पूंजीवाद ने ‘बेचो और खरीदो’ के सिद्धांत में दुनिया को बदल दिया है। इसने मनुष्य को नागरिक से ग्राहक और फिर वस्तु में तब्दील कर दिया। आज मनुष्य वस्तु बनकर बेचा और खरीदा जा रहा है। भारत और दुनिया भर में महिलाएँ धर्म, नस्लवाद, वर्णवाद और पितृसत्ता के अधीन होकर वस्तु और भोग्या का जीवन जी रही हैं। भूमंडलीकरण ने पुरुषों को भी महिलाओं के समान वस्तु बनाकर ‘बेचो और खरीदो’ के तंत्र से पूरी दुनिया में शोषण का एकछत्र पूंजीवादी साम्राज्य स्थापित किया है।
आज पूंजीवाद अपने चरम पर पहुँचकर सिर्फ पूंजी बनकर रहना चाहता है, ताकि दुनिया गुलाम हो और पूंजी का राज कायम हो। पूंजीवाद में ग्राहक की थोड़ी-बहुत सुनवाई होती है, लेकिन पूंजी केवल मुनाफे का राज चाहती है। ट्रंप और एलन मस्क का द्वंद्व ‘पूंजी और पूंजीवाद’ का द्वंद्व है।
आज शोषण, दमन, युद्ध, हिंसा और धर्मांधता के भयानक दौर में समता, समानता, न्याय, अहिंसा और मानवता त्राहि-त्राहि कर रही हैं। दुनिया को संतुलित करने वाला साम्यवाद भी पूंजीवादी तानाशाही का प्रतीक बनकर पूंजीवादी शोषण में लिप्त हो गया है।
इस विनाशकारी दौर में बुद्धिजीवी वर्ग विलुप्त हो चुका है। युवा पीढ़ी झोंबी अवतार में हमारे सामने है। तकनीक पर सवार दुनिया सोशल मीडिया, टीवी चैनलों और अखबारों के भ्रमजाल में फँसकर झूठ को जी रही है।
ऐसे समय में, आदिकाल से मनुष्य को मनुष्य बनाने वाली चेतना को जागृत करने वाली कलात्मक विधा ‘रंगकर्म-रंगमंच’ की मानवता को बचाने में अहम भूमिका है।
जी हाँ, आदिकाल से अब तक सत्ता केवल नियम बना सकती है, युद्ध कर सकती है। धर्म शोषण के पाखंड रच सकता है। लेकिन मनुष्य को मनुष्य बनाती है केवल ‘कला’!
थियेटर ऑफ रेलेवंस (TOR) नाट्य दर्शन विगत 33 वर्षों से मानवता को बचाने के लिए दुनिया भर में रंग आंदोलन को प्रेरित कर रहा है। यह आंदोलन बिना सरकारी, कॉर्पोरेट या राजनीतिक पार्टियों की पूंजी के, केवल दृष्टि, विचार और विवेक से प्रेरित कलात्मक प्रतिबद्धता, दर्शक संवाद और जन सहभागिता के बल पर चल रहा है।
असंभव लगता है, ना? जी हाँ, पूंजीवादी व्यवस्था ने यही जाल बिछाया है कि बिना पूंजी कोई कार्य संभव नहीं। थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने अपनी वैचारिक और कलात्मक प्रतिबद्धता से इस असंभव को संभव कर दिखाया।
ज़रा गौर करें: पूरा पूंजीवाद बेचने और खरीदने पर टिका है। लेकिन जो खरीद रहा है, वह कौन है? जो उत्पादन कर रहा है, वह कौन है?
