ऑपरेशन सिंदूर के चौथे दिन 10 तारीख को भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्धविराम पर सहमति बनी। उसके बाद प्रधानमंत्री ने ऑपरेशन सिंदूर की उपलब्धियों, भावी भारत की स्थिति पर 12 मई को राष्ट्र को संबोधित किया। संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री ने भारत के न्यू नॉर्मल की चर्चा की। इस न्यू नॉर्मल की वैचारिक अंतर्वस्तु भारत के आतंकवाद के विरोधी युद्ध में सतत संलग्नता से जुड़ी है और भारत की अब तक की विदेश नीति की निरंतरता, जैसे पड़ोसी राष्ट्रों के साथ हमारे संबंध और लोकतांत्रिक भारत की अंतर्वस्तु के साथ गहराई से अंतर्गुंथित है। इसलिए भारत के न्यू नॉर्मल के समग्र परिप्रेक्ष्य, स्वरूप और भावी परिणाम पर देश में गंभीरतापूर्वक चर्चा होनी चाहिए।
मोदी जी के अनुसार भारत का न्यू नॉर्मल कैसा होगा? 12 मई के संबोधन में भविष्य के भारत के न्यू नॉर्मल की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा कि ऑपरेशन सिंदूर अभी समाप्त नहीं हुआ है। वह जारी है। स्पष्ट है कि अब भारत हमेशा युद्ध मोड में रहेगा। यही युद्धरत भारत का न्यू नॉर्मल होगा।
प्रधानमंत्री ने आतंकवादी कार्रवाई को एक्ट ऑफ वार कहा है। दूसरा- आतंकवादियों को समर्थन और संरक्षण करने वाले देश को भारत के खिलाफ एक्ट ऑफ वार में सहभागी करार दिया। तीसरा- परमाणु युद्ध के नाम पर किसी तरह की ब्लैकमेलिंग को अस्वीकार कर दिया है।
प्रधानमंत्री की घोषणा से कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। मसलन, भारत सीमा पार के आतंकवादी खतरे को देखते हुए युद्ध जैसे हालात का सामना करने के लिए प्रतिक्षण तैयार रहेगा। यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि पिछले 34 वर्षों से आतंकवादी जब चाहते हैं, कश्मीर में या भारत के किसी भी इलाके में कोई न कोई वारदात करने में कामयाब हो जाते हैं। ये आतंकवादी हमले पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों की अगुआई में होते हैं। इसलिए पाकिस्तान के साथ दुश्मन राष्ट्र जैसा व्यवहार और किसी भी आतंकवादी घटना को भारत के खिलाफ एक्ट ऑफ वार माना जाएगा। यानी सीमा पार आतंकी गतिविधियों को देखते हुए भारतीय सेना हर समय सीमा पर युद्ध के मोड में रहेगी। जिस तरह से युद्ध की स्थितियों में सेनाएँ आमने-सामने मोर्चे पर होती हैं।
चूँकि भारत एक विशाल देश है। हमारा भौगोलिक विस्तार बृहद है। इसलिए सेनाओं के संचालन और उन्हें एक खास उद्देश्य के लिए किसी एक खास सीमा पर तैनात करना बहुत ही खर्चीला और समय लेने वाला कठिन काम है। (जैसा कि वाजपेयी सरकार के समय संसद पर हुए हमले के बाद देखा गया था। हमें सेना के मूवमेंट को सुनिश्चित करने में 12 से 15 दिन तक लग गए थे। एक सूचना के अनुसार इस सैन्य तैनाती के दौरान 12 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जब तक कि दोनों देशों के बीच आपसी समझौता नहीं हो गया।) आतंकवादी हमलों का समय-पूर्व आकलन नहीं किया जा सकता है। इसलिए भारतीय सेना को सीमा पर सतत युद्ध की स्थिति में रखना होगा। प्रधानमंत्री की व्याख्या के अनुसार न्यू नॉर्मल का एक पहलू यह होगा।
