अर्थशास्त्रियों ने पूंजीवाद के बारे में कई मिथक गढ़े हैं। ब्रिटिश अर्थशास्त्री डेविड रिकार्डो द्वारा गढ़ा गया एक मिथक दो सदी तक कायम रहा। वे शुरू में मशीनरी के उत्साही समर्थक थे और उस समय के मजदूरों के इस तर्क को खारिज करते थे कि मशीनें बेरोजगारी बढ़ाती हैं।
अपनी किताब प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल इकॉनमी के तीसरे संस्करण में उन्होंने एक अध्याय जोड़ा, “मशीनरी पर”, जिसमें वे मजदूरों के विचार से सहमत हुए। लेकिन फिर उन्होंने तर्क दिया कि मशीनरी से लाभ की दर बढ़ेगी, जिससे संग्रह, विकास, और रोजगार की दर में वृद्धि होगी। इस तरह, लंबे समय में मशीनें और अधिक रोजगार पैदा करेंगी।
रिकार्डो के इस दावे की कार्ल मार्क्स ने अपनी किताब थ्योरीज ऑफ सरप्लस वैल्यू में आलोचना की। इस तर्क में कई खामियां हैं। पहली, रिकार्डो ने मशीनरी के एक बार लागू होने की बात की, जबकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तकनीकी बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है। यदि मान भी लिया जाए कि तकनीकी परिवर्तन से रोजगार बढ़ता है, तो वह दिन जब सारी बेरोजगारी खत्म हो जाएगी, हमेशा दूर होता जाएगा।
दूसरी, रिकार्डो का पूरा तर्क ‘से के नियम’ पर आधारित है, जो मानता है कि कुल मांग में कभी कमी नहीं होगी, यानी सारी बचत निवेश में बदल जाती है। यह नियम यह भी मानता है कि निवेश को बाजार के विकास से बाधित नहीं किया जा सकता और धन को किसी अन्य रूप, जैसे मुद्रा, में नहीं रखा जा सकता। यह अव्यावहारिक और अतार्किक है।
जब हम यह मान लेते हैं कि निवेश बाजार के विकास पर निर्भर है, तो मशीनीकरण के कारण मजदूरी से लाभ की ओर होने वाला शिफ्ट संग्रह की दर को घटा देता है। मशीनें आते ही बेरोजगारी बढ़ती है, क्योंकि मजदूरी उत्पादकता के साथ नहीं बढ़ती। इससे मजदूरी से लाभ की ओर शिफ्ट होता है।
चूंकि मजदूरी लगभग पूरी तरह उपभोग में खर्च हो जाती है, जबकि लाभ का केवल छोटा हिस्सा ही उपभोग में जाता है, कुल आय में उपभोग का हिस्सा घट जाता है। इससे अतिउत्पादन की स्थिति पैदा होती है, जिससे संग्रह की दर और रोजगार दोनों घटते हैं। इस तरह, रिकार्डो के दावे के विपरीत, मशीनीकरण से रोजगार की दर बढ़ने के बजाय घटती है।
बेशक, कुछ अवधियों में अन्य कारणों से संग्रह की दर बढ़ सकती है, जिससे रोजगार में वृद्धि हो सकती है, लेकिन यह मशीनों के कारण नहीं होगा। हम कह सकते हैं कि मशीनों के कारण शुरू में पैदा हुई बेरोजगारी की लंबे समय में भी पूर्ति नहीं हो सकती। फिर भी, रिकार्डो का यह विचार पूंजीवाद की विशेषता मान लिया गया कि यह शुरू में भले ही समस्याएं पैदा करे, अंततः सबके लिए अच्छे दिन लाता है। यह सच नहीं है। पूंजीवाद की शुरूआती कठिनाइयां अपने आप खत्म नहीं होतीं। पूंजीवाद के आंतरिक गतिविज्ञान में ऐसा कुछ नहीं है जो इसकी स्वयं पैदा की समस्याओं को हल कर सके।
फिर सवाल उठता है कि उन क्षेत्रों में, जहां पूंजीवाद का उदय हुआ, लोगों की जीवन-स्थितियों में सुधार कैसे हुआ? इस सुधार को उस सिद्धांत से कैसे समझा जाए, जो कहता है कि पूंजीवाद में स्थिति बद से बदतर होती है? दो ऐतिहासिक कारक इस पहेली को सुलझाते हैं।
