शहादत दिवसः शहीद गौरी लंकेश हैं कन्नड़ की प्रगतिशील बहुजन चिंतन परंपरा की अहम कड़ी

“मैं हिंदुत्व की राजनीति की निंदा करती हूं और जाति व्यवस्था की भी, जो हिंदू धर्म का हिस्सा मानी जाती है। इसके कारण मेरे आलोचक मुझे हिंदू-विरोधी बताते हैं। परंतु मेरा यह मानना है कि एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए जो संघर्ष बासवन्ना और आंबेडकर ने शुरू किया था उसे आगे बढ़ाना मेरा कर्तव्य है और जितनी मेरी शक्ति है उतना मैं कर रही हूं।”
-गौरी लंकेश (साक्षात्कार, उद्धृत सिंथिया स्टीफेन)

“मनुवादियों ने बहुजनों के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा। हमें इस इतिहास पर पड़े धूल-धक्कड़ को झाड़ना पड़ेगा, पौराणिक झूठों का पर्दाफाश करना पड़ेगा और अपने लोगों तथा अपने बच्चों को सच्चाई बतानी पड़ेगी। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर चल कर हम अपने सच्चे इतिहास के दावेदार बन सकते हैं।”
-गौरी लंकेश (वेब पोर्टल बैंगलोर मिरर में 29 फरवरी, 2016)

“लिंगायत बासवन्ना और शरणों के अनुनायी हैं। जिनका दर्शन और विचार उनके हजारों वचनों में प्रकट होते हैं। इन वचनों में वेदों, शास्त्रों, स्मृतियों और उपनिषदों को खारिज किया गया। बासवन्ना वर्ण व्यवस्था पर आधारित जाति व्यवस्था को भी खारिज करते हैं। वे कर्म-फल के सिद्धांत को रद्द करते हैं, और इस पर आधारति पाप-पुण्य की अवधारणा को भी खारिज करते हैं। इसके साथ ही वे इस पाप-पुण्य के सिद्धांत पर आधारित स्वर्ग-नरक की अवधारणा को भी अस्वीकार करते हैं। बासवन्ना मंदिरों और मूर्तियों की पूजा से घृणा करते हैं। वे शिव के लैंगिक लिंग के प्रतीक को अस्वीकार करते हैं, उसकी जगह इस्था लिंग (इस्था लिंग) को स्वीकार करते हैं, जो व्यक्ति की अन्तःकरण का प्रतीक है। वे कर्म को ही पूजा मानते हैं। जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव के खिलाफ थे। वे अंधविश्वासों से घृणा करते थे। बासवन्ना ने संस्कृति भाषा की उपेक्षा की, जिसे बहुत कम लोग समझते थे। उन्होंने कन्नड़ में लोगों को संबोधित किया। सच बात तो यह है कि बासवन्ना और सभी शरणों ने हिंदू धर्म की हर चीज को खारिज करते थे और उसके खिलाफ विद्रोह किया।”
-गौरी लंकेश (मेकिंग सेन्स ऑफ लिंगायत वरसेस वीरशैव डिवेट, यह लेख मूल रूप में 8 अगस्त 2017 के प्रकाशित, द वायर ने 5 सितंबर 2017 को पनुर्प्रकाशित किया।)

“आंबेडकर ब्राह्मणों का इस बात के लिए उपहास उड़ाते हैं कि उन्होंने अपने देवताओं को दयनीय कायरों के एक समूह के रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि हिंदुओं के सारे मिथक यही बताते हैं कि असुरों की हत्या विष्णु या शिव द्वारा नहीं की गई है, बल्कि देवियों ने किया है। यदि दुर्गा (या कर्नाटक के संदर्भ में चामुंडी) ने महिषासुर की हत्या की, तो काली ने नरकासुर को मारा। जबकि शुंभ और निशुंभ असुर भाईयों की हत्या दुर्गा के हाथों हुई। वाणासुर को कन्याकुमारी ने मारा। एक अन्य असुर रक्तबीज की हत्या देवी शक्ति ने की। आंबेडकर तिरस्कार के साथ कहते हैं कि “ऐसा लगता है कि भगवान लोग असुरों के हाथों से अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते थे, तो उन्होंने अपनी पत्नियों को, अपने आप को बचाने के लिए भेज दिया।”
-गौरी लंकेश (वेब पोर्टल बैंगलोर मिरर में 29 फरवरी, 2016, RECLAIMING MAHISHASURA)

