दिल्ली पुलिस मुख्यालय के नये भवन का उद्घाटन करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने 31 अक्टूबर को कहा था कि पुलिस की तोंद मीडियाकर्मियों को दिखती है लेकिन यह नहीं दिखता कि पुलिसकर्मी पूरी जवानी अपने परिवार से दूर रहकर ड्यूटी में खपा चुका होता है। उन्होंने कहा था कि पुलिस की एक-एक कमी मीडिया बताती है मगर ड्यूटी के दौरान उसके मुश्किल हालात पर मीडिया चुप रह जाती है। मगर अब खुद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, जिनके मातहत आती है दिल्ली पुलिस, एक ऐसे वक्त में दिल्ली पुलिस के साथ नहीं दिखे जब उनकी सख्त ज़रूरत रही।
दिल्ली पुलिस ख़बर बन गयी। केवल इसलिए नहीं कि वकीलों से उसका विवाद हुआ। इसलिए, कि पहली बार वह सड़क पर दिखी। वर्दी में भी, वर्दी के बिना भी। पुलिस तो पुलिस, उनके परिजन भी सड़क पर उतर गये। सबकी ज़ुबां पर था- हमें न्याय चाहिए। यह नज़ारा इसलिए अहम हो गया क्योंकि दिल्ली की सड़कों पर पहली बार रक्षक रक्षा की गुहार लगाते दिखे। नेतृत्व की कमी पर भी दुखी दिखे। आश्चर्य है कि गृहमंत्रालय पूरी तरह से खामोश रहा। ऐसा लगा मानो गृहमंत्री अमित शाह राजधानी में ही न हों। महत्वपूर्ण सवाल ये है कि आखिर पुलिस और परिजनों को ऐसा क्यों लगा कि अब और चुप नहीं रहा जा सकता?
पुलिसकर्मियों के आंदोलन पर अंगुलियां भी उठीं। कहा जाने लगा कि थाने खाली हैं। चोर-उचक्के मजे में हैं। ट्रैफिक जाम है। अनुशासन तोड़ रही है पुलिस। अधिकारियों की नहीं सुन रही है। गलत उदाहरण पेश कर रही है पुलिस। पुलिस का काम कानून का पालन होना चाहिए। जो विरोध है, उचित फोरम में करें। तरीके से करें।

वहीं कुछ पुलिसकर्मी यह याद दिलाते भी देखे और सुने गए कि उनके भी मानवाधिकार हैं, उन्हें भी न्याय पाने का हक है, उनकी भी बात सुनी जानी चाहिए। उनके पास भी यूनियन होना चाहिए, नेतृत्व होना चाहिए। पुलिस अधिकारियों को भी आम पुलिस की आवाज़ सुननी चाहिए।
70 साल में ऐसा नज़ारा कभी देखा नहीं गया था। दिल्ली पुलिस के जवानों ने कभी प्रदर्शन नहीं किया था, नारेबाजी नहीं की थी, कैंडल मार्च नहीं निकाला था। मगर, क्या दिल्ली पुलिस के जवानों को शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का हक नहीं है? जब डॉक्टर हड़ताल करते हैं, प्रदर्शन करते हैं तो क्या मरीज की जान नहीं जाती, बीमार और बीमार नहीं हो जाते? जब बैंककर्मचारी हड़ताल करते हैं तो अर्थव्यवस्था को नुकसान नहीं होता, आम लोग परेशान नहीं होते? जब मजदूर हड़ताल करते हैं तो उद्योग बेअसर रहता है? फिर सारे अनुशासन पुलिस के जवानों के लिए ही क्यों?
दिल्ली पुलिस देश के ट्रेड यूनियन संगठनों के लिए उदाहरण है कि अधिकार रहते हुए भी उन्होंने कभी इस अधिकार का प्रयोग नहीं किया। मगर, यही उदाहरण आज दिल्ली पुलिस के जवानों और परिजनों के लिए गर्व का विषय होने के बजाए अफसोस का विषय बना दिखा। एक साथ सपरिवार पुलिसकर्मियों का सड़क पर उतरना यह बताता है कि उनकी चिंता वाजिब है। गैरवाजिब बातों पर कभी सपरिवार प्रदर्शन नहीं हो सकता।
आखिर वो कौन सी बात रही जिसने दिल्ली पुलिस को इतना चिंतित और बेचैन बना डाला। चंद वीडियो सामने जरूर आए, जिसमें वर्दी पहनना ही पुलिसकर्मियों का गुनाह बनता दिखा। एक चिंता, गुस्सा, बेचैनी ज़रूर होती है इन वीडियो को देखकर। मगर, सड़क पर प्रतिक्रिया केवल इस कारण नहीं हुई।
कैदियों की गाड़ी खड़ी करने की जगह पर पार्किंग को लेकर जिस शख्स पर पुलिस ने कार्रवाई की, वह वकील होने के साथ-साथ अतिरिक्त सत्र न्यायालय के जस्टिस का बेटा भी था। वकील एकजुट हो गये। पुलिस अधिकारी की सार्वजनिक पिटाई हुई। पुलिस की ओर से फायरिंग की गयी। एक वकील को गोली लगी। दिल्ली हाईकोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया। पुलिस अधिकारियों पर कार्रवाई का आदेश जारी हो गया। मगर, पूरे मामले में वकीलों को बख्श दिया गया।

