पाकिस्तान तक ने अमेरिका के ईरान पर हमले का विरोध किया है, जिनके सेनाध्यक्ष अभी ट्रंप के साथ लंच करके लौटे हैं लेकिन भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी उल्टे ईरान को ही शांति और संयम की सलाह दे रहे हैं। ट्रंप के बारम्बार भारत-पाक के बीच मध्यस्थता संबंधी बयान पर तो मोदी जी एक बार भी स्वयं जवाब नहीं ही दे पाए। सचमुच भारत की विदेश नीति इतनी दिशाहीन और लचर कभी नहीं रही।
इस समय दुनिया एक बड़े संक्रमण के दौर से गुजर रही है। इसके कई पहलू हैं। सर्वोपरि आर्थिक रूप से नवउदारवाद एक अंधी गली में फंसा हुआ है। ट्रंप ने नया कार्यकाल शुरू होते ही MAGA के नाम पर टैरिफ युद्ध छेड़ दिया जिस पर तमाम देशों ने अपने-अपने ढंग से प्रतिक्रिया शुरू कर दी।
अर्थशास्त्री यह मान कर चल रहे हैं कि इससे नवउदारवाद का संकट और गहरा होगा और पूरी दुनिया में अफरातफरी का माहौल पैदा होगा, विशेषकर दक्षिणी विश्व के जो देश हैं वहां रोजगार संकट और बढ़ जाएगा। स्वयं अमेरिका का भी अंततः इसमें कोई लाभ नहीं होगा। बहरहाल युद्ध की बजाय शांति के लिए काम करने और आर्थिक रूप से अमेरिका को पुनः महान बनाने के अपने चुनावी वायदों से एक सौ अस्सी डिग्री पलटी मारते हुए ट्रंप ने अचानक ईरान पर हमला बोल दिया और एक तरह से युद्ध में शामिल हो गया।
इजराइल जिस तरह गाजा में जनसंहार कर रहा है वह अभूतपूर्व है और उसे पूरे पश्चिमी पूंजीवादी केंद्रों का समर्थन प्राप्त है। विश्व जनमत इस समय पूरी तरह इजरायल के खिलाफ है इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका गाजा में जिस तरह मासूमों का जनसंहार इजराइल ने किया है और जो आज भी जारी है, उसकी है। गाजा के सारे अस्पतालों को ज़मींदोज़ कर दिया गया, यहां तक कि बच्चों तक को नहीं बख्शा गया, राहत सामग्री और खाने के लिए कटोरा लेकर खड़े लोगों को कत्ल कर दिया गया। इतनी अमानवीय क्रूरता की है। बल्कि शुरुआत में हमास ने जब इजराइल पर हमला कर बंधक बनाए थे तो अच्छे खासे लोगों में इसको लेकर नाराजगी थी।
बहरहाल इजराइल के आसपास जो हमास जैसे हथियारबंद ताकतें थीं, हिजबुल्ला आदि उन्हें इजराइल ने पहले राउंड में ही कमजोर कर दिया। उसके कमांडर को ईरान में ही मार दिया। पश्चिम एशिया की अधिकांश ताकतें अमेरिका की कठपुतली हैं जहां लोकतंत्र का नामोनिशान नहीं है। ईरान अकेली ऐसी शक्ति है जो अमेरिका की कठपुतली नहीं है और एटॉमिक पावर बनने की ओर बढ़ रहा था। यह सच है कि वहां उदार लोकतंत्र नहीं है वह एक इस्लामिक राज्य है जहां के राष्ट्र के सबसे बड़े धार्मिक नेता देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति हैं, वह वास्तविक अर्थों में एक आधुनिक राष्ट्र और समाज नहीं है।
महिलाओं की आजादी सीमित है। एक ईरानी नागरिक की नजर में “हम दो ढहती संरचनाओं के बीच फंसे हुए हैं: एक आंतरिक, एक बाहरी। एक तरफ, हम एक गहरे अकर्मण्य सरकार का सामना कर रहे हैं, जिसका नेतृत्व सर्वोच्च नेता और इस्लामिक गणराज्य के अनिर्वाचित संस्थानों द्वारा किया जा रहा है। दशकों के आर्थिक कुप्रबंधन, असंतोष के दमन, और क्रूर विचारधारात्मक नियंत्रण ने कई पीढ़ियों को अलग-थलग कर दिया है। अब कोई भी सुधार पर विश्वास नहीं करता है – क्योंकि हर प्रयास या तो हड़प लिया गया है या कुचल दिया गया है।
लेकिन यहाँ विरोधाभास है: हम शासन के पतन से भी डरते हैं – क्योंकि हमने इराक, लीबिया, सीरिया और अफगानिस्तान जैसे देशों में पश्चिमी हस्तक्षेप के बाद के परिणाम देखे हैं। प्रत्येक को स्वतंत्रता का वादा किया गया था; प्रत्येक अराजकता, गृह युद्ध या विदेशी कब्जे में उतर गया। इसलिए नहीं, हम अमेरिका या इज़राइल पर भरोसा नहीं करते हैं। इसलिए नहीं कि हम अपने शासन का समर्थन करते हैं – बल्कि इसलिए कि हम जानते हैं कि साम्राज्यवादी शक्तियां मध्य पूर्व में ‘मुक्त’ राष्ट्रों के साथ कैसा व्यवहार करती हैं। “