“हमारे प्रधानमंत्री (मोदी) जब मुंह खोलेंगे, झूठ ही बोलेंगे।”
(गौरी लंकेश मोदी को ‘बूसी बूसिया’ लिखा करती थीं।)

“झूठ की फैक्ट्रियां ज्यादातर मोदी भक्त ही चलाते हैं।”
(गैरी लंकेश पत्रिके की अंतिम संपादकीय)

“कर्नाटक को जलाने आए, भगवाधारी गंजे (अमित शाह) की कहानी”
(30 अगस्त 2017, गौरी लंकेश पत्रिका की कवर स्टोरी)

5 सितंबर 2017 को गौरी लंकेश की हत्या से उपजे दुख, आक्रोश, क्षोभ और अवसाद से उबरने के बाद अधिकांश लोगों के मन में यह प्रश्न उठा कि आखिर गौरी लंकेश कुछ लोगों के लिए इतनी खतरनाक या नफरत की पात्र क्यों हो गईं कि उनकी हत्या करवाने या करने के अलावा, उन्हें कोई और रास्ता नहीं सूझा? इस प्रश्न का मुकम्मल जवाब गौरी लंकेश के विचारों, उनके कार्यों और उनके व्यक्तित्व की छान-बीन करके ही दिया जा सकता है। सबसे पहले गौरी लंकेश के विचारों को लेते हैं। वे किन विचारों की वाहक थीं? सबसे पहले हिंदुत्व संबंधी उनके विचारों को लेते हैं। वे सिर्फ हिंदुत्व की राजनीति की विरोधी नहीं थी, वे हिंदू धर्म को पूरी तरह से खारिज करती थीं। वे हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति, हिंदू समाज व्यवस्था को पूर्णतया खारिज करती थीं।

इस मामले में वे पूरी तरह बासवन्ना, फुले, आंबेडकर के विचारों के साथ खड़ी थीं। हम सभी जानते हैं कि कर्नाटक में 12वीं शताब्दी में बासवन्ना ने हिंदू धर्म को पूर्णतया खारिज कर दिया था और लिंगायत धर्म का प्रचलन किया था। लिंगायत लोग किसी भी रूप में अपने को हिंदू धर्म, संस्कृति या समाज व्यवस्था का हिस्सा नहीं मानते थे। हिंदुओं के किसी शास्त्र, देवी-देवता, कर्म-फल सिद्धांत, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को नहीं मानते थे।

वे मंदिरों और मूर्तियों से घृणा करते थे। हिंदुओं के अंधविश्वासों की खिल्लियां उड़ाते थे। जाति-प्रथा के कटु आलोचक थे। स्त्री-पुरूष समानता के पक्षधर थे। अन्तर्जातीय विवाह और अन्तर्जातीय खान-पान को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया था। इस आंदोलन ने कितना गहरा प्रभाव छोड़ा था कि एक भारी आबादी ने हिंदू धर्म, संस्कृति और समाज व्यवस्था का परित्याग कर दिया। सबसे बड़ी बात यह थी कि ऐसा करने वालों में सभी वर्णों/ जातियों के लोग थे।

गौरी लंकेश पूर्णतया लिंगायत परंपरा की हिमायती थीं, जब कर्नाटक में यह विवाद चला कि लिंगायत हिंदू धर्म के हिस्सा हैं या नहीं तो, गौरी ने स्पष्ट तौर पर लिखा कि लिंगायतों का वीरशैवों से कोई लेना-देना नहीं है, जो अपने को हिंदू धर्म का हिस्सा मानते हैं। गौरी लंकेश ने 8 अगस्त 2017 को लिखा, “लिंगायत बासवन्ना और शरणों के अनुनायी हैं। जिनका दर्शन और विचार उनके हजारों वचनों में प्रकट होते हैं।

इन वचनों में वेदों, शास्त्रों, स्मृतियों और उपनिषदों को खारिज किया गया। बासवन्ना वर्ण व्यवस्था पर आधारित जाति व्यवस्था को को भी खारिज करते हैं। वे कर्म-फल के सिद्धांत को रद्द करते हैं, और इस पर आधारति पाप-पुण्य की अवधारणा को भी खारिज करते हैं। इसके साथ ही वे इस पाप-पुण्य के सिद्धांत पर आधारित स्वर्ग-नरक की अवधारणा को भी अस्वीकार करते हैं।

