नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर हमले के बवजूद विपक्ष किस हदबंदी का शिकार है?

बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले चुनाव आयोग के माध्यम से फासिस्ट ताकतों ने मतदाता गहन पुनरीक्षण का दांव चलकर देश के नागिरकों को दो धड़े में बांट दिया है। कई दलों ने इसे एनआरसी की संज्ञा दी है तो तृणमूल कांग्रेस इसे एनआरसी से भी खतरनाक कवायद बता रही है।

कांग्रेस, आरजेडी, तृणमूल, समाजवादी पार्टी, सीपीआई (एमएल), सीपीआई और सीपीआई (एम) सहित तमाम दल लगातार इस जनविरोधी कदम के बारे में प्रेस कांफ्रेंस, ट्वीट और मीडिया में बयान जारी कर रहे हैं। यहां तक कि एनडीए के घटक दलों में भी बहस और चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। लेकिन चुनाव आयोग की मुहिम बेरोकटोक आगे बढ़ रही है, और अगले 3 सप्ताह में यह अभियान पूरा भी हो जायेगा।

इस पूरी कवायद को 10 दिन दिन पूरे हो रहे हैं। इस बीच 11 पार्टियों के नेता चुनाव आयोग से मिलकर अपनी हताशा भी व्यक्त कर चुके हैं। देश में तमाम बुद्दिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, कानूनविदों और स्वतंत्र टिप्पणीकारों सहित सोशल मीडिया पर आम लोगों की प्रतिक्रियाएं भी देश देख-पढ़ रहा है। आज ADR ने चुनाव आयोग के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर SIR प्रक्रिया को तत्काल रोके जाने की मांग भी कर दी है।

लेकिन इस प्रक्रिया में एक सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह उभरकर आ रहा है कि राज्य की दमनकारी कुचक्रों का प्रभावी मुकाबला करने के लिए विपक्ष के पास कोई योजना का न होना। चुनाव आयोग की ओर से ऐन चुनाव से पहले बिहार में मनमानेपूर्ण ढंग से SIT की घोषणा कर दी जाती है, जिसमें वैध मतदाता होने के लिए जो मापदंड निर्धारित किये गये हैं, उसमें चुनिंदा तौर पर बड़ी संख्या में निरक्षर, गरीब खासकर दलित, आदिवासी, महिलाएं और अल्पसंख्यक समाज के हाशिये पर चले जाने की पूरी-पूरी संभावना है। देश में वैध मतदाता की पहचान को स्थापित करने के लिए सबसे विश्वसनीय माध्यम आधार कार्ड ही हो सकता है, लेकिन इसे जानबूझकर सूची में शामिल नहीं किया गया है।

इन तथ्यों को विपक्षी दलों के द्वारा इतनी बार दोहराया जा चुका है, कि चुनाव आयोग ने यदि यह फैसला नादानी में किया होता तो अभी तक वह इसे दुरुस्त कर चुकी होती। लेकिन जब सबकुछ सोच-समझकर किया गया है, तब विपक्ष को किस बात की आस बनी हुई है? वो तो दिल्ली एनसीआर में ही डटा हुआ है और सोचता है कि सिर्फ मीडिया के माध्यम से वह ढीठ तंत्र को पुनर्विचार करने पर मजबूर कर देगा?

कल न्यूज़ 24 के राजीव रंजन ने दिल्ली से कूच करते हुए उत्तर प्रदेश से बिहार की सीमा पर स्थित बक्सर जिले के एक गाँव का दौरा किया। उनकी रिपोर्ट से पता चलता है कि उक्त गाँव में एक दुकानदार को छोड़ किसी को भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि बिहार में वैध मतदाता पहचान के लिए कोई अभियान चल रहा है। उस दुकानदार को भी यह जानकारी इसलिए थी, क्योंकि उसका आवास शहर में था।

गाँव वाले अभी तक इसी गुमान में थे कि उनके पास तो मतदाता कार्ड, आधार कार्ड सहित राशनकार्ड और मनरेगा कार्ड जैसी चीजें हैं। वे ग्रामवासी हैं, और अभी तक विभिन्न पार्टियों को गर्ज होती थी चुनाव के वक्त आम लोगों के दरवाजे तक जाने की। उन्हें पता ही नहीं कि चुनाव आयोग ने स्थिति को उलट दिया है, और अब मतदाता को साबित करना है कि वह देश का वैध नागरिक है।

यह बताता है कि चुनाव आयोग के बड़े-बड़े दावों की हकीकत क्या है। लेकिन यह बात तो विपक्ष भी जानता होगा, फिर वह खुद को दिल्ली और पटना तक सीमित क्यों रखे हुए है? बिहार विधानसभा चुनाव में किसकी जीत-हार होती है, इससे कई गुना ज्यादा यह मुद्दा बिहार के करोड़ों नागरिकों के भविष्य का बन चुका है। इसके बावजूद विपक्षी दल उनके बीच रायशुमारी में व्यस्त हैं, जिनका बिहार से कोई सीधा वास्ता नहीं है। विपक्ष का यह दिवालियापन कुछ बातों पर गहराई से सोचने के लिए मजबूर कर रहा है।

1. क्या विपक्षी दलों के पास भाजपा/संघ की तरह मजबूत सांगठनिक काम का अभाव है? क्या उसे डर लगता है कि यदि उसने ऐसी कोई मुहिम चलाई तो उसके पास पर्याप्त मात्रा में कार्यकर्ता नहीं मिलेंगे?

