कनानास्किस की प्रमुख कहानी अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का ग्रुप-7 शिखर सम्मेलन को बीच में ही छोड़ कर वहां से चले जाना रही। 17 जून को कुछ घंटों तक दुनिया को इस चर्चा से भरमाया गया कि ट्रंप ईरान-इजराइल युद्ध में पैदा हुई आपात स्थिति के कारण अचानक वॉशिंगटन लौटे हैं। मगर उस रोज ट्रंप ने इस युद्ध में अमेरिका को शामिल करने जैसा कोई फैसला नहीं लिया, जैसाकि आरंभिक खबरों में बताया गया था। उलटे कुछ घंटों के अंदर ही उन्होंने साफ कर दिया कि अभी वे ईरान को बातचीत का एक और मौका देना चाहते हैँ।
यह साफ संकेत है कि ट्रंप पश्चिम एशिया की किसी आपात स्थिति के कारण अमेरिका नहीं लौटे। बल्कि इसकी वजह कनानास्किस में ग्रुप के सदस्य अन्य देशों के साथ उभरे उनके मतभेद थे। मतभेद का प्रमाण यह है कि शिखर सम्मेलन में परंपरा के अनुरूप कोई साझा विज्ञप्ति जारी नहीं हुई। इसके बदले एक लंबा बयान जारी हुआ, जिसमें प्रमुख मसलों पर सदस्य देशों के विचारों को शामिल किया गया। इनमें ये बिंदु शामिल किए गएः
- आव्रजकों की तस्करी और सीमा पार दमन
- आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और क्वांटम टेक्नोलॉजी, तथा
- सहयोग के अन्य विशिष्ट क्षेत्र
ईरान-इजराइल युद्ध के मुद्दे पर चूंकि आम सहमति थी, इसलिए इस मामले में अलग से संयुक्त बयान जारी हुआ। इसमें सर्व-सम्मति से कहा गयाः
- इजराइल को “आत्म-रक्षा का अधिकार है”
- ईरान पश्चिम एशिया में क्षेत्र में “अस्थिरता का स्रोत है”
- ईरान को कभी भी परमाणु हथियार संपन्न बनने नहीं दिया जाएगा
- पश्चिम एशिया में “शांति और स्थिरता” के प्रति जी-7 “प्रतिबद्ध है”
- ईरान संकट के हल के साथ पश्चिम एशिया में तनाव घटने की शुरुआत होनी चाहिए, जिसमें गजा में युद्धविराम भी शामिल है।
अब अहम मुद्दों पर ध्यान दें, जिनकी चर्चा गायब रहीः
- यूक्रेन में रूस की विशेष सैनिक कार्रवाई
- ट्रंप के टैरिफ यानी अमेरिका की तरफ से छेड़ा गया व्यापार युद्ध
- जी-7 देशों का अंदरूनी आर्थिक संकट
- विश्व अर्थव्यवस्था के सामने बढ़ती चुनौतियां, और
- जलवायु परिवर्तन
चीन के अनवरत उदय को रोकना जी-7 देशों और उनकी यूरोपियन कमीशन जैसी एजेंसियों की प्रमुख चिंता है, जो कनाडा के इस शहर में जाहिर हुईं। मगर ट्रंप के टैरिफ वॉर की मार झेल रहे अमेरिका के सहयोगी देश फिलहाल चीन के खिलाफ कोई ठोस रणनीति अपनाने को लेकर अनिच्छिक रहे। दरअसल, खुद अमेरिका की कोई स्पष्ट चीन रणनीति इस शिखर सम्मेलन में जाहिर नहीं हुई।
उलटे ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और कनाडा को ट्रंप ने अपने इस सार्वजनिक बयान से आहत कर दिया कि 2014 में अगर रूस को जी-8 से नहीं निकाला गया होता (जिसके बाद ये समूह जी-7 हो गया), तो अभी जारी यूक्रेन युद्ध की शुरुआत ही नहीं हुई होती। तब रूस ने क्राइमिया को अपने में मिला लिया था, जिसके बाद पश्चिमी देशों ने उसे इस समूह से निकाल दिया था। ट्रंप ने उस फैसले को ‘बहुत बड़ी गलती’ करार दिया। इतना ही नहीं, जब एक पत्रकार ने पूछा कि क्या चीन को इस समूह में शामिल किया जा सकता है, तो ट्रंप ने जवाब दिया- ‘ऐसा करने में कोई बुराई नहीं है।’