दूसरा- स्थायी युद्ध की स्थिति को देखते हुए भारत के सोसियो-पॉलिटिकल इकॉनमी का ओरिएंटेशन दीर्घकालीन योजना के तहत इसी दिशा की तरफ मोड़ना होगा। स्पष्ट है कि भारत को युद्धरत राष्ट्र की जरूरत के अनुसार अपनी इकॉनमी, राजनीति और सामाजिक आंतरिक गतिविधियों को पुनर्गठित करना होगा। इसके लिए हमें अपनी प्राथमिकताओं को बदलना होगा। विकास योजनाओं को युद्धरत राष्ट्र की जरूरत की रणनीति के अनुरूप बनाना होगा। जिसमें सैन्य जरूरतों के लिए गोला-बारूद, आर्म एमुनیشن, एयरक्राफ्ट, मिसाइल रोधी सिस्टम, टैंक के साथ प्रशिक्षित सेना और रिजर्व नागरिकों को तैयार रखना होगा, जिससे जरूरत पड़ने पर तत्काल युद्ध के मोर्चे पर तैनात किया जा सके। भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह कठिन चुनौती होगी, जो अपनी बहुत सारी आंतरिक समस्याओं का सामना कर रहा है। मसलन, भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, औद्योगिक ठहराव तथा शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे बड़े सवाल।
अगर देश का न्यू नॉर्मल युद्धरत राष्ट्र बन जाएगा, तो हमारे संघात्मक गणतंत्र के स्वरूप में अनेक बदलाव स्वतः आ जाएँगे।
आतंकवाद और युद्ध दोनों लोकतंत्र के लिए घातक होते हैं। पिछले 75 वर्षों से कुछ व्यक्तिक्रमों के साथ भारत में लोकतंत्र अपनी गति से आगे बढ़ता रहा है। लेकिन मोदी के आने के बाद सत्ता के केंद्रीकरण के बढ़ जाने से हमारी लोकतांत्रिक शाखा को भारी धक्का लगा है। वैसे भी मोदी सरकार की नीतियों में लोकतांत्रिक व्यवहार और लोकतांत्रिक देश की परिकल्पना के लिए कोई जगह नहीं है। सतत युद्ध का माहौल देश के आंतरिक लोकतांत्रिक ढाँचे पर एक कहर बनकर टूटेगा। इसके लक्षण अभी से दिखाई देने लगे हैं। दर्जनों ऐसे नागरिक जो सरकार की नीतियों से असहमति व्यक्त कर रहे हैं, उन पर एफआईआर दर्ज हो रही है। उनके सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है। डॉक्टर माद्री काकोटी (लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर), नेहा सिंह राठौर (लोकगायिका), अशोका यूनिवर्सिटी हिसार के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद (जिन्हें जेल भेज दिया गया) और छात्र संगठन आईसा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष मनीष कुमार इस लिस्ट में शामिल हैं।
सतत युद्ध के मोड में रहने वाले देश में नागरिकों के लोकतांत्रिक और मानवाधिकार को किसी समय सस्पेंड किया जा सकता है। असहमति के लिए कोई जगह नहीं होगी। राष्ट्र के नाम पर राष्ट्र को बंधक बना लिया जाएगा। विपक्ष का मुँह बंद कर दिया जाएगा। जो कुछ बचा-खुचा स्वतंत्र मीडिया है, उसका गला घोंट दिया जाएगा। हमने देखा है कि चार दिन के ऑपरेशन सिंदूर में 4 पीएम, द वायर और पूण्य प्रसून वाजपेयी के यूट्यूब चैनल पर हमले हुए थे। एक्स, इंस्टाग्राम के अनुसार हजारों लोगों के अकाउंट बंद करने के लिए सरकार दबाव डाल रही है। इस तरह मोदी जी का न्यू नॉर्मल देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं की आवाज को खामोश कर देगा। संसदीय संस्थाएँ पंगु हो जाएँगी और अंतिम प्रहार समय-समय पर होने वाली चुनावी प्रक्रिया पर होगा। उसे भी आपात स्थिति के नाम पर निरस्त या टाला जा सकता है। आमतौर पर ऐसी स्थितियों में दुनिया में यही देखा गया है।