इस पूरे प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण चीन के उभार के साथ उससे ईरान के घनिष्ठ होते संपर्क हैं। दरअसल जिस तरह चीन के उभार के साथ और उधर रूस के नाटो और पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ डटे रहने के कारण एक नई विश्व व्यवस्था की आहट सुनाई पड़ रही है उससे अमेरिका और उसके मित्र देश घबराए हुए हैं। अमेरिका ट्रंप के नेतृत्व में अपनी चौधराहट कायम रखने के लिए बेचैन है।
जब कि साम्राज्यवाद के शोषण से परेशान देश चीन-रूस के नेतृत्व में ब्रिक्स और SCO जैसे वैकल्पिक मंचों के माध्यम से इन हालात से निकलना चाह रहे हैं। यहां तक कि डॉलर की जगह वैकल्पिक मुद्रा की भी बात चल रही है। तमाम देश अपनी मुद्राओं में ही परस्पर व्यापार कर रहे हैं।
अमेरिका और उसके सहयोगी यूरोपीय देशों की हर चंद कोशिश इस नई व्यवस्था के उदय को रोकना है। लेकिन जैसा कहा गया है जिस विचार का समय आ गया है उसे कोई रोक नहीं सकता।
भारत इस पूरे प्रकरण में संघ-भाजपा और मोदी सरकार बुरी तरह एक्सपोज हो गए हैं।स्वयं मोदी की विश्वगुरु की छवि को जबरदस्त धक्का लगा है। सबसे पहले पहलगाम हमले की पृष्ठभूमि में चार आतंकियों का आज तक पता न लगना, हद तो तब हो गई जब सरकार द्वारा जारी स्केच भी फर्जी निकली, जिसे अब तक सरकार अपनी इकलौती उपलब्धि बता रही थी। उसके जवाब में वह लड़ाई और फिर जिस तरह ट्रंप के दबाव में युद्ध विराम की घोषणा हुई उससे मोदी सरकार की जबरदस्त किरकिरी हुई।
भारत की घोषित नीति के विपरीत बारम्बार जिस तरह ट्रंप ने घोषणा की कि उन्होंने भारत-पाक दोनों को व्यापार का लालच देकर दबाव बनाने और युद्ध विराम करवाने में सफलता पाई, वह भारत के लिए बेहद अपमानजनक है। और यह भी साबित हुआ कि मोदी ने राष्ट्रीय नीति का उल्लंघन कर अमेरिका की मध्यस्थता स्वीकार की है। सबसे शर्मनाक तो यह था कि ट्रंप के लगातार इस आशय के बयानों के बावजूद मोदी एक बार भी यह नहीं कह पाए कि ट्रंप झूठ बोल रहे हैं।
युद्ध विराम से मोदी समर्थक लॉबी में जबरदस्त गुस्सा एवं निराशा व्याप्त है। इस पूरे प्रकरण में सरकार कई तरह से घिरती नजर आई।सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि इस पूरे प्रकरण में कोई देश भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ, न ही आतंकवाद के लिए किसी ने पाकिस्तान की आलोचना की। सवाल तो यह भी खड़ा है आखिर वे आतंकवादी पकड़े क्यों नहीं जा सके और जहां हजारों सैलानी थे वहां एक भी सशस्त्र बल की टुकड़ी क्यों नहीं थी।
सरकार का जो दावा था कि कश्मीर में 370 हटने के बाद से आतंकवाद खत्म हो गया, उसका क्या हुआ। इधर भक्तों को यह उम्मीद थी कि अब POK तो भारत में आ ही जाएगा और बलूचिस्तान आदि अलग हो जाएंगे और पाकिस्तान के चार टुकड़े हो जाएंगे। लेकिन इसमें से कोई ख्वाहिश न पूरी होनी थी न ही फैसला। ये सारी हवाई कल्पनाएं किसी वास्तविक शक्ति संतुलन के आंकलन पर आधारित न होकर ख्याली पुलाव थीं। लिहाजा इसमें से कोई चीज पूरी नहीं।
उधर पाकिस्तान में जश्न मनाया जा रहा था और सेनाध्यक्ष की पदवी बढ़ाकर उन्हें फील्ड मार्शल बना दिया गया। यह तो जैसे जले पर नमक छिड़कने जैसा हो गया कि पाकिस्तान को इसी दौर में न सिर्फ IMF, WB, ADB से भारी धनराशि मिल गई, बल्कि उसे आतंकवाद विरोधी कमेटियों का पदाधिकारी बना दिया गया। बदनाम इजराइल और तालिबान के अलावा भारत के साथ कोई देश खड़ा नहीं हुआ। यहां तक कि पुराने आजमाए दोस्त रूस ने भी अबकी बार उस तरह साथ नहीं दिया। यही हाल अभी ईरान-इजराइल युद्ध के समय हुआ। भारत आक्रांता इजरायल के खिलाफ एक बयान तक नहीं दे सका बल्कि ईरान को ही धैर्य और संयम का पाठ पढ़ाता रहा।
कुल मिलाकर इस पूरे दौर के घटनाक्रम ने भारत की विदेश नीति के दिवालियेपन को पूरी तरह एक्सपोज कर दिया है और मोदी की साख में भारी बट्टा लगा दिया है जिससे उबर पाना उनके लिए आसान नहीं होगा।
(लाल बहादुर सिंह इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं।)