अप्रैल में लू, मई में धूल भरी आंधी और मानसून का आगमन: मौसम बदल रहा है

इस बार दिल्ली में सर्दी का जो मौसम बीता, वह औसत से काफी कम बारिश के साथ गुजरा। अप्रैल का महीना आते-आते मौसम विभाग ने लू की चेतावनी जारी की। इस महीने में दो बार लू का प्रकोप देखा गया। मई का महीना आंधी और बारिश के साथ शुरू हुआ। 12 मई तक आते-आते आर्द्रता बढ़ती हुई दिखाई दी और गर्मी का ताप कम होने के बावजूद उसका अहसास बढ़ गया।

इसी बीच, मौसम विभाग ने एक दर्जन राज्यों में धूल भरी आंधी, बारिश और बिजली चमकने की घोषणा की। 14 और 15 मई को दिल्ली-एनसीआर की हवा जहरीली हो गई। लोगों को मास्क लगाकर रहने और अति आवश्यक न होने पर घर से बाहर न निकलने की सलाह दी गई। यह एक ऐसा निर्देश है, जो शहरी जीवन के साथ मेल नहीं खाता।

इसी सप्ताह मौसम विभाग से एक और खबर आई। यह मानसून के समय से लगभग एक सप्ताह पहले आने की घोषणा थी। युद्ध और उसके बाद बने माहौल में मौसम के बदलते स्वरूप की बात कौन सुनता है? लेकिन पश्चिम से उठने वाली गर्म हवाएँ, रेत और धूल के बवंडर सीमाएँ कहाँ मानते हैं? वे तो सुदूर पश्चिम से उठकर गुजरात से लेकर दिल्ली और पंजाब तक छा जाएँगी और सूरज की चमकती रोशनी को धुंधला कर देंगी।

इसी तरह, प्रशांत महासागर की गर्म हवाओं का असर हिंद महासागर से उठने वाले मानसून पर पड़ेगा, तब ये भारत के मैदानों का सफर करते हुए हिमालय की ओर बढ़ेंगी। इनका असर पूरे हिंद प्रायद्वीप पर पड़ेगा और नदियाँ, जिनके पानी पर इतनी राजनीति होती है, उसे तोड़ते हुए बह निकलेंगी। आगामी महीनों में नदियों की राजनीति कुछ और ही रूप में सामने आएगी।

मौसम विभाग के अनुसार, बंगाल की खाड़ी से उठने वाला मानसून इसके निचले द्वीपों में 13 मई से ही सक्रिय होता दिख रहा है। अरब सागर के दक्षिणी हिस्से में भी हलचल देखी जा रही है। केरल में मानसून आमतौर पर 1 जून को पहुँचता है, जो अब उम्मीद है कि 27 मई तक पहुँच जाएगा। सवाल यह है कि मौसम को यह कैसी हड़बड़ी हो गई है, जो समय से पहले गर्मी, धूल भरी आंधियों और बारिश की स्थिति पैदा कर रही है।

मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार, दुनिया के मौसम को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली समुद्री हवाएँ प्रशांत महासागर से उत्पन्न होती हैं। दुनिया पूंजीवाद की लालसा और अंध-राष्ट्रवाद की सनक में डूबी हुई है, जिसका सीधा परिणाम धरती का सामान्य से अधिक गर्म होना और शहरों में गर्म-द्वीपों का निर्माण है। इसमें प्रशांत महासागर की हलचलें, जिन्हें ला नीना और अल नीनो के नाम से जाना जाता है, तापमान को बढ़ाने के साथ-साथ गर्म आंधियों, बर्फीले तूफानों आदि को जन्म देती हैं।