चूँकि भारतीय समाज में लोकतांत्रिक चेतना और मूल्यों ने एक हद तक जगह बना ली है, इसलिए संघ नीति सरकार के लिए अभी लोकतांत्रिक आवरण को उतारकर फेंकना कठिन है। लेकिन देश की एकता और सुरक्षा के नाम पर यह आसानी से किया जा सकता है।
(हालाँकि चुनाव प्रक्रिया पर विभिन्न तरह के नियंत्रण के द्वारा मोदी सरकार सत्ता में बनी हुई है और उसके लोकतंत्र विरोधी कदम को रोक पाने में भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएँ अक्षम साबित हुई हैं, इसलिए मोदी सरकार को लोकतांत्रिक आवरण को उतार फेंकने की जरूरत अभी तक नहीं पड़ी। लेकिन अब आतंकवादी घटनाओं और युद्धरत राष्ट्र की परिकल्पना के ठोस शक्ल लेने के साथ यह खतरा और ज्यादा गंभीर हो गया है।)
अभी तक दुनिया में भारत की छवि एक शांतिप्रिय देश की रही है। संपूर्ण शीत युद्ध काल में भारत ने गुट-निरपेक्ष आंदोलन की अगुआई की और किसी भी एक गुट में शामिल होने से इनकार कर दिया था। उस समय जनसंघ और आरएसएस ने चीनी और पाकिस्तान खतरे को देखते हुए भारत को अमेरिकी धुरी में शामिल होने की पुरजोर वकालत की थी। हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान अमेरिकी सैनिक गठबंधन में पहले से ही शामिल हो गया था। इसको देखते हुए यह दबाव और ज्यादा बढ़ गया था। लेकिन भारत ने इस दबाव का दृढ़तापूर्वक मुकाबला करते हुए अपनी शांतिप्रिय, युद्ध-विरोधी तटस्थ भूमिका बनाए रखी और दुनिया में कहीं भी होने वाले तनाव और युद्ध का विरोध करता रहा। लेकिन पिछले 11 वर्षों में मोदी सरकार ने भारत की विदेश नीति की दिशा को उलटकर अमेरिकी-इजरायली धुरी की तरफ झुका दिया है।
मोदी जी के न्यू नॉर्मल का असर दिखने लगा है। प्रधानमंत्री के संबोधन के दो दिन बाद मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह ने एक कार्यक्रम में बोलते हुए सेना की कर्नल सोफिया कुरैशी को आतंकवादियों की बहन कहा है। सोफिया कुरैशी ऑपरेशन सिंदूर के समय तब चर्चा में आईं, जब उन्हें सेना की तरफ से एक अन्य महिला सैन्य अधिकारी के साथ नियमित जारी होने वाली प्रेस ब्रीफिंग की जिम्मेदारी दी गई। यह विश्व को एक संदेश था कि भारत में हिंदू, मुस्लिम, महिला, पुरुष एक साथ मिलकर दुश्मन (पाकिस्तान) को जवाब देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह भारत के सेक्युलर क्रेडेंशियल को दुनिया के सामने रखने का एक प्रयास लगता था।
सोफिया कुरैशी को लेकर तभी से भारत सहित विश्व भर में करोड़ों लोगों में जिज्ञासा पैदा हुई कि यह सोफिया कौन है। इसलिए संघ के प्रशिक्षित नेता और मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह ने इसका स्पष्टीकरण दे दिया।
