चैत्र को आखिर क्यों माना जाता है सम्वत का पहला महीना?

क्या देश की एकता और समरसता से कैलेंडर या पंचांग का कोई नाता हो सकता है? आज़ादी के बाद, 1952 में जवाहर लाल नेहरू ने पाया कि काल-गणना के लिए भारत में कम से कम 30 पंचांग प्रचलित हैं, जो अशुद्ध गणितीय सिद्धान्तों के दलदल में फँसे थे। जिसकी वजह से मौसम आधारित पर्व-त्योहारों का वक़्त भी बेमौसम बताया जाता था। इसकी सबसे प्रमुख वजह थी कि खगोल शास्त्र में हुई वैज्ञानिक प्रगति के अनुसार पंचांग निर्माताओं ने अपने सदियों पुराने नियमों में सुधार नहीं किया था। वो लकीर का फ़कीर बने हुए थे। नेहरू की धारणा थी कि यदि आज़ाद भारत के पास अपना एक सटीक और वैज्ञानिक पंचांग होगा तो जनता के बीच दिखने वाले मतभेद मिटेंगे। एकता बढ़ेगी और ‘अनेकता में एकता’ की भावना मज़बूत होगी।

नेहरू ने 10 फरवरी 1953 को काउन्सिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) को लिखा, “ये सच है कि दुनिया के ज़्यादातर सरकारी काम में ग्रेगोरियन कैलेंडर प्रचलित है। यही इसकी विशेषता है। लेकिन इसमें कमियाँ भी हैं। ये सबकी ज़रूरतें पूरी नहीं करता। सामाजिक जीवन में रचे-बसे परम्परागत कैलेंडर को बदलना हमेशा कठिन होता है। भले ही हम लक्ष्य हासिल न कर सकें, लेकिन हमें पंचांग में सुधार की कोशिश तो करनी ही चाहिए। अभी भारत में प्रचलित कैलेंडरों से पैदा हो रही दुविधाओं का निदान तो होना ही चाहिए। मुझे उम्मीद है कि हमारे वैज्ञानिक इस उद्देश्य में सफल होंगे।”

शक सम्वत क्यों बना सरकारी पंचांग?

सौर-चक्र के रहस्यों और जटिलता ने मानव सभ्यता के हर दौर को चुनौती दी है। हर युग में सटीक कैलेंडर बनाने के जतन हुए, लेकिन चैत्र प्रतिप्रदा यानी शक सम्वत जैसा त्रुटिरहित कैलेंडर इतिहास में पहले कभी नहीं बना। नवम्बर 1952 में CSIR के तहत एक ‘कैलेंडर रिफ़ॉर्म कमेटी’ गठित हुई। तब नेहरू के आग्रह पर देश के सबसे बड़े भौतिक विज्ञानी और खगोलविद् मेघ नाथ साहा (1893-1956) ने कमेटी की क़मान थामी। साहा कमेटी में छह और विद्वान भी थे। ‘कैलेंडर रिफ़ॉर्म कमेटी’ ने तीन साल तक देश-विदेश के दर्ज़नों विद्वानों से मदद से भारत में प्रचालित 30 पंचांगों, तमाम पांडुलिपियों और दुनिया भर के कैलेंडरों की गहन समीक्षा करके नवम्बर 1955 में अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की जो किसी वैज्ञानिक शोध-पत्र से कम नहीं।

मेघ नाथ साहा कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, ‘ये सही है वराहमिहिर और आर्यभट्ट (लगभग 500 ईसवी) जैसे प्राचीन खगोलविद् भी ‘एक सूर्य वर्ष में 365.258756 दिन’ के हिसाब से गणनाएँ करते थे। सूर्य-सिद्धान्त का यही नियम जुलियन और ग्रेगोरियन कैलेंडर में भी था। लेकिन आधुनिक गणना के अनुसार, सूर्य वर्ष की सही अवधि 365.242196 दिन है। साफ़ है कि बीते 1400 सालों में काल-गणना प्रति वर्ष 0.01656 दिन के हिसाब से बढ़ती गयी। इसीलिए शक सम्वत में दिन-रात के बराबर होने की तिथि 22 मार्च से खिसककर 13-14 अप्रैल जा पहुँची।’ लिहाज़ा, नेहरू सरकार ने साहा कमेटी की रिपोर्ट को लागू करते वक़्त उसकी सिफ़ारिशों के अनुसार, ‘सम्वत 1877 शक’ के फाल्गुन महीने के 30 दिनों में 7 दिन बढ़ा दिये। इसी के साथ ‘21 मार्च 1956 ईसवी’ को ‘01 चैत्र 1878 शक’ बना दिया गया।