वासवन्ना मंदिरों और मूर्तियों की पूजा से घृणा करते हैं। वे शिव के लैंगिक लिंग के प्रतीक को अस्वीकार करते हैं, उसकी जगह इस्था लिंग (इस्था लिंग) को स्वीकार करते हैं, जो व्यक्ति की अन्तःकरण का प्रतीक है। वे कर्म को ही पूजा मानते हैं। जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव के खिलाफ थे। वे अंधविश्वासों से घृणा करते थे। बासवन्ना ने संस्कृति भाषा की उपेक्षा की, जिसे बहुत कम लोग समझते थे। उन्होंने कन्नड़ में लोगों को संबोधित किया। सच बात तो यह है कि बासवन्ना और सभी शरण हिंदू धर्म की हर चीज को खारिज करते थे और उसके खिलाफ विद्रोह किया।”
(मेकिंग सेन्स ऑफ लिंगायत वरसेस वीरशैव डिवेट, यह लेख मूल रूप में 8 अगस्त 2017 के प्रकाशित, द वायर ने 5 सितंबर 2017 को पनुर्प्रकाशित किया।)

गौरी लंकेश फुले और आंबेडकर को क्रान्तिकारी व्यक्तित्वों के रूप में याद करती हैं। ये दोनों चिंतक भी लिंगायतों की तरह हिंदू धर्म को मानव विरोधी धर्म मानते थे। वे भारत के सांस्कृति इतिहास की, उस व्याख्या से सहमत थीं, जो फुले और आंबेडकर ने की थी। वे साफ शब्दों में इस बात को स्वीकार करती हैं, “मनुवादियों ने बहुजनों के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा। हमें इस इतिहास पर पड़े धूल-धक्कड़ को झाड़ना पड़ेगा, पौराणिक झूठों का पर्दाफाश करना पड़ेगा और अपने लोगों तथा अपने बच्चों को सच्चाई बतानी पड़ेगी। यही एकमात्र रास्ता है, जिस पर चल कर हम अपने सच्चे इतिहास के दावेदार बन सकते हैं।” (वेब पोर्टल बैंगलोर मिरर में 29 फरवरी, 2016)।

वे यहीं रूकती नहीं हैं, लिंगायतों, फुले और आंबेडकर की तरह के साहस का परिचय देते हुए, हिंदुओं के देवी-देवताओं की मिथकीय असलियत को सामने लाती हैं। वे इस मामले में आंबेडकर को अपने नायक रूप में प्रस्तुत करते हुए लिखती हैं, “आंबेडकर ब्राह्मणों का इस बात के लिए उपहास उड़ाते हैं कि उन्होंने अपने देवताओं को दयनीय कायरों के एक समूह के रूप में प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि हिंदुओं के सारे मिथक यही बताते हैं कि असुरों की हत्या विष्णु या शिव द्वारा नहीं की गई है, बल्कि देवियों ने किया है। यदि दुर्गा (या कर्नाटक के संदर्भ में चामुंडी) ने महिषासुर की हत्या की, तो काली ने नरकासुर को मारा। जबकि शुंभ और निशुंभ असुर भाईयों की हत्या दुर्गा के हाथों हुई। वाणासुर को कन्याकुमारी ने मारा। एक अन्य असुर रक्तबीज की हत्या देवी शक्ति ने की। आंबेडकर तिरस्कार के साथ कहते हैं कि ऐसा लगता है कि भगवान लोग असुरों के हाथों से अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते थे, तो उन्होंने अपनी पत्नियों को, अपने आप को बचाने के लिए भेज दिया।”
(वेब पोर्टल बैंगलोर मिरर में 29 फरवरी, 2016, RECLAIMING MAHISHASURA)