पहला कारक था यूरोप से बड़े पैमाने पर जनसंख्या का स्थानांतरण। ये लोग स्थायी उपनिवेशों, जैसे अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया, में बसे, जो भारत जैसे जीते गए उपनिवेशों से अलग थे। इन स्थायी उपनिवेशों में बसे लोगों ने मूल निवासियों की जमीन पर कब्जा कर लिया। इससे यूरोप में मजदूरों की मजदूरी बढ़ी, क्योंकि मशीनीकरण के प्रभाव को इस उत्प्रवासन ने काउंटर कर दिया। यूरोप से इस प्रवास का पैमाना बहुत बड़ा था। अनुमान है कि करीब पांच करोड़ लोग प्रवासित हुए।
हर साल जितनी जनसंख्या बढ़ती थी, उसका लगभग आधा हिस्सा प्रवास कर जाता था। इस स्तर के लंबे समय तक चले प्रवास ने बेरोजगारों की बड़ी संख्या को अवशोषित किया और यूरोप के श्रम बाजार में सख्ती पैदा की। यह पूंजीवाद के बाहरी विस्तार का परिणाम था, न कि इसके आंतरिक गतिविज्ञान की कोई विशेषता, जिसने सुनिश्चित किया कि मशीनों के कारण रोजगार की स्थिति बदतर होने के बजाय बेहतर हुई।
दूसरा कारक था यूरोप के उत्पादकों का भारत जैसे जीते गए उपनिवेशों को निर्यात, जो इन उपनिवेशों में विऔद्योगीकरण ला रहा था। इससे मशीनों द्वारा पैदा बेरोजगारी केवल यूरोप की घरेलू अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसका बड़ा हिस्सा उपनिवेशों में फैल गया। इन उपनिवेशों में लंबे समय तक चली इस प्रक्रिया ने दक्षिणी विश्व में आज तक बड़े श्रम रिजर्व (लेबर रिजर्व) को जन्म दिया है।
चूंकि हम आम तौर पर इन श्रम रिजर्व को पूंजीवादी केंद्रों के मशीनीकरण से जोड़कर नहीं देखते, बल्कि केवल यूरोप में प्रवास के कारण घटे श्रम रिजर्व को मशीनीकरण से जोड़ते हैं, इसलिए हमें लगता है कि पूंजीवाद के आंतरिक गतिविज्ञान ने समय के साथ स्थिति को बेहतर किया। वास्तव में, पूंजीवाद के आंतरिक गतिविज्ञान का ऐसा कोई प्रभाव नहीं होता।
इसका दक्षिणी विश्व के लिए गंभीर निहितार्थ है। विश्व बैंक, आईएमएफ, और ऐसी ही अन्य एजेंसियां इसे एक धार्मिक सत्य की तरह प्रचारित करती हैं कि निर्बाध पूंजीवाद दक्षिणी विश्व की सारी बेरोजगारी और गरीबी को दूर कर देगा। इसके समर्थन में पश्चिमी यूरोप का उदाहरण दिया जाता है। यह पूंजीवाद के इतिहास और सिद्धांत दोनों की गलत व्याख्या है।
पी.सी. महलनोबिस जैसे प्रारंभिक योजनाकार इस सच्चाई को अच्छी तरह समझते थे। देश के विकास के लिए वे न केवल निर्बाध पूंजीवाद के बजाय सरकारी नियंत्रण चाहते थे, बल्कि कुटीर और लघु उद्यमों के लिए संरक्षण की भी वकालत करते थे। उन्होंने भारी उद्योगों पर जोर देने के साथ-साथ दूसरी पंचवर्षीय योजना में उपभोक्ता सामानों की उपलब्धता को बढ़ावा देने, देश की अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन करने, और कुटीर एवं लघु उद्यमों के विस्तार की योजना बनाई।
इसी तरह के विचार उस समय के चीन में “दो पैरों पर चलने” की नीति के रूप में लागू, लागू, किए जा रहे थे, ताकि विशाल आबादी वाले देश को औपनिवेशिक और अर्ध-औपनिवेशिक काल से विरासत में मिली बेरोजगारी और गरीबी से मुक्ति मिल सके।
यह दुखद है कि देश में आर्थिक विमर्श इतना एकरस हो गया है कि 200 साल पुराने पूंजीवाद के मिथकों को दोहराया जा रहा है। यह माना जा रहा है कि इससे दक्षिणी विश्व की गरीबी दूर हो जाएगी। जितनी जल्दी हम ऐसे मिथकों से मुक्त हो जाएं, उतना बेहतर होगा।
(न्यूज़क्लिक से साभार, अनुवाद: लाल बहादुर सिंह)