कर्नल सोफिया कुरैशी और बानू मुश्ताक पर हमें नाज़ है

हालांकि मुस्लिम महिलाओं की तेजस्विता की चर्चा करना आज गुनाह की श्रेणी में आ सकता है लेकिन इसकी अहमियत आज बहुत है। जबकि मुस्लिम महिलाओं का अवदान भारतीय सल्तनत काल से लेकर आज़ादी के संग्राम के साथ-साथ भारत के विकास में महत्वपूर्ण रहा है। जिसकी चर्चा बराबर होनी चाहिए जिससे हिंदू-मुस्लिम कलुष से उपजी नफ़रत से मुल्क को निजात मिल सके।

बहुत दिनों बाद भारतीय सेना में कर्नल सोफिया कुरैशी जब सेना की ख़बरों की प्रवक्ता के रूप में सामने आईं तो लोगों की आंखें फटी की फटी रह गईं वे तो मुस्लिम महिला को बुर्के में कैद, ढेर सारे बच्चे पैदा करने वाली खाबिंद की ग़ुलाम मानी जाती हैं। उनकी नींद तब टूटी जब पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले अधिकृत कश्मीर में रह रहे आतंकियों के ठिकाने को ख़त्म करने का हुकुम भारत सरकार ने लिया। तकरीबन 22 घंटे चले इस युद्ध को आपरेशन सिंदूर नाम दिया गया था यह पहलगाम में मारे गए 26 लोगों के इंतकाम हेतु था। 

इस समय एक मुस्लिम महिला कर्नल सोफिया कुरैशी सेना की प्रवक्ता के रुप में सामने आई। उन्होंने जिस तरह तमाम देश को सेना की जानकारी दी। उससे देश की भारतीय संस्कृति का मान बढ़ा। ये बात और है हिंदू-मुस्लिम करने वालों के जिगरा पर सांप लोट गया। जिसमें बहुसंख्यक भाजपा और संघ के अंधभक्त थे। अफ़सोसनाक यह कि इनमें मध्यप्रदेश के उप मुख्यमंत्री,एक मंत्री और सांसद भी थे। यह इस बात का प्रमाण है कि भाजपा सरकार के लिए यह दांव उल्टा पड़ गया। अंधभक्त तो इससे लगभग धराशाई हो गए।

इससे एक और सत्य उजागर हुआ कि मध्यप्रदेश में जन्मी सोफिया के पिता,दादा,परदादा ने भी आज़ाद भारत के स्वाधीनता संग्राम में भागीदारी की। मुस्लिम समाज के प्रति फैलाई गई नफरतों का जो ज़हर भरा गया उसमें उनके अवदान की बात इतिहास से भी गायब की गई। इसलिए ये लोग काफी चोटिल हुए। उन्हें ट्रोल किया गया अपशब्द कहे गए। विदित हो ना केवल उनका खानदान बल्कि उनके पति भी सेना में कार्यरत हैं तथा बच्चे भी भारतीय सेना में जाने की तैयारी में हैं। ऐसे जाने कितने परिवार होंगे जिनकी गणना हो और उसे सामने लाया जाए तो शायद देश की फ़िज़ा बदले।बहरहाल सोफिया कुरैशी को दिली सलाम।

अब बानू मुश्ताक को बुकर पुरुस्कार पाने की ख़बर से माहौल में सरगर्मी है। वे दक्षिणी राज्य कर्नाटक से आती हैं वे लेखिका ही नहीं, सामाजिक कार्यकर्ता और वकील भी हैं। उन्हें हार्ट लैंप के लिए बुकर प्रदान किया गया जिसे दीपा भस्थी ने अनुवादित किया है। यह उनकी लघु कथाओं का संग्रह है जिसने 2025 में अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता। वह कन्नड़ भाषा में लिखती हैं।

 उनकी इस उपलब्धि से देश गौरवान्वित हुआ है। उसकी चर्चा भी कम ही हो रही है। उन्होंने अपनी कहानियों में दक्षिण भारतीय मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को बड़े ही सहज़ और सौम्य तरीके से कहानियों में उजागर किया है।उनके तेवर मारक नहीं हैं वे पुरुष पर तंज भी नहीं करती हैं किंतु वो सब कह देती हैं जो किसी को नहीं अखरता। उनके लेखन की यह शैली सम्मोहक है।

20वीं सदी में भारतीय नारीवाद के शैशवकाल में रशीद जहां न केवल स्त्रियों के विषय में विचार कर सकने वाली उभरती आवाज़ बनीं, आज बानू मुश्ताक ने भी 21वीं सदी में आने वाले समय के मुस्लिम नारीवादी साहित्य के लिए जो कहानियां लिखी हैं। उनका प्रभाव निश्चित तौर पर युगांतकारी होगा। 

77वर्षीय बानू ने उस दौर में पढ़ाई जारी रखी जब मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई रोक दी जाती थी। कट्टरपंथियों के खिलाफ खुलकर लिखने वाली बानू का कहना है कि ऐसी दुनिया में,जो अक्सर हमें विभाजित करने की कोशिश करती है साहित्य उन खोए हुए पवित्र ठिकानों में से एक है। जहां हम एक दूसरे के मन में रह सकते हैं हार्ट लैंप की जीत भारतीय साहित्य की जीत है।

भारतीय साहित्य की जीत का गुमान मुश्ताक बानू भी करती हैं। दूसरी तरफ़ सोफिया कुरैशी का भारतीय सेना में कर्नल होना ये सच्ची भारतीयता का प्रतीक है। आइए दोनों शख्सियत को दिल से सलाम करते हुए उनके अवदान पर नाज़ करें तथा नफ़रती चिंटुओं को इनके देशप्रेम की कहानी बताकर सच्चे भारतीय का सबूत दें।

(सुसंस्कृति परिहार लेखिका और एक्टिविस्ट हैं।)

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