तमाम पंचांगों की गहन समीक्षा के बाद ‘कैलेंडर रिफ़ॉर्म कमेटी’ ने पाया कि ‘शक सम्वत’ ही सबसे अधिक वैज्ञानिक है। कमेटी ने शक सम्वत में ही कुछेक ज़रूरी सुधार करके न सिर्फ़ नया भारतीय पंचांग तैयार किया, बल्कि अगले पाँच वर्षों के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों के लिए अलग-अलग कैलेंडर भी तैयार किये। शक सम्वत को सरकारी भारतीय पंचांग का दर्ज़ा देने के साथ ही तय हुआ कि ये न तो ग्रेगोरियन कैलेंडर की तरह सिर्फ़ सौर-वर्ष पर आधारित होगा और ना ही विक्रम सम्वत या हिजरी कैलेंडर की तरह सिर्फ़ चन्द्र मास पर। बल्कि इसमें सभी पुराने पंचांगों की ख़ूबियों के अलावा आधुनिक खगोलीय गणनाओं भी पूरा ख़्याल रखा जाएगा। इस तरह, मौजूदा शक सम्वत एक वैज्ञानिक चन्द्र-सौर पंचांग (Luni-Solar Calendar) है।

शक सम्वत की वैज्ञानिकता

मेघ नाथ साहा कमेटी ने शक सम्वत के लिए सौर वर्ष की मियाद 365.242196 दिन तय की। ग्रेगोरियन कैलेंडर में ये अवधि 365.2425 दिन की है। कमेटी ने तय किया कि शक सम्वत में भी 12 महीने ही होंगे। लेकिन दोनों कैलेंडरों का ‘लीप ईयर’ (लोंद वर्ष) एक ही होगा। लीप ईयर में जब फरवरी में 29 दिन होंगे तो शक सम्वत में नये साल का आगमन एक दिन आगे बढ़कर 22 मार्च को हो जाएगा। साथ ही, लीप ईयर की एक अतिरिक्त ‘तिथि’ भी शक सम्वत के पहले महीने यानी चैत्र में ही बढ़ जाएगी। इस तरह, हर चौथे साल चैत्र महीने में 30 की जगह 31 तिथियाँ होंगी। बाक़ी चैत्र के बाद वाले पाँच महीने (बैसाख, जेठ, असाढ़, सावन और भादो) 31 दिन के होंगे तो अन्य छह महीने (आश्विन, कार्तिक, अगहन, पूष, माघ और फागुन) 30-30 तिथियों के होंगे। शक सम्वत के लिए भी तिथि परिवर्तन का वक़्त रात 12 बजे का ही रखा गया।

ग्रेगोरियन कैलेंडर में जहाँ 31 दिन वाले 7 महीने और 30 दिन वाले 4 महीनों को तय करते वक़्त वैज्ञानिकता नहीं दिखती, वहीं शक सम्वत में इस खगोलीय तथ्य का ख़ास ख़्याल रखा गया कि 31 तिथियों वाले भारतीय महीनों के दौरान पृथ्वी को अपने परिक्रमा पथ पर अपेक्षाकृत थोड़ा ज़्यादा वक़्त लगता है। इसीलिए शक सम्वत के शुरुआती पाँच महीने 31 दिन के बनाये गये हैं। चैत्र को सम्वत के पहले महीने के रूप में चुनने की भी वैज्ञानिक व्याख्या है। दरअसल, साल में दो दिन, 20 मार्च और 22 सितम्बर को सूर्य और पृथ्वी का केन्द्र परस्पर शून्य तथा 180 डिग्री के कोण पर होते हैं। इसीलिए इन दोनों तारीख़ों पर पृथ्वी के ज़्यादातर हिस्सों पर दिन और रात की अवधि बराबर होती है। 20 मार्च के बाद उत्तरी गोलार्ध (Northern Hemisphere) में दिन बड़ा और रातें छोटी होने लगती हैं। इसी तरह 22 सितम्बर के बाद रातें लम्बी और दिन छोटे होने लगते हैं। दक्षिणी गोलार्ध में इन्हीं तारीख़ों पर यही चक्र पलट जाता है।

