ग्राउंड रिपोर्ट: कैसे सुविधाओं-संसाधनों के बिना तीरंदाजी में नाम रोशन कर रही हैं आदिवासी लड़कियां?

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बीजापुर, बस्तर। छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग पिछले चार दशक से नक्सल प्रभावित जिला घोषित है। आज भी यहां आदिवासी बुनियादी सुविधाओं के बिना जीवन बसर करते हैं। युवाओं के पास अपना भविष्य संवारने के लिए आधारभूत सुविधाएं भी नहीं पहुंच पाई हैं।

सलवा जुडूम अभियान के दौरान सैकड़ों की संख्या में लोग यहां से विस्थापित होने के लिए मजबूर हो गए। अब इस घटना को लंबा समय बीत गया है। लोग दोबारा से धीरे-धीरे अपने सामान्य जीवन में वापस आ रहे हैं। बहुत सारी बच्चियां है जिनके माता-पिता सलवा जुडूम का शिकार हुए। लेकिन उनमें से आज कुछ लड़कियां अपने पारंपरिक हथियार के दम पर पूरे देश में अपना नाम रोशन कर रही हैं।

बस्तर संभाग के बीजापुर जिले की आसपास की लड़कियां तीरंदाजी में अपना भविष्य तराश रही हैं। इसमें से कुछ राष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी हैं। जनचौक की संवाददाता कुछ ऐसी ही लड़कियों से मिली और उनसे बातचीत की।

ललिता मुडमा

ललिता मुडमा को तीरंदाजी करते हुए छह साल हो गए हैं। उसके पिता नहीं है और मां एक किसान हैं, जो खेती किसानी करने के साथ-साथ महुआ, तेंदुपत्ता भी तोड़ने का काम करती हैं। ललिता की मां पढ़ी-लिखी नहीं हैं। लेकिन उन्होंने बच्चों को पढ़ाया और काबिल बनाया। ललिता के भाई भी नौकरी करते हैं।

ललिता ग्रेजुएशन की पढ़ाई के साथ तीरंदाजी की प्रैक्टिस भी कर रही है। उसका सपना है कि एक दिन वह ओलंपिक में खेलने जाए। अपने यहां तक के सफर के बारे में बात करते हुए ललित ने बताया कि छह साल पहले उसे जानकारी मिली थी कि बीजापुर में स्पोर्ट्स एकेडमी खुलने वाली है। जिसमें 10 तरह के खेलों को रखा जाएगा। इसकी जानकारी मिलने के बाद उसने यहां आने का निर्णय लिया। जिसमें उसके परिवार ने उसका साथ दिया।

ललिता मुडमा

अपने आरंभिक दिनों की बात करते हुए ललिता कहती है, “मैंने गांव में तीर-धनुष देखा था, लेकिन यह नहीं पता था कि यह एक तरह का गेम भी है। जिसमें मैं अपना भविष्य भी बना सकती हूं”।

ललिता कहती है, “मैंने पहले लकड़ी के तीर धनुष से अपने करियर की शुरुआत की। फिर मैंने राज्य स्तर पर खेला, फिर मुझे पता चला कि इसमें मॉडर्न इक्विपमेंट्स भी होते हैं”। आज ललिता एक बड़े मॉडर्न धनुष से निशाना लगा रही है।

साल 2021 में नेशनल लेवल पर खेलने के बाद अब ललिता आगे की तैयारी कर रही है। पीली टीशर्ट लाल टोपी और हाथों में मॉडर्न इक्विपमेंट्स के साथ निशाना लगाती ललिता के जीवन में कोरोना के कारण उसके खेल को ब्रेक लगा था। लेकिन कोच की मदद से वह एक बार फिर आगे आई है।

ललिता कहती है कि मेरा गांव शहर से 30 किलोमीटर दूर अंदर इलाके में है। आज भी गांव में न स्कूल है, न ही अस्पताल। कोरोना के दिनों का जिक्र करते हुए वह कहती है कि वह ऐसा दौर था जब मुझे लगा था कि अब दुबारा मैदान में नहीं आ पाऊंगी। लेकिन मेरे कोच ने मुझे फोन करके बुलाया। प्रैक्टिस शुरू की और नेशनल खेलने के लिए गई।

तीरंदाजी ने दी बच्चियों के सपनों को पंख

ललिता के अलावा सुसनी गोटे, अंकिता नाग, तनिया, प्रीति पोयम तीरंदाजी का हिस्सा हैं। ये सारी बच्चियां बीजापुर के आसपास के ब्लॉक से हैं। बीजापुर को आज भी नक्सल प्रभावित जिला माना जाता है। सुसनी गोटे पिछले एक साल से तीरंदाजी की प्रैक्टिस कर रही हैं। उसका सपना है ओलंपिक में खेलने का। 

सुसनी के माता-पिता किसान हैं और सीजन में मजदूरी भी करते हैं। खेल और नौकरी पर बात करने पर वह कहती है, “मेरे लिए फिलहाल खेल ज्यादा महत्वपूर्ण है, अभी खेलूंगी बाद में नौकरी के बारे में सोचूंगी। इन सभी खिलाड़ियों के माता-पिता या तो किसान हैं या मजदूरी करते हैं।

अंकिता नाग, तनिया और प्रीति पोयम फिलहाल उम्र में छोटी हैं, हाल ही में उन्होंने तीरंदाजी की प्रैक्ट्रिस शुरू की है। ये सभी तपती गर्मी में सुबह और शाम प्रैक्टिस करती हैं। जिसमें इनके दो कोच साथ देते हैं।   