इतना ही नहीं वे, हिंदुत्ववादी शक्तियों के वर्चस्व को खारिज करने के लिए मिथकों की पुनर्व्याख्या तक करती हैं। इसी कड़ी में उन्होंने ‘रिक्लेमिंग महिषासुर’ नामक लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने महिषासुर को अनार्यों, द्रविड़ों के महानायक के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा, “एक दैत्य अथवा महान उदार द्रविड़ शासक, जिसने अपने लोगों की लुटेरे-हत्यारे आर्यों से रक्षा की। महिषासुर ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जो सहज ही अपनी ओर लोगों को खींच लेता है। उन्हीं के नाम पर मैसूर नाम पड़ा है। यद्यपि कि हिंदू मिथक उन्हें दैत्य के रूप में चित्रित करते हैं, चामुंड़ी द्वारा उनकी हत्या को जायज ठहराते हैं, लेकिन लोक गाथाएं इसके बिल्कुल भिन्न कहानी कहती हैं। यहां तक कि बीआर आंबेडकर और जोती राव फुले जैसे क्रांतिकारी चिंतक भी महिषासुर को एक महान उदार द्रविड़ियन शासक के रूप में देखते हैं, जिसने लुटेरे-हत्यारे आर्यों (सुरों) से अपने लोगों की रक्षा की।”

यह सब लिखते, बोलते और इसके लिए संघर्ष करते हुए, उन्होंने साफ शब्दों में अपने को बासवन्ना और आंबेडकर की परंपरा से जोड़ा, कहा कि उनकी परंपरा को आगे बढ़ाने अपना कर्तव्य मानती हैं। हिंदुत्व की राजनीति का विरोध भी इसी कर्तव्य का हिस्सा मानती हैं। वे लिखती हैं, “मैं हिंदुत्व की राजनीति की निंदा करती हूं और जाति व्यवस्था की भी, जो हिंदू धर्म का हिस्सा मानी जाती है। इसके कारण मेरे आलोचक मुझे हिंदू-विरोधी बताते हैं। परंतु मेरा यह मानना है कि एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए जो संघर्ष बासवन्ना और आंबेडकर ने शुरू किया था उसे आगे बढ़ाना मेरा कर्तव्य है और जितनी मेरी शक्ति है उतना मैं कर रही हूं।”
(साक्षात्कार, उद्धृत सिंथिया स्टीफेन)

बासवन्ना और आंबेडकर के साथ ही, उन्हें लोहिया के विचारों की विरासत पिता पी लंकेश से प्राप्त हुई थी। लोहिया जाति और पितृसत्ता को भारतीय समाज का सबसे बड़ा रोग मानने थे। उन्होंने लिखा था, “हिंदुओं का दिमाग जाति और योनि के कटघरे में कैद है। जाति-वर्चस्व के नाम पर शूद्रों तथा अछूतों को तथा पुरुष वर्चस्व के नाम पर स्त्रियों को अपमानित, उपेक्षित करने तथा दबाने एवं सताने में तथाकथित ऊंची जातियां एवं पुरुष गर्व का अनुभव करते हैं। शूद्रों-स्त्रियों तथा कमजोरों को दबाने में उनके अहं की तुष्टि होती है।” 

लिंगायतों की परंपरा वाले कर्नाटक में लोहिया के जाति और पितृसत्ता संबंधी विचारों ने काफी जड़ जमाई थी, साथ ही समाजवाद को भी जगह मिली थी।

गौरी लंकेश पितृसत्ता के सभी रूपों को खारिज करती थीं। उनका मानना था कि स्त्री-पुरूष के बीच विवाह का आधार प्रेम के अलावा कुछ भी नहीं हो सकता है। वे लिंगायत, फुले, आंबेडकर और लोहिया के स्त्री-पुरूष समानता के विचारों को आगे बढ़ाती हैं। स्त्री की समग्र आजादी और बराबरी की पक्षधर थीं। स्त्रियों की देह की आजादी संबंधी उनकी एक पोस्ट ने खलबली मचा दी थी। यह पोस्ट जेएनयू विवाद के समय आई थी। विवाद इस विषय पर हो रहा था कि एक स्त्री अपना जीवन-साथी अथवा सेक्स पार्टनर चुनने के लिए आजाद है, या नहीं। इसका विरोध करने वालों का करारा जवाब देते हुए, उन्होंने निडर योद्धा की तरह लिखा, “यदि कोई व्यक्ति एक ऐसी स्त्री की संतान है, जो अपना सेक्स पार्टनर चुनने के लिए आजाद नहीं थी, तो वह या तो बलात्कार की पैदाईश है या वेश्या की।”