इसे सरल ढंग से समझें: जनता अपने कल्याण के लिए सरकार की ओर देखती है। सरकार से आर्थिक मदद की गुहार लगाती है। पर सरकार किसके पैसे या संपति पर ताकतवर बनती है । वो है जनता का पैसा और संपति । सरकार जनता के टैक्स से शक्तिशाली बनती है पर जनता गरीब ही रहती है।
थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने इस चक्र को भेदा और सीधे जनता, यानी दर्शकों, से संवाद कर जनसरोकारों को मंचित किया।
थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने पूंजीवादी सत्ता के इस भ्रम को तोड़ा कि कला केवल मनोरंजन, यानी टाइमपास, के लिए होती है।
थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने साम्यवादी प्रचार के उस मिथक को भी तोड़ा कि कला केवल प्रचार के लिए होती है।
थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने सरकारी ड्रामा स्कूलों से प्रशिक्षित अधकचरे और कूड़ा-करकट रंगकर्मियों द्वारा फैलाई गई भ्रांतियों को तोड़कर जनमानस को रंगकर्म के मूल उद्देश्य से अवगत कराया। साथ ही, अवसरवादी बौद्धिक वर्ग द्वारा रंगकर्म को केवल एक माध्यम तक सीमित करने वाले चक्रव्यूह को भेदकर यह स्थापित किया कि ‘रंगकर्म मानवमुक्ति का उन्मुक्त दर्शन है।’
हर सत्ता कला और कलाकारों से डरती है, इसलिए कला और कलाकारों को अपने संसाधनों पर आश्रित कर उनका गुणगान करवाती है। अपने जयकारों के बदले कला के नाम पर नाचने-गाने वाले जिस्मों को पद्म भूषण जैसे सम्मानों से नवाजती है और ग्रांट के सिक्के फेंककर नुमाइश करवाती है।
थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने सत्ता की इन साजिशों और षड्यंत्रों को भेदते हुए जनता को अपना रंग आधार बनाया। जनता को केवल आर्थिक सहभागिता तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें कला की वैचारिकी से जोड़कर उनकी सहभागिता सुनिश्चित की।
बाजारवाद के दौर में नुमाइश करने वाले कलाकारों को कला और रंगकर्म की चेतना से जोड़कर समग्र कलाकार और रंगकर्मी के रूप में तराशा।
नाट्य मंचन के बाजारू नुस्खों-जैसे नाट्य गृह बुक करना, बिकाऊ अखबारों में विज्ञापन देना, महँगा सेट लगाना, बिकाऊ समीक्षकों से वाहवाही करवाना और सरकारी या कॉर्पोरेट के पैसे पर भोग करना-थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य दर्शन ने इन सबको पलट दिया।
इसने जन संवाद के माध्यम से दर्शक समाज तैयार किया। विज्ञापन नहीं दिए। सेट के बजाय कलाकारों की देह बोली को विकसित किया। नाट्य गृह के मंच पर नाटक प्रस्तुत करने के बजाय दर्शकों के मस्तिष्क में नाटक मंचित किया।
इस प्रयोग ने ‘वैचारिक नाटक नहीं चलते’ के मिथक को तोड़कर वैचारिक नाटकों के हाउसफुल का बोर्ड बॉक्स ऑफिस पर लगाया, जो पिछले 33 वर्षों से सतत जारी है।
दर्शक संवाद मार्केटिंग नहीं है। यह दर्शकों का कलात्मक प्रशिक्षण है, जो रंगकर्म के समग्र आयामों से दर्शकों को रूबरू कराता है।
दर्शक संवाद कलाकारों को मायावी, यानी ग्लैमरस, भ्रम से निकालकर ठोस यथार्थ के धरातल पर रखता है। यह दर्शकों से एक कलात्मक नाता निर्माण कर कला चेतना का विस्तार करता है और कलाकारों व दर्शकों के मानवीय पहलुओं को समृद्ध करता है।
दर्शक संवाद नुमाइश की बजाय कलात्मक प्रस्तुति को नए आयाम देता है। यह कलाकारों का आर्थिक स्वावलंबन सुनिश्चित करता है, जिससे कलाकार का अपनी रंग कला पर विश्वास सुदृढ़ होता है।
थियेटर ऑफ रेलेवंस नाट्य दर्शन कलाकारों को सीधे दर्शकों से जोड़कर ‘रंगकर्म से बदलाव’ को सुनिश्चित करता है और मनुष्य को इंसान व दुनिया को मानवीय बनाने के लिए कलात्मक रूप से प्रतिबद्ध है।
(मंजुल भारद्वाज प्रसिद्ध रंगकर्मी हैं)