उत्तरायन और दक्षिणायन

कैलेंडर में समय की सबसे बड़ी इकाई साल या सम्वत है। इसे ‘सौर वर्ष’ भी कहते हैं क्योंकि पृथ्वी इसी अवधि में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी करती है। छमाही, तिमाही, महीना, पखवाड़ा या पक्ष, सप्ताह, दिन, घंटा, मिनट और सेकेंड जैसी इकाईयों के अलग-अलग गुणनफल से बनने वाली संख्याएँ भी ‘सौर वर्ष’ का ही हिस्सा हैं। गणितीय दृष्टि से साल की तरह उसके घटकों की भी शुद्ध माप विभाज्य पूर्णांक (Fully devisable number) में नहीं हैं। इसी वजह से कैलेंडर में समय के हिसाब को ऐसे समायोजित किया जाता है जिससे मौसम और तिथियों का तालमेल कमोबेश स्थिर रहे।

सहूलियत के लिए इंसान ने साल को एक पूर्णांक मानकर उसे दो छमाहियों में बाँट लिया। भारतीय परम्परा में छह-छह महीनों वाले इस चक्र को उत्तरायन और दक्षिणायन कहा गया। इसका वैज्ञानिक सम्बन्ध दिन-रात के घटने-बढ़ने वाले चक्र से है। उत्तरायन की अवधि 14 जनवरी से 14 जुलाई तक यानी मकर से मिथुन राशि तक और दक्षिणायन का वक़्त 15 जुलाई से 13 जनवरी तक यानी कर्क से धनु राशि तक है। पंचांगों में उत्तरायन को सूर्य का उत्तर-गमन और दक्षिणायन को सूर्य का दक्षिण-गमन कहा गया। हालाँकि, पोलिश खगोलविद् निकोलस कॉपरनिकस ने 1530 ईसवी में ही सिद्ध कर दिया था कि ‘सूर्य एक स्थिर तारा है जो कहीं आवागमन नहीं करता। पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है।’

जब 4 अक्टूबर के अगले दिन 15 अक्टूबर आया

रोमन सम्राट जूलियस सीज़र ने 46 ईसा पूर्व में जुलियन कैलेंडर लागू किया। इसकी काल गणना में एक सौर वर्ष की अवधि 365.2425 दिन मानी गयी। इसमें 365 दिन से अधिक के समायोजन के लिए हर चार साल पर लीप ईयर होता था। कॉपरनिकस की खोज़ के बाद पोप ग्रेगोरी XIII ने जुलियन कैलेंडर की गहन जाँच करके पाया कि लीप ईयर के दोषपूर्ण फ़ॉर्मूले की वजह से बीते 1600 साल के दौरान जुलियन कैलेंडर में 10 दिन बढ़ चुके हैं। इसे सुधारते हुए नया ग्रेगोरियन कैलेंडर लागू हुआ और पुराने जुलियन कैलेंडर के दस दिन ग़ायब कर दिये गये। इस तरह, जुलियन कैलेंडर के ‘गुरुवार, 4 अक्टूबर 1582’ के अगले दिन ग्रेगोरियन कैलेंडर की ‘शुक्रवार, 15 अक्टूबर 1582’ की तारीख़ आ गयी। इस बदलाव के बावजूद सौर वर्ष की अवधि और सप्ताह के दिनों का क्रम यथावत रहा। इससे कैथोलिक चर्च के तमाम पर्व-त्योहार उन तारीख़ों पर समायोजित हो गये जहाँ उन्हें होना चाहिए था।

लीप ईयर का मौजूदा नियम

लीप ईयर के ज़रिये ही साल के महीनों के हिसाब से मौसम का वक़्त नियंत्रित रखा जाता है। 1582 में ग्रेगोरियन कैलेंडर के ज़रिये लीप ईयर का नियम बदल गया। क्योंकि तब तक लीप ईयर की त्रुटि की बजह से मौसम और महीने का तालमेल बहुत गड़बड़ा चुका था। नये नियम के अनुसार, अब हर चौथे साल के अलावा सिर्फ़ वही 100 वाँ साल लीप ईयर है जो 400 से पूर्णतः विभाजित हो सके। इसी नियम की वजह से सन् 1700, 1800 और 1900 लीप ईयर नहीं बने।

इस तरह, पुराने नियम के मुक़ाबले नये फ़ॉर्मूले ने हरेक 400 साल में तीन लीप ईयर कम कर दिये। इससे कैलेंडर चक्र की मियाद 400 साल की हो गयी। अब 400 साल में 1,46,097 दिन होंगे। इसमें 365 दिन वाले 303 सामान्य साल होंगे तो 366 दिन वाले 97 लीप ईयर। लेकिन लीप ईयर के नये फ़ॉर्मूले में भी 400 साल लम्बे कैलेंडर चक्र के बावजूद सौर वर्ष की औसत अवधि 365.2425 दिन [365+(97÷400)] ही बनी रही। ये वक़्त 365 दिन, 5 घंटे, 49 मिनट और 12 सेकेंड का है।