स्वाभाविक था कि यह बात प्रगतिशीलों को भी शायद गले न उतरे, लेकिन यह नंगा सच है और इस नंगे सच को कहने का साहस गौरी में था। वह कोई पिलपिली बुद्धिजीवी नहीं थीं, जो सोचती थीं, वह कहती थीं, जो कहती थीं, वह करती थीं। स्त्री- पुरूष संबंधों के संदर्भ में जिस तरह की बात गौरी लंकेश 21वीं शताब्दी में कर रही थीं, बारहवीं शताब्दी में इससे भी पुरजोर तरीके से बासवन्ना ने अपने वचनों में कहीं हैं, “चान्नय्या के घर के नौकर का एक लड़का, और काक्कय्या के घर की नौकरानी की एक लड़की- दोनों एक साथ खेत में गोबर इकट्ठा करने गए, और दोनों को एक दूसरे से प्रेम हो गया, उसके बाद एक बच्चा पैदा हुआ था- वह बच्चा मैं था।”

हिंदू धर्म, हिंदुत्व की राजनीति, जाति और पितृसत्ता संबंधी अपने विचारों के लिए उनको क्या-क्या गालियां नहीं दी गईं, जिसे यहां उद्धृत भी नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि गौरी लंकेश हिंदुत्व की जड़ों पर ही प्रहार करने वाली एक पत्रकार और कार्यकर्ता थीं। वे आरएसएस की उस पूरी परियोजना की जड़ में ही मट्ठा डाल रहीं थीं, जिन आधारों पर वह हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं। यहां हमें अत्यन्त संक्षेप में ही सही कुलबर्गी को याद कर लेना चाहिए।

वे सिर्फ और सिर्फ बासवन्ना के वचनों के मूल रूपों को ही संग्रहीत कर रहे थे, मूलत एक अध्येता और शोधार्थी थे, लेकिन वे हिंदुत्व-वादियों के लिए इतने खतरनाक बन गए थे। खतरनाक थे भी, क्योंकि बासवन्ना के मूल वचन हिंदू धर्म को पूर्णतया खारिज करते हैं, जो हिंदू राष्ट्र की पूरी परियोजना के ही खिलाफ जाता है। हिंदू एकता की धूरी को ही चुनौती देता है। गौरी लंकेश ने हिंदू धर्म की आलोचाना को हिंदुत्व की राजनीति के विरोध तक ले गईं।

जब उन्होंने लंकेश पत्रिके की संपादन की जिम्मेदारी संभाली (सन् 2000 में) हिंदुत्व की राजनीति और हिंदुत्ववादी शक्तियों का जोर कर्नाटक में काफी बढ़ गया था। आरएसएस, बजरंग दल और श्रीराम सेना जैसे संगठनों का तेजी से उभार हुआ था। मीडिया में विस्तार से रिपोर्टें आई हैं कि किन-किन जगहों पर उनका बजरंग दल और अन्य हिंदूवादी संगठनों से सीधा टकराव हुआ। यह वही दौर है जब, कर्नाटक में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हिंदूवादी शक्तियों ने तेजा से बढ़ाया। गौरी लंकेश न केवल एक पत्रकार के तौर पर, बल्कि एक कार्यकता के तौर पर भी तथ्यों को उजागर करती रहीं और सत्य का साथ देती रहीं। वे खुलकर अल्पसंख्यकों के साथ खड़ी हुईं, अन्याय के शिकार लोगों के पक्ष में खड़ी हुईं।

उनके विरोधी उन्हें नक्सली भी कहते थे, क्योंकि वे हर प्रकार के अन्याय का डट कर विरोध करती थीं, हम सभी जानते हैं कि उनका अपने भाई से तीखा विरोध इस बात को लेकर हुआ था कि एक नक्सली समर्थक लेख प्रकाशित किया जाए या नहीं। उनके भाई ने एक नक्सल समर्थक लेख को प्रकाशित करने की इजाजत देने से इंकार कर दिया। विरोध इस कदर बढ़ गया था कि उन्हें लंकेश पत्रिके को छोड़कर 2005 में गौरी लंकेश पत्रिके निकालना पड़ा था।

