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अयोध्या पर फैसला: अपने ही उठाए सवालों से घिरा एक फैसला

अयोध्या मुद्दे पर माननीय उच्चतम न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला आ चुका है। इस बड़े मसले से जुड़े राजनैतिक दल या संगठन अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस मसले को बार-बार कुरेदते रहेंगे, इसे जिंदा बनाए रखेंगे। ये भी तय है लेकिन थोड़ी देर के लिए या थोड़ी मात्रा में ही सही मसले का पटाक्षेप हुआ जरूर है, लोगों ने थोड़ी राहत जरूर महसूस की है। इस फ़ैसले के बाद। इस फ़ैसले के उपरांत जो सबसे सुखद पक्ष रहा वो है देश में अभूतपूर्व आपसी सौहार्द। फैसले से संतुष्ट एवं असंतुष्ट पक्षों ने आपसी सौहार्द और भाईचारे को बनाए रखने पर पूरा बल दिया।

हालांकि माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस निर्णय पर संवैधानिक मामलों के जानकर लोगों, कई पूर्व न्यायधीशों ने प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हुए इसे न्याय की कसौटी पर बहुसंख्यक समुदाय के आस्था की जीत बताया है। और इस कथन के पीछे अनेक मजबूत तर्क भी दिए हैं। माननीय उच्चतम न्यायालय की कई टिप्पणियां खुद ही उसके फैसले को संदिग्ध बताने के लिए काफी हैं। यथा

1. माननीय सुप्रीमकोर्ट ने अपने फ़ैसले को देते समय कहा कि फैसला आस्था के नाम पर नहीं बल्कि पूर्णतः तथ्यों और सबूतों के आधार पर दिया गया है। चीफ जस्टिस महोदय ने कहा कि मुस्लिम पक्षकार ने कोई अहम दस्तावेज नहीं प्रस्तुत किया जिसके आधार पर विवादित जमीन उन्हें दी जाए। अब अहम सवाल उठता है कि क्या ऐसा कोई दस्तावेज हिन्दू पक्ष ने भी प्रस्तुत किया? फिर हिन्दू पक्षकार को जमीन का मालिकाना हक क्यों ?

2. अदालत ने अपने फ़ैसले में स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया कि वर्ष 1949 में हिन्दू समुदाय के लोगों ने जिस तरह रात के अंधेरे में मस्जिद के अंदर मूर्ति को रख दिया और इसे स्वयं भगवान के प्रकट होने का प्रोपगैंडा बनाने का भरसक कोशिश की वह बिल्कुल गलत और आपराधिक कार्य था।

3. सुप्रीमकोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाना भी गलत और आपराधिक कार्य था। उस समय अदालत ने ऐसे धार्मिक अलगाववादियों पर कड़ी टिप्पणी भी की थी। फिर अपने फ़ैसले द्वारा ऐसे धार्मिक उन्मादियों और अलगाववादियों के कार्य को अप्रत्यक्ष रूप से सही साबित करने की कोशिश क्यों?

4.सुप्रीमकोर्ट ने जिस भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण यानी आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (ASI) की रिपोर्ट के आधार पर यह फैसला दिया उस रिपोर्ट में स्प्ष्ट रूप से कहा गया है कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। मस्जिद 15 वीं शताब्दी में बनायी गयी जबकि खुदाई के दौरान मिले अवशेष 12 वीं सदी के बतलाए जाते हैं।

5.उच्चतम न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में एक अहम बात का भी जिक्र किया, जिसके अनुसार खुदाई के दौरान मिले अवशेष इस्लामी नहीं थे। अब यहां भी एक अहम प्रश्न उठता है कि खुदाई के दौरान प्राप्त बस्तुएं इस्लामी नहीं थी तो वो हिन्दू धर्म या संस्कृति से भी मेल नहीं खाती थीं। यहां ये भी नहीं भूलना चाहिए कि बौद्ध धर्मावलम्बियों ने भी विवादित स्थल पर मालिकाना हक के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। ये अलग बात थी कि अदालत ने उनके दावे को खारिज कर दिया था। लेकिन आज भी कई बौद्ध अनुयायियों के मतानुसार खुदाई के दौरान प्राप्त कई अवशेष स्तूप के आकर के थे जो वहां बौद्ध विहार होने की संभावना को बल प्रदान करते हैं।

6. इस फैसले का एक विवादास्पद पक्ष ये भी है कि विवादित जमीन के सम्पूर्ण हिस्से पर विवाद नहीं था लेकिन सुप्रीमकोर्ट ने अपने फ़ैसले में सम्पूर्ण जमीन एक पक्ष को सौंप दिया।

मुद्दे और भी कई हैं जो सुप्रीमकोर्ट के फ़ैसले पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं तथा भविष्य में भी इसके दूरगामी प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है।

ख़ैर जो भी हो फ़िलहाल माननीय सुप्रीमकोर्ट के फ़ैसले के मद्देनजर सबसे सुखद बात ये रही कि सामाजिक सौहार्द और आपसी भाईचारा बना रहा। कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर असहमति जताई, असंतुष्टि भी जाहिर की लेकिन उस वर्ग विशेष ने सुप्रीमकोर्ट के फ़ैसले के सम्मान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराकर मिसाल भी पेश किया जो भारतीय विविधता में एकता की पहचान को और मजबूत कर दिया है। एक पक्षकार ने रिव्यू पेटिशन दायर नही करने का भी ऐलान कर दिया है। लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि ये सौहार्द वास्तविक है या परिस्थितिजन्य समझौता या चुप्पी?

आने वाला वक्त कई सवालों और शंकाओं का जवाब खुद देगा लेकिन सुप्रीमकोर्ट में लंबित बाबरी मस्जिद के गुम्बद को ढहाने सम्बन्धी केस ने अन्य स्मारकों से जुड़ी समस्याओं पर एक नया विवाद या एक नयी बहस को जन्म जरूर दे दिया है।

अंततः अगर तमाम तथ्यों को नजरंदाज कर भी दिया जाए और माननीय उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले को ही सही मान लिया जाए यानि विवादित जमीन को राम जन्मस्थान मान भी लिया जाए तो भी यह प्रश्न सदियों तक भारतीय न्यायिक व्यबस्था के मुंह को चिढ़ाती रहेगी कि –

“ज़मीन के टाइटल सूट के मामले में रामलला विराजमान पक्ष को मालिकाना हक़ लेकिन दूसरे पक्ष को वैकल्पिक जमीन क्यों?” क्या अदालत का यह फैसला एक बहुसंख्यक समुदाय के न्यायप्रिय लोगों के स्वाभिमान और उनकी न्यायप्रिय सोच पर तमाचा नहीं है?

(दया नन्द शिक्षाविद होने के साथ ही स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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