जो समूह पिछले डेढ़ दशक से चीन को घेरने की रणनीति में जुटा हुआ है और खासकर इसके यूरोपीय सदस्यों की प्राथमिकता रूस को कमजोर करना है, उस समय ग्रुप लीडर के इन बयानों ने ना सिर्फ संगठन के भीतर मतभेदों को उजागर किया, बल्कि यह जी-7 में बढ़ती उद्देश्यहीनता एवं दिशा-भटकाव को भी जाहिर कर गया है।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक मेजबान कनाडा ने पहले सभी सात देशों के बीच आम सहमति के बिंदुओं की तलाश करने में अपनी पूरी ऊर्जा लगाई। मगर ट्रंप प्रशासन के रुख को देखते हुए सम्मेलन शुरू होने से पहले ही यह प्रयास उसने इस डर से छोड़ दिया कि कहीं 2018 जैसी घटना ना हो जाए। तब जी-7 शिखर सम्मेलन कनाडा के क्यूबेक प्रांत में हुआ था। वहां ट्रंप (तब राष्ट्रपति के रूप में उनका पहला कार्यकाल था) इतने नाराज हुए कि कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो को प्रेस के सामने खरी-खोटी सुना डाली और मंच छोड़ कर चले गए।
उस घटना का दोहराव रोकने की कोशिश में कनाडा के वर्तमान प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में ट्रंप की खुलकर ठुकुरसुहाती की। मगर नतीजा सिफर रहा। ट्रंप फिर भी सम्मेलन को बीच में छोड़ कर चले गए। और उसके बाद छह देशों के ‘अनाथ’ हुए नेता उस एक मुद्दे पर भी कोई रणनीति नहीं बना सके, जिस पर सर्व-सहमति थी।
हालांकि इन छह नेताओं ने ईरान के खिलाफ अमेरिकी राय से पूरा इत्तेफ़ाक जताया, मगर वहां गंभीर हो रही स्थितियों के प्रति साझा उत्तर की कोई रूपरेखा वे तैयार नहीं कर पाए। ट्रंप यह संकेत देकर चले गए कि उन्हें जो करना होगा, वे वॉशिंगटन जाकर तय करेंगे। तो फिर अपने 51वें वर्ष में जी-7 की प्रासंगिकता आज क्या रह गई है? (जी-6 1975 में बना था। 1976 में कनाडा इसमें शामिल हुआ, तो यह जी-7 हो गया। 1997 में इसमें रूस को शामिल किया गया, तब यह जी-8 हुआ था। 2014 में रूस को निकाले जाने के बाद यह फिर से जी-7 हो गया।)
आखिर जी-7 इस स्थिति में कैसे पहुंचा, जहां उसके सामने ऐसे सवाल खड़ नजर आ रहे हैं? ध्यान दें,
- आज भी विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में जी-7 का हिस्सा 44 प्रतिशत है
- दुनिया की कुल आबादी का बमुश्किल दस फीसदी हिस्सा जी-7 में रहता है। इसीलिए जी-7 के सदस्य दुनिया के सबसे धनी देश बताए जाते हैं।
- इसीलिए उन्हें दुनिया की साम्राज्यवादी धुरी कहा जाता है, क्योंकि दुनिया भर में उत्पन्न होने वाले कुल आर्थिक मूल्य का बहुत बड़ा हिस्सा इन देशों को आज भी ट्रांसफर हो रहा है। ऐसा बौद्धिक संपदा की फीस, विश्व मौद्रिक एवं वित्तीय व्यवस्था पर इन देशों के नियंत्रण और व्यापार असंतुलन की जारी व्यवस्था के कारण होता है।
- यही दुनिया पर उनके राज करने का राज़ है।
मगर इस कहानी का एक दूसरा पक्ष भी है
- जर्मनी, और एक हद तक फ्रांस को छोड़ दें, तो जी-7 देशों की अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षमता आज बेहद क्षीण हो चुकी है।
- इन देशों की अर्थव्यवस्था मोटे तौर पर रेंट वसूली, शेयर एवं बॉन्ड बाजार, ऋण कारोबार और हथियारों की बिक्री पर निर्भर होती गई है।
- इस कारण इन देशों में उत्पादक क्षेत्र निवेश का अभाव झेल रहे हैं।
- नतीजतन, इन समाजों में आर्थिक गैर-बराबरी अभूतपूर्व ढंग से बढ़ी है, जिसका परिणाम अब तीखे सामाजिक ध्रुवीकरण एवं राजनीतिक व्यवस्था के क्षय के रूप में जाहिर हो रहा है।