इसेक साथ ही, वे देश के सामने आसन्न उपस्थित फासीवादी खतरे को पहचान रहीं थीं, उनकी पत्रिका के लेखों, कवर स्टोरी और संपादकीय को देखें, तो पाते हैं कि उनके निशाने पर सबसे अधिक मोदी और अमित शाह की जोड़ी का झूठ और फरेब था। अपने अंतिम संपादकीय में उन्होंने संघ, उसके आनुषांगिक संगठनों, और मोदी के झूठ और फरेब को लिया था। वह मोदी को बूसी बूसिया ही लिखा करती थीं। यानी यह व्यक्ति जब भी मुंह खोलेगा, झूठ ही बोलेगा। इसके पहले उन्होंने अमित शाह को लक्षित करते हुए, एक कवर स्टोरी की थी, जिसका शीर्षक था- ‘कर्टनाटक को जलाने आए, भगवाधारी गंजे’ (अमितशाह )।

गौरी लंकेश केवल अपनी वैचारिक विरासत के मामले में ही कन्नड़ की प्रगतिशील परंपरा को आगे नहीं बढ़ा रहीं थीं, इस परंपरा के उस रूप की भी कायल थीं, जो यह मानती है कि चिंतक, लेखक, विचारक या पत्रकार को, अपने विचारों के पक्ष में न केवल लिख कर खड़ा होना चाहिए, बल्कि उन विचारों के पक्ष में चल रहे संघर्षों में सक्रिय हिस्सेदारी भी करनी चाहिए।

गौरी निर्भीक पत्रकार के साथ, एक निडर कार्यकर्ता भी थीं। शायद ही कोई महत्वपूर्ण आंदोलन या संघर्ष हो, जिसमें उनकी सक्रिय उपस्थिति न रही हो। वे बासवन्ना, फुले, आंबेडकर और लोहिया कि उस परंपरा को आगे ले जा रही थीं, जिसमें अपने विचार व्यक्त करने के साथ ही, उनके लिए संघर्ष करना भी शामिल है, चाहे इसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े, वे हर कीमत चुकाने के लिए तैयार थीं।

तथ्यपरक, तर्कपरक विचारों के साथ खड़े होने की कीमत भी चुकानी पड़ती है, बिना कीमत चुकाए सत्य और न्याय के पक्ष में वास्तविक अर्थों में नहीं खड़ा हुआ जा सकता है। गौरी लंकेश ने इसकी कीमत चुकाई, अन्ततोगत्वा हत्यारों की गोलियों का शिकार बनकर, लेकिन यह तो अन्तिम कीमत थी। अपन विचारों की कीमत उन्होंने उसी दिन से चुकाना शुरू कर दिया था, जब उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद लंकेश पत्रिका के संपादन का दायित्व संभालने का निर्णय लिया। हम सभी जानते हैं कि उन्होंने देश के प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन से पत्रकारिता की पढ़ाई की थी।

अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया, संडे वीकली के अलावा तेलुगू न्यूज चैनल इनाडू के लिए कार्य किया। उन्होंने एक स्थापित करियर छोड़ कर जनपक्षधर पत्रकारिता करने का निर्णय लिया था, जब वर्ष 2000 में उन्होंने अपने लोहियावादी साहित्यकार पिता पी लंकेश द्वारा शुरू किए गए पॉलिटिकल कन्नड़ टेबलायड ‘लंकेश पत्रिके’ की जिम्मेदारी संभाली। उसी दिन ही उन्होंने मूलतः अंग्रेजी भाषा का दामन छोड़कर आमजन की भाषा कन्नड़ में पत्रकारिता करने का निर्णय लिया।

जिस तरह जिंदगी और कैरियर का लोग रात-दिन सपना देखते हैं, जिसके लिए कोई भी समझौता करने के लिए तैयार हो जाते हैं, उस सब को छोड़कर गौरी लंकेश ने जन का पक्ष चुना था। एक बार जब पक्ष चुन लिया, तो उस पर डटी रहीं, धमकियां झेलीं, मानहानि के मुकदमें में सजा हुई, भद्दी-भद्दी गालियां सुनीं, लेकिन एक निडर योद्धा की तरह जंग के मैदान में डटी रहीं। हत्यारों की गोलियों का शिकार होकर, यह संदेश दे गईं कि सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े होने की कीमत चुकानी ही पड़ती है।

आज उनके चौथी शहादत दिवस पर उन्हें गर्व के साथ याद करते हुए हिंदू फांसीवाद के खिलाफ संघर्ष को तेज करने का संकल्प लेना चाहिए और उसके लिए हर कुर्बानी देने के लिए खुद को तैयार करना चाहिए।
जन्मः 29 जनवरी 1962
शहादतः 5 सितंबर 2017

(लेखक डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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