ये दुनिया के एक बड़े हिस्से में सूखा, बाढ़ और उजाड़ पैदा करती हैं। धरती की सामान्य गतिविधियों में पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने जो योगदान दिया है, जिसे क्लासिकी भाषा में औद्योगीकरण का दौर कहा जाता है, उसका परिणाम एक गुणात्मक बदलाव के रूप में दिखने लगा है। इस तरह के प्रभावों से भारत अछूता नहीं है और न ही इन बदलावों को लाने वाले योगदानों में पीछे है। पिछले दो सालों में दिल्ली जैसे राज्य में, जो कभी एक शहर हुआ करता था, चंद किलोमीटर की दूरी पर तापमान और बारिश का अंतर दिखने लगा है।

ऐसे प्रभाव को देश के भूगोल पर देखा जा सकता है। इस बार अप्रैल में चली लू को मौसम विभाग ने ला नीना के कंधों पर डाल दिया। अब मानसून को लेकर मौसम विभाग ने इस बार अल नीनो के प्रभाव को नकारा है। उसका कहना है कि इन दोनों का प्रभाव नहीं रहेगा। हालाँकि, बीते जाड़े में ला नीना का ही असर था, जिसकी वजह से भारत में सामान्य से काफी कम बारिश हुई।

इसी का प्रभाव है कि मानसून समय से पहले आ रहा है और मई के महीने में चक्रवाती तूफानों के आसार हैं। इस बार न केवल सामान्य से अधिक बारिश की संभावना है, बल्कि सामान्य से अधिक तापमान के बने रहने की संभावना भी जताई गई है। ऐसे में, मौसम में आ रहे बदलाव ला नीना से पैदा होने वाले प्रभावों के करीब हैं।

सामान्य से अधिक बारिश और मौसम के गर्म बने रहने का जो अनुमान मौसम विभाग ने लगाया है, उसका सीधा असर नदियों के बहाव, शहरों में पानी की निकासी, पहाड़ों से लेकर निचले हिस्सों में कटाव, क्षरण और धंसान, बाढ़ आदि के रूप में सामने आएगा। इसका सीधा प्रभाव खेती और सामान्य जीवन पर पड़ेगा। निश्चित रूप से मैदानी क्षेत्रों में इस बारिश का फायदा किसानों को होगा, जिससे उनकी लागत में कमी और फसल के अच्छे होने की उम्मीद बढ़ जाएगी।

आज भी भारत की विशाल आबादी खेती पर और खेती का बड़ा हिस्सा मानसून पर निर्भर है। लेकिन यदि बारिश सामान्य से अधिक हो, जैसा कि मौसम विभाग ने संभावना व्यक्त की है, तो डूब क्षेत्रों का दायरा बढ़ जाएगा और बाढ़ से नुकसान का खतरा कई गुना बढ़ जाएगा। खासकर, हिमालय से उतरने वाली नदियाँ जिस तेजी से मैदानों में पहुँचती हैं और बारिश के पानी से उन्हें भर देती हैं, वे अलग तरह का नुकसान पहुँचाती हैं।

युद्ध के माहौल में, खासकर उत्तरवर्ती क्षेत्रों में नदियों को लेकर जो रणनीतिक पहलकदमियों का दावा किया गया है और पानी को लेकर जो आरोप-प्रत्यारोप हुए हैं, आने वाले महीनों में मौसम एक अलग ही चुनौती पेश करने वाला है। यह चुनौती किसी देश की नहीं, बल्कि प्रकृति की ओर से होगी। इसे निपटने का काम केवल दो देशों को नहीं, बल्कि अन्य देशों के साथ मिलकर करना होगा।

पिछले तीन सालों में भारतीय उपमहाद्वीप में अप्रत्याशित बारिश का जो मंजर देखने को मिला है, उसके भयावह परिणाम सामने आए हैं। इस बार यह मौसम क्या रंग दिखाएगा, यह देखने के लिए जरूरी है कि उसकी तैयारियाँ भी पूरी की जाएँ। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि गाँवों में न तो घाघ और भड्डरी की कथाएँ और दोहे बचे हैं और न ही मौसम विभाग की भविष्यवाणियों को असरदार बनाने वाली तैयारियाँ हैं। मौसम की भविष्यवाणियाँ महज एक औपचारिकता में तब्दील होने को अभिशप्त हैं।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं)

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