जिस रणनीति के तहत मोदी सरकार और सेना ने सोफिया कुरैशी को आगे रखा है, उस रणनीति का मर्म मोदी सरकार का स्वभाव और चरित्र समझने वाले निश्चय ही समझ रहे होंगे। यह भारत में चल रही प्रतीकवादी राजनीति का क्लासिकल उदाहरण है।
दुनिया को भारत का सेक्युलर क्रेडेंशियल दिखाने के लिए किए गए खेल की असलियत समझने के लिए हमें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। मध्य प्रदेश, जो इस समय हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला के रूप में उभर रहा है, वहाँ के मंत्री का सोफिया कुरैशी को लेकर दिया गया बयान मोदी-शासित भारत की तस्वीर बयान करने के लिए काफी है। हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक विजय शाह के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करने का निर्देश देने के बावजूद पुलिस अपनी वफादारी निभाने से बाज नहीं आ रही। शायद यही मोदी जी का न्यू नॉर्मल भारत है।
मोदी सरकार अपने हर अपराध के बचाव के लिए सेना के पीछे छिप जाती है। लेकिन भारतीय सेना के प्रति भाजपा और संघ के नेताओं, कार्यकर्ताओं में किस तरह की आस्था और सम्मान है, यह मध्य प्रदेश से ही खुलकर सामने आ गया। विजय शाह के बयान के दो दिन बाद मध्य प्रदेश के डिप्टी सीएम ने कहा कि सेना, न्यायपालिका, कार्यपालिका और देश मोदी के चरणों में समर्पित हैं। (इससे घटिया सोच और विचार क्या हो सकता है।)
आइए, हम संघ-भाजपा की वैचारिकी पर संक्षिप्त चर्चा करते हैं।
संघ की बुनियादी प्रस्तावना में राष्ट्र-राज्य को सैनिक रूप से मजबूत ऐसा राष्ट्र होना चाहिए, जो अपने पास-पड़ोस के मुल्कों पर दबदबा कायम कर सके। दूसरा, आंतरिक प्रशासन को सख्त, कड़ा और ताकतवर दिखना चाहिए, जो एक सैन्य सरकार के समक्ष बैठता है। तीसरा, आंतरिक दुश्मनों के खिलाफ सतत युद्ध करके ही राष्ट्र अपनी शक्ति, प्रतिभा, महत्व और प्रभुत्व को दुनिया में स्थापित कर सकता है।
संक्षिप्त विश्लेषण से दो बातें निकलती हैं। एक, राष्ट्र को अपनी भौगोलिक सीमा के अंदर शत्रुओं के खिलाफ सतत संघर्षरत रहना होगा। दूसरा, राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा के लिए दुश्मन राष्ट्रों के खिलाफ अनवरत युद्ध मोड में देश और सेना को खड़ा रखना होगा।
आजादी के बाद से ही भारतीय विमर्श में पाकिस्तान स्थायी शत्रु बना हुआ है। अब बांग्लादेश भी उसी रास्ते पर है। भारत के न्यू नॉर्मल के ये बाहरी कारक हैं।
दूसरा, भारतीय समाज वर्ण विभाजन पर टिका सोपानवत समाज है, जो सामाजिक असमानता पर टिका है। (उसी के अनुसार आर्थिक श्रेणी भी बनती है।) लेकिन संवैधानिक गणतंत्र बनने, नागरिकों को राजनीतिक समानता मिलने, प्रत्येक 5 वर्ष पर जनता के मत द्वारा सरकारों के चुनाव और विभिन्न तरह की आर्थिक-सामाजिक योजनाओं के लागू होने, शिक्षा के प्रसार आदि के कारण दबे-कुचले वर्गों में बराबरी और न्याय की आकांक्षा विकसित हुई है, जिसके कारण सामाजिक संरचना में उथल-पुथल की स्थिति है। जिससे समाज में दो विरोधी पोल बने हुए हैं।
