंद लफ़्ज़ों में ही पूरी दास्तां बयां कर देते हैं।

कभी छ: कारखानों की थी धमक, आज निकल चुके हैं दम

गौरतलब हो कि कछवां बाजार में चारा मशीन, थ्रेसर, कोल्हू मशीन बना करता था। 1997-98 का दौर बेहतर रहा तब छ: कारखाने चारा मशीन, थ्रेसर, कोल्हू मशीन के हुआ करते थे।

पंजाब के लुधियाना जैसे बड़े शहरों की भांति यहां भी चारा मशीन, थ्रेसर, कोल्हू मशीन के कारखाने हुआ करते थे, सैकड़ों हाथों को रोजगार मिला करता था।

आस-पास के गांवों के अलावा मिर्ज़ापुर, भदोही, वाराणसी के भी लोग इन कारखानों से जुड़े हुए थे। कोल्हू कारखानों के अलावा दो कोल्ड स्टोरेज थे, वर्तमान में मात्र एक कारखाना चल रहा है, वह भी ऐसे तैसे। इसके पीछे आधुनिकता को सबसे बड़ी वज़ह बताया जाता है।

तो वहीं इन कारखानों से जुड़े हुए मज़दूर इसके लिए नौकरशाही, शासन सरकार और सांसद विधायकों की अनदेखी को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं कि यदि थोड़ा भी इस ओर ध्यान दिया गया होता तो यह कारोबार आज जीवित होता, इससे जुड़े हुए लोगों को भी अन्यत्र पलायन न करना होता।

बृजेश कुमार गुप्ता, कछवां मार्केट के रहने वाले हैं, वह कोल्हू कारखानों के बारे में जानकारी देते हुए बताते हैं, कि “1942 के आस-पास में उनके दादा जी से इसका शुभारंभ हुआ था। तीसरी पीढ़ी के हम लोग हैं आज सोचना पड़ रहा है कि कैसे घर परिवार चलेगा। कल वाहनों की कतार लगती थी, सैकड़ों मजदूरों को रोजगार मिलता था।

ब्रजेश कुमार गुप्ता, व्यापारी

काम इतना होता था कि एक पल के लिए फुर्सत नहीं मिलती थी। आज मूलभूत आवश्यकताओं के लिए वाराणसी जाना पड़ता है। परेशानियां बढ़ गई है। सरकार भी ध्यान हम लोगों पर नहीं देती है।” 

छ: में से पांच कारखाना बंद हो गया है। सैकड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिन गई है। एक मिल में तकरीबन चार सौ श्रमिक काम करते थे, इससे न केवल उनकी रोजी-रोटी चल रही थी, बल्कि मिल मालिकों का भी घर-परिवार बखूबी चल रहा था।

अब एक मात्र बची हुई मिल भी अंतिम सांसें गिन रही है। कारखानों के बंद हो जाने से बेरोजगार हुए आस-पास के लोगों को दूर महानगरों की ओर पलायन करना पड़ा है। 

लोग बताते हैं कि पहले कछवां कस्बे में श्री जीपी इंजीनियरिंग वर्क्स प्राइवेट लिमिटेड, एमआर इंड्रस्ट्रीज, डीआर इंड्रस्ट्रीज, श्री ठाकुर कृषि उघोग, चर्तुभुजा प्रसाद इंड्रस्ट्रीज, श्री ठाकुर जी इंजीनियरिंग वर्क्स प्राइवेट लिमिटेड नाम से कारखानों की धूम रही है जो 1999 से 2000 आते-आते एक-एक कर के बंद होते गए। 

अब यही कारखाना जैसे-तैसे जिंदा है

मौजूदा समय में श्री ठाकुर जी इंजीनियरिंग वर्क्स प्राइवेट लिमिटेड कछवां चालू हालत में दिखाई तो देती है, लेकिन यह भी उतना नहीं चलती जितना की पहले इसकी पहचान बनी हुई थी। कारखाने से जुड़े हुए श्रमिकों की माने तो किसी प्रकार अपना खर्च निकाल पा रहे हैं, कारखानों को मौजूदा समय में चलाना काफी कठिन हो चला है।

रामलोचन, कारखाना मजदूर

सरावां गांव निवासी रामलोचन मौर्य बताते हैं कि “उनका गांव कछवां बाजार से तकरीबन दो किमी दूरी पर है, वह घर रोज कोल्हू कारखाने में काम करने आया करते थे, कारखाना क्या बंद हुआ मानो उनकी रोजी-रोटी चली गई।

कोई काम नहीं है, बचपन से ही वह इस कारखाने से जुड़े हुए थे।”