सौर वर्ष की अवधि में त्रुटि

मेघ नाथ साहा रिपोर्ट ने शक सम्वत के लिए एक सौर वर्ष की शुद्धतम गणना ‘365.242196 दिन’ मानी है। ये वक़्त 365 दिन, 5 घंटे, 48 मिनट और 46 सेकेंड के बराबर है। ग्रेगोरियन कैलेंडर का सौर वर्ष इससे 26 सेकेंड लम्बा है, क्योंकि उसमें जुलियन कैलेंडर की तरह सौर वर्ष की अवधि को 365.2425 दिन ही रखा गया है। दोनों गणनाओं के तुलना करें तो पाएँगे कि 26 सेकेंड वाली त्रुटि 400 वर्षों में बढ़कर 2 घंटा, 5 मिनट और 20 सेकेंड की हो जाएगी। जुलियन कैलेंडर, जब 4,800 साल पुराना होगा, तब तक यही त्रुटि बढ़ते-बढ़ते ‘1 दिन, 1 घंटा और 4 मिनट’ के बराबर हो जाएगी। इसे देखते हुए हर 4,000 साल पर एक और लीप ईयर कम करने का सुझाव आया। हालाँकि, वो फ़िलहाल लम्बित है। इस व्याख्या से साफ़ है कि मेघ नाथ साहा कमेटी की गणना इतनी शुद्ध है कि शक सम्वत को 1.1 लाख साल बाद एक लीप ईयर की कटौती की ज़रूरत पड़ेगी।

सूर्य वर्ष से ज़्यादा पेंचीदा है चन्द्र मास

जैसे सूर्य की एक परिक्रमा की अवधि सूर्य वर्ष है, वैसे ही पृथ्वी की एक परिक्रमा की अवधि ‘चन्द्र वर्ष’ है। लेकिन सहूलियत के तहत इसे चन्द्र-वर्ष नहीं, बल्कि ‘चन्द्र मास’ या सिर्फ़ ‘महीना’ या ‘माह’ या ‘मास’ कहा गया। साल के 12 महीनों का विभाजन इसी चन्द्र-वर्ष के आधार पर हुआ है। क्योंकि जितने वक़्त में पृथ्वी अपनी एक परिक्रमा पूरी करती है, उतनी देर में चन्द्रमा उसका 12 से ज़्यादा बार चक्कर लगा लेता है। चूँकि इन चक्करों में लगने वाला वक़्त हमेशा एक सा नहीं रहता, इसीलिए महीने की खगोलीय अवधि भी घटती-बढ़ती रहती है। शायद, इसीलिए कैलेंडरों में भी महीनों की अवधि एक जैसी नहीं है। ग्रेगोरियन कैलेंडर में जहाँ ये 28 से 31 दिन की है, वहीं शक सम्वत के महीनों में 30 और 31 तिथियाँ (दिन) हैं।

साहा कमेटी ने एक सूर्य-मास यानी महीने की औसत अवधि 30.43685 घंटे तय की। हालाँकि, एक चन्द्र-मास की औसत खगोलीय अवधि 29.531 दिन यानी 29 दिन, 12 घंटे और 44 मिनट मानी गयी है। चन्द्र मास की अवधि पूर्णिमा से पूर्णिमा अथवा अमावस्या से अमावस्या के बीच की होती है। ये कैलेंडर के महीने की तुलना में क़रीब एक दिन छोटा है। इसकी अवधि भी घटती-बढ़ती रहती है। क्योंकि पृथ्वी और चन्द्रमा दोनों साल के अलग-अलग महीनों में असमान गति से परिक्रमा करते हैं। वर्ष के 12 चन्द्र मासों का योग 354.372 दिन है। ये सूर्य वर्ष की अवधि 365.2422 से क़रीब 11 दिन कम है। पृथ्वी को भी अपनी धुरी पर एक चक्कर घूमने में औसतन 24.0657 घंटा यानी 24 घंटा, 3 मिनट और 57 सेकेंड लगते हैं। ऐसी गणनाओं का समायोजन सूर्य वर्ष वाले कैलेंडर में तो हो जाता है, लेकिन चन्द्र-मास वाले कैलेंडरों में इससे त्रुटियाँ बढ़ जाती हैं।

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

नोट-कल पढ़िए, इस विशेष पेशकश की अन्तिम कड़ी ‘कैलेंडर में पहले शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष? संविधान में भारतीय तिथि क्यों नहीं लिखी गयी?’

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