तीसरा, बहुधार्मिक, बहुभाषी और बहु-एथनिक समाज होने की अवस्थिति से आंतरिक टकराव का स्थायी भाव भारतीय राजनीति का एक नकारात्मक पक्ष है। जैसे मणिपुर, असम आदि।
चौथा, धर्म के आधार पर भारत के विभाजन ने भारतीय समाज में धार्मिक टकराव का स्थायी भाव पैदा किया है। इसलिए मुस्लिम धर्मावलंबी संघ और भाजपा की राष्ट्र-राज्य परियोजना में स्थायी विजातीय तत्व के रूप में मौजूद हैं। (हालाँकि उतने संगठित व ठोस रूप में नहीं, जितना कि पाकिस्तान एक देश के रूप में है।) इसके अलावा, धर्म आधारित पाकिस्तान का वजूद भारत में मुस्लिम समाज को ‘अन्य’ या ‘ओ’ में बदल देता है।
पाँचवाँ, यूरोप की लोकतांत्रिक क्रांतियों से स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के मूल्य भारत आए। जिससे स्वतंत्र नागरिक अस्तित्व में आया, जो वर्ण विभाजित समाज की अवस्थापना के विपरीत है।
यूरोप के नवजागरण के बुनियादी तत्व हैं- लोकतांत्रिक प्रणाली, औद्योगिक क्रांति और वैज्ञानिक खोजों की शृंखला से आधुनिक विज्ञान का जन्म, सामाजिक और आर्थिक विकास जो विज्ञान के साथ उन्नत हुआ। जिससे तार्किक वैज्ञानिक चेतना और पद्धति का विकास हुआ, जिसने मिथकीय और धार्मिक-मजहबी शाश्वत माने जाने वाले ज्ञान को खंडित कर दिया है, जैसे ग्रहों की स्थितियाँ आदि।
भौतिक, रासायनिक और जीव विज्ञान के जन्म तथा डार्विन के विकासवाद और न्यूटन के गति के सिद्धांत और जेम्स वाट द्वारा भाप की शक्ति की पहचान ने यूरोपीय समाज में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जिसके फलस्वरूप मानव समाज ने आर्थिक क्षेत्र में महान औद्योगिक क्रांति और राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में लोकतांत्रिक क्रांति कर डाली। इस क्रांति में दुनिया के चिंतन, विचार और सोचने-समझने की दृष्टि को बदल दिया। दर्शन और विज्ञान के क्षेत्र में तेज गति से हुई प्रगति से नई सभ्यता का जन्म हुआ। जिसे संघ भारतीय समाज व संस्कृति के प्रतिकूल मानता है।
चूँकि आधुनिक संस्थाएँ, विचार, नागरिक अधिकार, व्यक्ति स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्य और धर्मनिरपेक्ष समतामूलक समाज की अवधारणा से समाज बदलने लगा। इसका भारतीय समाज के हर क्षेत्र पर गहरा प्रभाव पड़ा। जिससे संघर्षरत संगठन और समाज में हाशिए पर पड़े नागरिक रंगमंच पर दिखाई देने लगे।
संघ के हिंदू राष्ट्र की परियोजना के लिए ये सभी आंतरिक शत्रु हैं। जिसमें कम्युनिस्ट, मानवाधिकार कार्यकर्ता, आजादी और बराबरी माँगती हुई महिलाएँ, जाति विनाश और सामाजिक समता की कल्पना करने वाले दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
अब हिंदू राष्ट्र को दो मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ रहा है। एक, सीमा पार आतंकवाद (जो हिंदू राष्ट्र की परियोजना के लिए अमृत है), जिसे पाकिस्तान प्रायोजित माना जाता है। उससे संघर्ष के लिए देश को स्थायी युद्ध मोड में रखना होगा।