2. 2024 लोकसभा चुनाव से पहले नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने दो बार भारत जोड़ो अभियान चलाया और यह उसी का नतीजा था कि पार्टी की सीटें 52 से बढ़कर 99 तक पहुंच गई। लेकिन कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रभाव छोड़ने पर कामयाब होने के बावजूद उन प्रदेशों में अपना सांगठनिक कामकाज नहीं बढ़ा सकी। इसकी बड़ी वजह यह बताई जाती है कि संगठन के अधिकांश पदों पर अभी भी उन लोगों का कब्जा है जिन्हें सत्ता की मलाई खाने की आदत है। इनकी कार्यशैली एक दशक से अधिक समय से सत्ता में न होने के बावजूद भाजपा से बेहतर नहीं है।

3. राष्ट्रीय जनता दल जैसे क्षेत्रीय दलों की आकांक्षा परिवार से आगे नहीं जाती। इनका वोटर बेस भी कमोबेश स्थिर बना हुआ है, और घरेलू या विदेश नीति को लेकर इनके अपने कोई विचार नहीं हैं, या कहें कि ऐसा कोई विजन रखने की इन्हें जरूरत ही महसूस नहीं होती। इनका अतीत वर्तमान पर हावी रहता है, जिसका फायदा कैसे और कब लेना है यह मोदी/अमित शाह बखूबी जानते हैं। ऐसे में, चाहते हुए भी यदि बिहार में राजद कोई बड़ा आंदोलन न छेड़े तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

4. 80 के दशक में दलितों-भूमिहीनों को आधार बनाकर उभरी सीपीआई (एमएल) इनमें एक अपवाद है, लेकिन उसने भी खुद को काफी हद तक गठबंधन की परिधि में सीमित कर रखा है। संसदीय राजनीति को आंदोलन का एक और औजार बनाने की कवायद कब पार्टी के रैंक और फाइल पर हावी हो जाती है, इसे स्थापित वाम दलों के बाद इस दल में भी देखा जा सकता है।

मौजूदा स्थिति पर गौर करने पर हम पाते हैं कि नव-उदारवादी व्यवस्था का संकट आज अपने चरम पर है। ट्रंप, ट्रेड टैरिफ, विदेश नीति, ऑपरेशन सिंदूर और सीजफायर सहित आर्थिक मोर्चे पर भाजपा की मोदी सरकार आज जिस कदर चारों ओर से घिरी हुई है, वैसी पहले शायद ही कभी रही हो।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 41 लाख फर्जी वोटर्स को जोड़ने के सवाल पर मुंह छिपाते चुनाव आयोग और भाजपा सरकार ने बिहार में वोटबंदी का दांव खेलकर विपक्ष को उलझाने की कोशिश की है। उसे पता है कि यह दांव उसके लिए भारी नुकसान भी पहुंचा सकता है, पर संभवतः उसे विपक्ष की कमजोरियों का भी अंदाजा था। इसी को देखते हुए उसने सधे कदमों से यह पैंतरा खेला है।

अगर मोदी सरकार का यह दांव कामयाब रहता है तो अंबेडकर के संविधान को बदले बिना भी आधी आबादी के मताधिकार जैसे मूलभूत अधिकारों का अपहरण करना संभव है। एक बार यह लक्ष्य हासिल कर लिया गया तो सामाजिक न्याय की शक्तियों, अंबेडकरवादियों, मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों और आर्थिक रूप से हाशिये पर खड़े वर्ग की चिंता करने से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी।

कल्याणकारी राज्य की अवधारणा हो या संविधान में भारत के समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राज्य होने की बात लिखी हो या न लिखी हो, का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। उत्तर प्रदेश में 29,000 विद्यालयों को बंद करने की मुहिम की पहली किश्त में 5,000 स्कूलों का चयन किया जा चुका है। एक निर्द्वन्द क्रोनी-कैपिटलिस्ट-हिंदुत्ववादी राज्य का सपना साकार करने के लिए बिहार में चल रहा यह प्रयोग असाधारण महत्व का है।

आरएसएस की सौवीं वर्षगाँठ पर भारतीय संविधान के हम भारत के लोग की ऐसी धज्जियां भला किस दमनात्मक कार्यवाही से संभव बनाया जा सकता है? इस एक मास्टरस्ट्रोक से न सिर्फ विपक्ष बल्कि एनडीए में शामिल पासवान, राजभर, मांझी, नीतीश, निषाद, पटेल आदि-आदि भी अपने आप हाशिये पर चले जाने हैं। बड़ा सवाल यह है कि क्या विपक्ष यह सब देखते हुए भी अपने कदम आगे बढ़ाने का साहस जुटायेगा?

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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