वह बताते हैं कि कोल्हू चारा मशीन से जुड़ा हुआ पूरा पार्ट यहीं बनता था केवल मशीन को फिनिशिंग देने के लिए ‘पीग आयरा’ और कोयला, गिट्टा कोलकाता से आता था। 

इंगल और पत्ती, गाडर दुर्गापुर (छत्तीसगढ़) से आता था बाद में लंबा खर्चा देखते हुए खुद यहां रोलिंग मिल स्थापित हुआ। पहले प्रोडक्शन को देखते हुए ‘कोटा’ हुआ करता था। सरकार की ओर से लोहा मिल जाया करता था, बाद में इसे भी बंद कर दिया गया। जिसका बुरा असर पड़ा। 

कोई सब्सिडी सहयोग नहीं मिला जिससे यह कारखाना एक-एक करके दम तोड़ते गए। 1990-95 तक यहां का यह उघोग अपने स्वर्णिम काल में था। मझवां विधानसभा क्षेत्र से प्रतिनिधित्व करने वाले तत्कालीन विधायक एवं पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय पंडित कमलापति त्रिपाठी के पुत्र 

लोकपति त्रिपाठी के दौर में कछवां के कोल्हू चारा कारखानों की जीवित रखने के लिए बिजली की अबाध सहूलियत दी गई थी, लेकिन उनके हटते ही फाईल ही गुम कर दी गई, फाइल पेंडिंग में डाल दिया गया। नौकरशाही कमीशनखोरी के गठजोड़ ने पूरी फाइल ही दबा दी।

संजय दुबे, इलाकाई किसान

बिजली के पोल आ गए थे, बिजली का तार खींचा जाना था लेकिन आज तक इस पर कोई रुचि नहीं दिखाई दी। सूबे में शासन सत्ता बदलते ही इन कारखानों पर घुप्प अंधेरा छा गया।

लोग बताते हैं बाद के दौर में कछवां मार्केट से लेकर कछवां रोड पर लूट-छिनैती की बढ़ती घटनाओं ने भी असुरक्षा के साथ कारोबारियों का मनोबल तोड़ कर रख दिया।

गन्ना खेती के घटते रकबे ने भी डाला असर

गन्ने की मिठास और कोल्हू से पेर कर निकलने वाले गन्ने के मीठे रस का भला किसे स्वाद नहीं पता होगा। कालांतर में गन्ने का रस सपना होता जा रहा है। कहीं न कहीं से इसका भी असर कोल्हू कारखानों पर पड़ा है।

शरद चन्द्र दुबे बताते हैं कि पड़ोसी जिले के बंद पड़े औराई चीनी मिल को चालू करने के लिए योगी जी जब मुख्यमंत्री नहीं बने थे तो भदोही जिले के उगापुर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था चीनी मिल को चालू कराएंगे।

वह औराई भाजपा विधायक दीनानाथ भास्कर के लिए चुनाव प्रचार करने आए थे। उनकी इस घोषणा को एक लंबा अर्सा बीत चुका है। वह उत्तर प्रदेश के दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हुए हैं लेकिन उन्हें अपनी घोषणा याद नहीं है, ना ही कोई उन्हें यह याद दिलाने वाला है।”

चीनी मिल बंद होने से गन्ना खेती पर भी असर पड़ा है, तो कोल्हू का कारोबार भी प्रभावित हुआ है।

इस कारोबार से जुड़े हुए लोग बताते हैं कि “मिर्ज़ापुर के कछवां मार्केट को छोड़कर अब वाराणसी के जगतपुर, चांदपुर इंडस्ट्रियल एरिया में भी बहुत से कारखाने खुल गए हैं।

लुधियाना (पंजाब) के बाद कानपुर, जौनपुर, प्रयागराज में भी कोल्हू, चारा मशीन, थ्रेसर के कारखानों के खुल जाने से दाम, क्वालिटी से लगाए मेहनत-मजदूरी इत्यादि पर आने वाले खर्चों पर इसका व्यापक असर पड़ा है।

वहीं तकनीकी बदलाव भी कारण बना है। नई तकनीक की मशीनें आने लगी। ऐसे में लोगों का भी मोहभंग होता गया। प्रतियोगिता का जमाना है। 

काफी बदलाव हुआ है। आधुनिकता की मार पड़ी है, रही सही कसर आधुनिकता ने पूरी कर इसकी कमर तोड़कर रख दी, आज हालात यह है कि इस कारोबार और इन कारखानों के बारे में कोई कुछ बोलना नहीं चाहता है। 

(कछवां, मिर्ज़ापुर से संतोष देव गिरी के साथ सुधीर सिंह ‘राजपूत’ की ग्राउंड रिपोर्ट)

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