टेक महिंद्रा का दफ्तर।

टेक महिंद्रा के कर्मचारी ट्विटर पर गुहार लगा रहे हैं, कोविड से बचाओ

(सेक्टर 62, नोएडा में स्थित टेक महिंद्रा के कर्मचारी कोविड से बचाने की गुहार लगा रहे हैं। बताया जा रहा है कि वहां काम करते हुए एक कर्मचारी राजेश की कोविड से मौत हो गयी है। प्रबंधन का रवैया यह था कि वह राजेश से अस्पताल में रहने के दौरान भी काम लेता रहा। इस बीच, दफ्तर में कई और कर्मचारी भी कोरोना संक्रमित हैं। लेकिन उनका इलाज कराने या फिर उन्हें छुट्टी देने की बजाय प्रबंधन लगातार उनसे काम पर आने के लिए कह रहा है। दूसरे कर्मचारियों से भी इसी तरह से जबरन दफ्तर आने का दबाव डाला जा रहा है। इसका नतीजा यह है कि पूरे दफ्तर में हाहाकार मचा हुआ है। और उसके कर्मचारी ट्विटर समेत सोशल मीडिया के दूसरे माध्यमों से अपील कर रहे हैं। लेकिन उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है।

दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने इसमें जिला प्रशासन से लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक को टैग कर रखा है। इसी से जोड़कर वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने अपने फेसबुक पेज पर एक टिप्पणी लिखी है। जिसमें उन्होंने इसकी सुनवाई न होने के पीछे तमाम संस्थाओं के धीरे-धीरे खत्म होने को प्रमुख कारण बताया है। उनका कहना है कि जब सुनवाई करने वाली संस्थाएं ही खत्म हो गयीं हैं और इस काम में गुहार लगाने वालों समेत हम सभी ने योगदान दिया है तो फिर आज सुनवाई करेगा भी तो कौन? सचमुच में यह एक बड़ा सवाल है। पेश है रवीश कुमार की वह संक्षिप्त लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणी-संपादक)

कुछ चीजों की लिस्ट बना लें। इससे आपको बार-बार या अपनी ज़रूरत के मौक़े पर कुढ़ने की ज़रूरत नहीं होगी। आज से नहीं बल्कि कई दशकों से लोकतंत्र की संस्थाएँ ख़त्म हो रही थीं। इन चीजों को बनाए रखने का मोल किसी ने नहीं समझा। लोगों के अधिकार सुनिश्चित कराने के लिए कई संस्थाएँ थीं। वो भीतर से खोखली और असरहीन कर दी गईं। फिर आया मीडिया। सारी दंतहीन संस्थाओं का विकल्प बन कर। अब यह भी ख़त्म हो चुका है। 

यह आपकी जानकारी और भागीदारी से हुआ। आपकी चुप्पी भी भागीदारी है। वरना नाम के लिए कितनी संस्थाएँ हैं। लेबर कोर्ट है। लेबर कमिश्नर है। अब जो समाप्त हो चुका है उसका इस्तेमाल कुढ़ने के लिए न करें। इंजीनियर या डॉक्टर हो जाने से आपके अधिकार ज़्यादा सुरक्षित हैं या आपका शोषण नहीं होगा, ये भ्रम क्यों है, इसका आधार क्या है? क्या आपने दूसरे के लिए आवाज़ उठाई ? जब संस्थाएँ लोगों का दमन करती हैं तो आप लोगों के साथ खड़े होते हैं?

अब क्या बचा है ? ट्विटर, फ़ेसबुक और वायरल। आख़िरी ठिकाना है। जब बड़ी-बड़ी संस्थाएँ ख़त्म कर दी गईं तो ये तो दुकान है। ये भी ख़त्म होंगी। बल्कि हो चुकी हैं। अब यहाँ पर आलसी लोग ट्वीट करते हैं। कई लोग मुझे बताते हैं कि हमने छह बार ट्रेंड कराया। पाँच लाख ट्वीट किया। बीस बार ट्रेंड कराइये। उससे क्या होता है? जब जनता ने जनता को ही समाप्त कर दिया तो उसकी संख्या का कोई मतलब नहीं है। उसके साथ होने वाली नाइंसाफ़ी मीडिया और ट्विटर से दूर नहीं होगी। जब संस्थाएँ ही नहीं बची हैं तो मीडिया जगायेगा किसको। जब संस्थाएँ ही नहीं हैं तो ट्रेंड कराने से सुनेगा कौन। बेशक अपवाद के मामले में कुछ-कुछ हो जाएगा लेकिन व्यापक रूप से आप सभी की मेहनत से ये समाप्त हुआ है। इसे सेलिब्रेट कीजिए। वरना बताइये आपने बनाया क्या है?

कई लोग मुझे ही बताते हैं कि मीडिया चुप है। ख़त्म हो गया। हमारी बात उठा क्यों नहीं रहा? भाई मैं यही तो कई साल से कह रहा हूँ। तब आप सुन नहीं रहे थे। अब सारा मीडिया का विकल्प तो मैं नहीं हो सकता। संभव भी नहीं है। मैं तो ये बात कई साल से कह रहा था। अब आप अपने अंदर स्वाभिमान लाएँ। न मीडिया को कोसें। न मीडिया से कहें। अगर इसके बिना नहीं रह सकते तो संस्थाओं के निर्माण में जुटें और मीडिया के भी।

(रवीश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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