पुलिसकर्मियों को न्यायालय से भी शिकायत थी और अपने आला अधिकारियों से भी, जो उनकी नज़र में वकीलों की एकता और सरकार के दबाव के आगे उनका पक्ष नहीं रख सके। अब पुलिसकर्मियों को लगा कि सरकार, न्यायालय और खुद उनके अधिकारी भी जब उनके लिए नहीं बोल रहे हैं तो अब चुप रहने और अनुशासन में बंधे रहने का वक्त निकल गया।
5 नवंबर को दिन भर धरना-प्रदर्शन-कैंडल मार्च कर रहे पुलिसकर्मियों को आला अधिकारियों की कोई अपील शांत नहीं कर पायी। आला अधिकारियों ने एक बार फिर अनुशासन का डंडा चलाना चाहा। कनिष्ठ अधिकारियों को आदेश दिया गया कि वे पुलिसकर्मियों को विरोध छोड़ने को कहें। मगर, जिस मूल तत्व ने पुलिसकर्मियों को आंदोलित किया था, उसका निराकरण हुए बगैर यह कैसे हो सकता था। नतीजा अनुशासनहीनता उद्दंडता में बदलती चली गयी।
पुलिस से गलतियां होती रही हैं। पुलिस की ओर से गोली चलाया जाना भी ऐसी ही गलती है। मगर, जो कुछ वकीलों ने किया, उसके लिए वकीलों पर कार्रवाई के बारे में क्यों नहीं सोचा गया? इस मामले में पुलिस के आला अधिकारियों की जिम्मेदारी अधिक थी। मगर, आला अधिकारी राजनीतिक दबाव से बाहर निकलते तभी तो आम पुलिसकर्मियों की बात कर पाते।
यूपी पुलिस के आला अधिकारियों की बीमारी दिल्ली पुलिस को लगती दिखी। उस घटना को याद कीजिए जब बुलन्दशहर में गोमांस के टुकड़ों के बिखेरे जाने की घटना के बहाने इंस्पेक्टर सुबोध की मॉब लिंचिंग हुई थी। घटना के बाद हुई आला अधिकारियों की मीटिंग में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शहीद इंस्पेक्टर की चर्चा तक नहीं की। इसके बजाए उन्होंने गो मांस के टुकड़े फैलाने वालों की छानबीन करने का आदेश दिया था। तब आला अधिकारियों की चुप्पी आपराधिक मानी जानी चाहिए। इंस्पेक्टर सुबोध की गलती यही थी कि उन्होंने अखलाक को कथित तौर पर अपने घर के फ्रीज में गो मांस रखने के आरोप में पीट-पीट कर मार डालने वाले लोगों को जेल में डाला था। क्या ड्यूटी करना ही इंस्पेक्टर सुबोध का गुनाह हो गया? इंस्पेक्टर सुबोध के सभी हत्यारोपी जेल से बाहर हैं तो इंस्पेक्टर सुबोध के परिजन किस पर अंगुली उठाएं?
उस घटना का जिक्र भी जरूरी है जब कन्हैया कुमार को एकतरफा देशद्रोही घोषित कर दिया गया। पुलिस की हिरासत में वकीलों ने उनकी पिटाई की। पुलिस बेबस रही। कभी कोई सवाल नहीं उठे। क्या इसलिए कि देश ने मान लिया कि कन्हैया कुमार गद्दार है? थोड़ी देर के लिए मान भी लें, तो क्या वकीलों को कानून हाथ में लेने की इजाजत है? क्या पुलिस के लिए किसी कथित गद्दार की ज़िन्दगी की कोई कीमत नहीं? जो सवाल कन्हैया कुमार की पिटाई के दौरान उठने चाहिए थे, वही सवाल आज वकील और पुलिस एक-दूसरे की ओर अगुली उठाते हुए उठा रहे हैं। काश! कन्हैया कुमार के पास भी दिल्ली पुलिस के जवानों जैसी संख्या होती, उनकी तरह बड़ी संख्या में परिजन होते!
इन उदाहरणों का मतलब सिर्फ इतना है कि असहिष्णुता इस कदर समाज में पैर पसार चुकी है कि इसने बुद्धि-विवेक का हरण कर लिया है। राजनीति इतना पक्षपाती हो गयी है कि यह जिम्मेदारी के वक्त खामोशी की चादर ओढ़ लेती है। अधिकारी इस तरह से कर्तव्यपरायण हो गये हैं कि ऊपर चापलूसी और नीचे डंडा चलाने को ही उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझ ली है। ऐसे में ईमानदारी से ड्यूटी करने वाले अकेले पड़ेंगे ही। परिजनों की चिंता वाजिब है। अब परिजन भी मेरे-तेरे में न बंटें, उस हद तक हालात ख़राब होने से पहले जागना जरूरी हो गया है।
(प्रेम कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल उन्हें विभिन्न न्यूज़ चैनलों पर आयोजित होने वाली बहसों में देखा जा सकता है।)
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