- पूंजीवादी मुनाफे के लिए प्रकृति के बेलगाम दोहन ने जलवायु परिवर्तन के संकट को भीषण बना दिया है, जिसकी गहरी मार आबादी के विभिन्न हिस्सों पर पड़ रही है।
पूरे घटनाक्रम का सार यह है कि कहानी के दूसरे पक्ष के कारण (पहले पक्ष की मौजूदगी के बावजूद) दस फीसदी आबादी के बाकी 90 प्रतिशत आबादी पर कई सदियों से जारी राज की बुनियाद हिल रही है। मगर ये दस फीसदी आबादी वाला हिस्सा इसे स्वीकार करने को राजी नहीं है। नतीजतन, उसका रूप लगातार आक्रामक होता गया है। फिर भी अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हुआ। तो अब आपसी दरारें चौड़ी हो रही हैं।
हाल के दशकों में जाहिर हुआ है कि जी-7 देशों के नेता कहानी के उपरोक्त दूसरे पक्ष का सामना करने में अक्षम हैं। उनमें ऐसा करने की इच्छाशक्ति का लगभग पूरा अभाव है। इसके बावजूद वे कहानी के पहले पक्ष की रक्षा के लिए आतुर हैं। वे साम्राज्यवादी धुरी के रूप में अपनी हैसियत में कोई गिरावट नहीं चाहते। ऐसा वे बिना अपनी अर्थव्यवस्था की ढांचागत समस्याओं को दूर किए करना चाहते हैं। तो उस हाल में सिर्फ सैनिक शक्ति का उपयोग एकमात्र रास्ता बच जाता है।
गुजरे 35 साल से इस रास्ते का खूब इस्तेमाल इन देशों ने किया है। चूंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने अपने अनुकूल खास तरह की विश्व व्यवस्था बनाई थी, जिसकी रक्षा के लिए उसने यूरोप और जापान, दक्षिण कोरिया आदि जैसे देशों की सुरक्षा का भार अपने ऊपर लिया था, इसलिए सैनिक शक्ति के प्रदर्शन का पूरा बोझ भी उसके ही कंधों पर आया है।
इस स्थिति ने अमेरिकी जन मानस में सैन्य बल प्रदर्शन के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया पैदा की है। ट्रंप ने अपने मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) आंदोलन के बैनर तले इस प्रतिक्रिया को एकजुट किया। इसी क्रम में उन्होंने ‘अनावश्यक युद्धों’ से अमेरिका को बाहर रखने का वादा किया।
अब सूरत यह है कि ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, कनाडा और जापान चाहते हैं कि अमेरिका ईरान से लेकर रूस और चीन तक के खिलाफ लड़ाई का मोर्चा संभाले रखे, ताकि पश्चिम की साम्राज्यवादी धुरी बेदाग बची रहे। मगर मागा समर्थन आधार के दबाव में ट्रंप चाहते हैं कि इस धुरी की रक्षा की कीमत ये देश भी चुकाएं। इस पर सहमति ना बनना ट्रंप काल में जी-7 देशों में मतभेद और उनके बीच उभरते टकराव का प्रमुख कारण है।
वैसे, दोनों- यानी ट्रंप और उनसे असहमत नेता इस हकीकत को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि पिछले 80 वर्षों के दौरान विकासशील दुनिया एक बड़ा हिस्सा नए सिरे से उठ खड़ा हुआ है। इस कहानी का प्रमुख पात्र चीन है। दुनिया की उत्पादन संबंधी प्रमुख औद्योगिक जरूरतों की आपूर्ति आज आम तौर पर ग्लोबल साउथ और खास तौर पर चीन कर रहा है। इससे विकासशील दुनिया अपने प्राकृतिक संसाधनों का भी बेहतर ढंग से अपने हित में इस्तेमाल कर रही है।
गुजरी कई सदियों से ये देश हाशिये पर रहे हैं, मगर अब धुरी की तरफ बढ़ने के क्रम में वे परधि से आगे की तरफ यात्रा शुरू कर चुके हैं। चूंकि इस क्रम में उसके पास अधिक संसाधन आए हैं, तो उसका एक बड़ा हिस्सा वे अपनी सैन्य शक्ति को निर्मित करने में भी लगा रहे हैँ।