दूसरा, देश में संघ के हिंदू राष्ट्र के घोषित शत्रुओं के खिलाफ आंतरिक संघर्ष को सघन करना होगा। जिसकी तीव्रता बढ़ गई है। लेखक, लोक कलाकार, साहित्यकार, पत्रकार, अध्यापक, छात्र व राजनीतिक कार्यकर्ता इसके जद में खींच लिए गए हैं। कश्मीर से लेकर असम तक हजारों नागरिकों को देशद्रोह और पाकिस्तान समर्थक होने के नाम पर गिरफ्तार किया जा रहा है। खासकर मुस्लिम समाज के लोगों को किसी न किसी बहाने पाकिस्तान के हमदर्द या मदद करने के नाम पर गिरफ्तारियाँ शुरू हो गईं। (अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद इसके क्लासिकल उदाहरण हैं।) इसका दायरा बढ़ेगा।
देसी बांग्लादेशी होने के नाम पर जगह-जगह गिरफ्तारी और उनकी बस्तियों को उजाड़ने का अभियान चल रहा है। गुजरात में अहमदाबाद में 5,300 घर ढहा दिए गए हैं। यह मुसलमानों से होते हुए कम्युनिस्टों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अंत में विपक्षी राजनीतिक दलों तक विस्तारित होगा। अभी हमने बस्तर के अबूझमाड़ में आदिवासियों के बीच काम करने वाले माओवादियों के सबसे बड़े नेता की हत्या की खबर देखी है। आदिवासी कार्यकर्ता सोनी सोरी के एक हफ्ते पहले दिए गए साक्षात्कार के अनुसार, अब तक सैकड़ों बेगुनाह आदिवासी मारे जा चुके हैं। यह सब आंतरिक शांति और देश की मजबूती के नाम पर अभी शुरू हो गया है। (वैद्यकी हिंसा हिंसा न भवति।)
सबसे घातक प्रभाव मोदी जी के न्यू नॉर्मल का देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। युद्ध के लिए राष्ट्र की जरूरत के नाम पर सैन्य उद्योग खड़े होंगे। इसमें बड़े पैमाने पर अडानी, अंबानी जैसे कॉर्पोरेट घरानों की घुसपैठ पहले ही सुनिश्चित की जा चुकी है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद अब रक्षा उद्योग का बड़े पैमाने पर निजीकरण होगा। देश की सुरक्षा के नाम पर कॉर्पोरेट घरानों को भारी मुनाफा कमाने का मौका मिलेगा। हम जानते हैं कि राफेल के मामले में अनिल अंबानी को कैसे सह-पार्टनर बनाया गया था। यह प्रक्रिया परवान चढ़ेगी। जिससे देश की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा हो सकता है।
मोदी जी के भारत के न्यू नॉर्मल से भारतीय उपमहाद्वीप में हथियारों की होड़ बढ़ेगी। युद्ध सामग्री के लिए भारत की गरीब जनता पर और ज्यादा टैक्स लगाए जाएँगे। 140 करोड़ भारतीयों से निचोड़े गए खरबों डॉलर विदेशी हथियारों की खरीद पर खर्च होंगे। भारत में युद्ध सामग्री बनाने वाली विदेशी कंपनियों की घुसपैठ और होड़ तेज होगी। भारत युद्ध सामग्री बनाने वाली विशाल कॉर्पोरेट कंपनियों का आखेट स्थल बन जाएगा। यह होड़ चरम पर पहुँचकर विस्फोटक रूप ले सकती है।
हमें मजबूर होकर महँगे दामों पर हथियार खरीदने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। जिससे देश की आंतरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए विश्व बैंक, आईएमएफ आदि से भारी कर्ज लेना होगा। वैसे ही भारत 2 लाख करोड़ से ज्यादा के विदेशी कर्ज के बोझ तले दबा हुआ है। यह विदेशी कर्ज बोझ पहले से ही विस्फोटक सीमा तक पहुँच गया है। हमें कर्ज चुकाने के लिए और कर्ज लेना होगा। मोदी सरकार ने वित्तीय संस्थानों से आंतरिक लोन इतना ज्यादा ले लिया है कि कई संस्थाएँ गंभीर संकट में पहुँच गई हैं। वे सामाजिक योजनाओं में निवेश करने की स्थिति में नहीं हैं।
शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक विकास, जनकल्याण सहित अन्य जरूरतों में होने वाले खर्चे में कटौती होगी। देश में और ज्यादा गरीबी और भुखमरी बढ़ेगी। अभी ही हम 80 करोड़ लोगों को 5 किलो अनाज मुफ्त में देने के लिए मजबूर हैं। एक आँकड़े के अनुसार लगभग 11% आबादी अति गरीबी में जी रही है। बेरोजगारी सामान्य सीमा से ऊपर पहुँच गई है, जो विस्फोटक स्थिति है। जनकल्याण और इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में पूँजी निवेश में पहले से ही कटौती हो रही है। कई परियोजनाएँ या तो रुक जाएँगी या विलंबित होने के लिए बाध्य हैं। विश्वविद्यालय दिवालिया होने की कगार पर हैं। उनसे कह दिया गया है कि वे अपने खर्चे खुद जुटाएँ या सरकार से लोन लें। (बनारस में महात्मा गांधी विद्यापीठ की छात्राएँ इसी बात को लेकर धरने पर बैठी हैं, जहाँ शैक्षिक सीटों में 50% सीटें बिक्री के लिए आरक्षित कर दी गई हैं।)
परिणाम साफ है कि निजीकरण का विस्तार शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में तेजी से होगा और ये जनता की पहुँच से बाहर हो जाएँगे।
हम जानते हैं कि जिन देशों को सतत युद्ध में रहना पड़ता है, उन्हें युद्ध-केंद्रित इकॉनमी को अपनाना पड़ता है। विकासशील देशों के लिए यह खतरनाक स्थिति है। उन्हें विकास के लिए शांति का वातावरण चाहिए। लेकिन मोदी सरकार ने उलट आत्मघाती रास्ता चुना है। दुनिया में जो विकासशील देश युद्ध-केंद्रित इकॉनमी के रास्ते पर बढ़े हैं, उन्हें दिवालिया होना पड़ा। यही नहीं, उन्हें अंत में साम्राज्यवादी शक्तियों के खेल का शिकार होना पड़ा है। पाकिस्तान इसका उदाहरण है, जो अपनी आंतरिक जरूरत का सिर्फ 11% उत्पादन करता है। 89% जरूरतों के लिए वह विदेशों से आयात पर आश्रित है।
यह मोटे तौर पर एक सामान्य खाका है, जिससे संघ और मोदी जी की संकल्पना के हिन्दुस्थान के न्यू नॉर्मल को परिभाषित करने में मदद मिल सकती है। (हालाँकि वे अब हिंदुस्थान की जगह सनातन भारत का प्रयोग करने लगे हैं।) मोदी के नेतृत्व के 11 वर्ष बाद सनातन भारत अब स्थायी टकराव की दिशा में आगे बढ़ चुका है। सवाल भारतीय उपमहाद्वीप में शांति, सद्भाव, भाईचारा और विकास के लिए काम करने वाली शक्तियों से है। वे इन कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए किस तरह का कदम उठाएँगी?
मोदी जी ने देश को अपने आदर्श मुल्क इजरायल के रास्ते पर ढकेल दिया है। क्या हम भारत को पश्चिमी भूमध्यसागरीय देशों के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं या चीन सहित पूर्वी एशियाई देशों के शांतिपूर्ण विकास के मार्ग का चयन करते हैं? यह सवाल 140 करोड़ भारतीयों के समक्ष है। इस उपमहाद्वीप के सबसे विशाल देश होने के कारण उन्हें ही इसका उत्तर खोजना होगा।
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और वाम राजनीतिक कार्यकर्ता हैं।)