किसका होगा बंगाल?

बिहार के बाद बंगाल की ओर सब राजनीतिक दलों ने अपना रुख कर लिया है। ममता छठ पर्व पर घाट घूम चुकीं। मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की कशमकश में सबसे बड़ी तैयारी बीजेपी संघ की है। ममता के पास अपने एकमात्र किले को और अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की जिम्मेदारी है। पिछले काफी समय से उनकी ओर से कुछ भी ऐसा सुनने को नहीं मिल रहा जो रार पैदा करता हो, जबकि बीजेपी का दिल बल्लियों उछल रहा है।

बीजेपी के लिए यह राज्य जीतना उसे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कांग्रेस के राज्य से इस्तीफा देने के बाद पहली बार सुअवसर के तौर पर देखा जा रहा है। तब उसने बंगाल पर मुस्लिम लीग के साथ मिलकर हिन्दू महासभा के तौर पर राज करने का सौभाग्य प्राप्त किया था। लेकिन श्यामा प्रसाद मुखर्जी के इन दाग धब्बों को वह इस अकेले के बल पर जीतने के सपने सँजोये हैं। वाकई में यह एक नया अध्याय शुरू होने जा रहा है।

रामचंद्र गुहा की पुस्तक ‘गांधी के बाद के भारत’ में किस प्रकार बंगाल और दिल्ली के आसपास पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों के लिए आवास जमीन की व्यवस्था हुई थी, जिसके बल पर दिल्ली में तो शरणार्थियों के लिए बेहतर आवास के तौर पर पंडारा रोड, करोल बाग, पंजाबी बाग, लाजपत नगर जैसे इलाके बसे।

लेकिन कोलकाता में पूर्वी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों के हिस्से में झुग्गी झोपड़ी, हावड़ा स्टेशन में मक्खी मच्छरों और हैजे जैसी बीमारियों का सामना करना पड़ा था।

इसने दिल्ली में आरएसएस एवं अन्य संगठनों और बंगाल में वामपंथी दलों को बढ़त हासिल करने का आधार दिया था। लेकिन आज बीजेपी यदि बंगाल जीत जाती है तो उसके पास तीन दशक से वाम मोर्चे के कभी सबसे बड़े गढ़ को जड़ से खत्म करने का तमगा हासिल हो जाएगा।

कभी पश्चिम बंगाल के दो प्रमुख दल रहे कांग्रेस और सीपीएम आज एक मार्जिनल ताकत रह गए हैं। इनके बीच से और टूटकर मिलने वाले वोटों से ही पश्चिम बंगाल में सरकार किसकी बनेगी, यह तय होने जा रहा है।

गंगा से इस बीच कितना पानी बंगाल की खाड़ी में जाकर नमकीन हो चुका है, इसका जरा भी अंदाजा यदि लगाया जा सकने की सामर्थ्य बूढ़े मार्क्सवादी कम्युनिस्ट और नेहरू इंदिरा की विरासत का बोझ उठाये फिर रहे बूढ़ों की छत्रछाया में चल रही इन दोनों पार्टियों को हो, तो वे लम्बी-लम्बी और थकान उबासी मारने वाली बहसों में देश को उलझाने के बजाय साफ साफ बदले समय और मिजाज को समझने की कूव्वत हासिल कर सकते हैं।

पर क्या ऐसा होने जा रहा है? इन्हीं की बदौलत देश के युवाओं और बुद्धिजीवियों को यह पक्षाघात हासिल हुआ है, लेकिन आज भी वे ममता विरोधी गुस्से को बीजेपी में जाने के बजाय उसे अपने पक्ष में हासिल कर लेने के मंसूबे बांधे हुए हैं। जबकि हकीकत यह है कि ममता ने कांग्रेस और बीजेपी ने वाम मोर्चे के जनाधार को करीब-करीब पूरा ही पिछले लोकसभा चुनावों में अपने में समेट लिया था।

इस बार इन दोनों को धार्मिक नस्लीय सुनामी को कहीं ज्यादा गहरे से मथना है। बचे खुचे 8-9% मतों से 2-3% भी एकतरफ लुढ़कने का अर्थ है, उसकी सरकार बनाने में मदद करना। बंगाल के वाम और कांग्रेसी किसकी सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाने जा रहे हैं? बीजेपी या तृणमूल कांग्रेस की?

(रविंद्र सिंह पटवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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