इस शक्ति का ताजा प्रमाण इजराइल में देखने को मिला है। जब इजराइल ने ईरान पर हमला किया, तो उसे शायद ही अंदाजा था कि ईरान से किस पैमाने का जवाब उसे मिलेगा। 1945 में फिलस्तीन की जमीन पर औपनिवेशिक परियोजना के तहत जबरन बसाए गए इस कृत्रिम देश की अब तक पहचान ‘मारने वाले’ देश की रही है। धारणा रही है कि उसके सुरक्षा एवं खुफिया तंत्र को भेदा नहीं जा सकता।
चूंकि यह पहले ब्रिटिश और फिर अमेरिकी धुरी से संचालित पश्चिमी साम्राज्यवाद की एक चौकी के रूप में पश्चिम एशिया में मौजूद रहा है, इसलिए मान्यता रही है कि जो देश इजराइल के लिए खतरा पैदा करेगा, उसे सीधे पश्चिम की साझा ताकत का सामना करना होगा। यह ऐसा भय है, जिसने इजराइल की larger than life (असल ताकत की तुलना में बहुत बढ़ा-चढ़ा कर तैयार की गई) छवि को बनाए रखा है।
मगर वर्तमान युद्ध के दौरान तेल अवीव से लेकर हाइफा, यरुशलम ले लेकर गोलान पहाड़ियों और मध्य इजराइल तक ईरानी मिसाइलों से ध्वस्त हुईं इमारतें, रिफाइनरी, बंदरगाह, वैज्ञानिक शोध केंद्र और सुरक्षा ठिकाने गवाह हैं कि बंदूक की नली की दिशा अब एकतरफा नहीं रह गई है। 17 जून को जब ईरान ने कुख्यात इजराइली खुफिया एजेंसी मोसाद के मुख्यालय को जमींदोज कर दिया, तो दुनिया ने उसे एक प्रतीकात्मक महत्त्व की घटना के रूप में देखा। इसे दुनिया में तेजी से बदले और बदल रहे शक्ति संतुलन के प्रतीक के तौर पर देखा गया।
यह वो चोट है, जो दरअसल, प्रतीकात्मक रूप में, वॉशिंगटन, लंदन, पेरिस, बर्लिन, रोम, और ओटोवा तक पहुंची है। (टोक्यो को हम छोड़ रहे हैं, क्योंकि कनानास्किस में पश्चिमी सहमति में स्वर मिलाने से पहले जापान की सरकार ने 13 जून को ईरान पर शुरू हुए इजराइली हमलों की निंदा की थी और इसे अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताया था।) इसीलिए फिलहाल ईरान को रोकना या ईरान में तख्ता पलट उन सभी राजधानियों की प्राथमिकता है। और इसीलिए सातों देश ईरान विरोधी साझा बयान पर सहमत हुए।
क्या ये देश ईरान में अपने मकसद में कामयाब होंगे? अभी इस बारे में कुछ कहना कठिन है। मगर ऐसा हुआ भी, तो उससे सिर्फ इन देशों की सैन्य शक्ति की धार फिर से जाहिर होगी, जिसको लेकर वैसे भी अभी ज्यादा सवाल नहीं हैँ। मगर उससे उनकी उत्पादक अर्थव्यवस्था की क्षीण होती धार, बढ़ते सामाजिक विभाजन, डवांडोल होती राजनीतिक व्यवस्था, धूल-धूसरित होते सॉफ्ट पॉवर आदि का कोई समाधान नहीं निकलेगा। ना ही उससे उनके वे आपसी मतभेद पटेंगे, जिनकी वजह से कनानास्किस में साझा विज्ञप्ति जारी नहीं हो सकी।
हकीकत यह है कि सैन्य ताकत का संबंध भी अर्थव्यवस्था की जीवंतता, तकनीकी उन्नति और आर्थिक-सामाजिक खुशहाली से होता है। अगर मूलभूत समस्याएं बरकरार रहें, तो हथियार भी जंग खाने लगते हैं। चूंकि जी-7 देशों का नजरिया अपनी बुनियादी समस्याओं से नजर चुराने का है, इसलिए कहा जा सकता है कि विश्व शक्ति संतुलन की धुरी खिसकने की जो प्रक्रिया आगे बढ़ी है, उसकी दिशा पलटना उनके वश में नहीं रह गया है। कनाडा की मेजबानी में हुए जी-7 शिखर सम्मेलन ने एक बार फिर से यही जाहिर किया है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)