अंकिता नाग और प्रीति पोयम

प्रीति पोयम लगभग तीन साल से स्पोर्ट्स में एक्टिव हैं। पहले वह बैटमिंटन खेलती थी, बाद में तीरंदाजी में आ गई। प्रीति ने बताया कि शुरुआत में वह बैटमिंटन खेल रही थी, लेकिन वह दौड़ने कूदने में उतनी सक्षम नहीं थी। तीरंदाजी में दौड़ना कम पड़ता है, यह पूरी तरह ध्यान केंद्रित करने वाला खेल है, इसलिए इसमें आ गई।

प्रीति के पिता नहीं है और मां मजदूरी करती हैं। प्रीति की पढ़ाई में किसी तरह की रुकावट न हो इसलिए उसकी मां ने उसे अनाथ आश्रम भेज दिया। वह वहीं रह कर पढ़ाई भी करती है।

उसने बताया कि बचपन में ही मेरे पिता का निधन हो गया था। बाद में मेरी मां ने मुझे अनाथ आश्रम में भेजा। वहीं से उसके टीचर्स ने उसे स्पोर्ट्स में भेजा। जहां अब वह प्रैक्टिस कर रही हैं।

ओलंपिक की तैयारी

इन खिलाड़ियों के कोच दुर्गेश प्रताप सिंह ने बच्चियों के बारे में बात करते हुए कहा कि बच्चियों के पिता भी नहीं हैं, ऐसे में इन्हें भावनात्मक रूप से मजबूत करने के लिए मोटिवेशनल बातें बताने के साथ-साथ कुछ वीडियो विजुएल्स दिखाए जाते हैं ताकि खिलाड़ी दिमागी तौर पर खेलने के लिए तैयार हो सकें।

दुर्गेश बताते हैं कि ये खिलाड़ी बीजापुर के ज्यादातर दूर दराज के गांवों से आते हैं, उन्होंने तीर धनुष को हमेशा पारंपरिक तौर पर ही देखा होता है। कभी यह नहीं सोचा कि इससे खेलते भी है, टूर्नामेंट भी होता है।

उनके लिए तो तीर धनुष का मतलब सिर्फ शिकार करना होता है। ऐसे में दो तीन महीने तो बच्चों को यह समझाने में और प्रोफेशन तीर-धनुष के साथ तालमेल बैठाने में लग जाता है। उन्हें यह बताया जाता है कि इसका काम सिर्फ शिकार करना ही नहीं है बल्कि इससे खेला भी जाता है।

तीरंदाजी की प्रक्टिस करती खिलाड़ी

भविष्य के बारे में बात करते हुए दुर्गेश कहते हैं कि जिस हिसाब से खिलाड़ी खेल रहे हैं, उन्हें उम्मीद है कि दो-तीन साल में बच्चियां बीजापुर स्पोर्ट्स एकेडमी का नाम विश्व पटल पर जरूर रोशन करेंगी।

बीजापुर एक नक्सल प्रभावित क्षेत्र है। दोबा की पहाड़ियों के दोनों तरफ फैला घना जंगल इसकी पहचान है। सलवा जुडूम का प्रभाव भी इस जिले में देखने को मिलता है। ऐसे में दोबारा अपनी जिदंगी की शुरुआत करने वाले लोगों के लिए अपनी बच्चियों को शहर भेजकर तीरंदाजी में आगे करना एक चुनौती भरा काम है।

बीजापुर के खेल अधिकारी डी सुबईय्या से हमने पूछा कि वह कैसे बच्चों के माता-पिता को बच्चों को शहर में भेजने के लिए मानते हैं?

इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि यह सच है कि यह नक्सल प्रभावित इलाका है। ऐसे में घर वालों को मनाना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन हमारी कोशिश रहती है कि गांव में जाकर लोगों को थोड़ा जागरूक किया जाए। गांव में जाकर हम लोग बच्चों के माता-पिता से मिलते हैं उन्हें शिक्षा और प्रोफेशनल खेलकूद के महत्व को बताते हैं, यहां तक कि उनके पड़ोसियों से भी बातचीत करते हैं।

परिवार को बताते हैं कि बच्चों को एकेडमी में अच्छी शिक्षा के साथ रहना-खाना भी दिया जाएगा। जिससे बच्चे का भविष्य अच्छा होगा। नौकरी करेगा तो परिवार की स्थिति में सुधार आएगा। ऐसा बोलने से कुछ परिवार तो मान ही जाते हैं। बाकी कुछ किसी भी कीमत पर नहीं मानते हैं।

तीरंदाजी की प्रैक्टिस करते खिलाड़ी

खेल पर बात करते हुए वह कहते हैं कि हमारे यहां से कुछ बच्चों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपना हुनर दिखाया है। पिछले सालों ‘स्फॉट बॉल’ में बच्चे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी खेलने जा चुके हैं।

आगे वह कहते हैं उम्मीद है तीरंदाजी में भी बीजापुर के बच्चे कुछ बड़ा करेंगे क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर पहले भी एक बच्ची गई थी। यहां बच्चों को खेलने के साथ-साथ पढ़ाई भी कराई जाती है ताकि शारीरिक मजबूती के साथ-साथ बच्चे अन्य क्षेत्रों में भी तरक्की करें।

बीजापुर जिले में स्पोर्ट्स एकेडमी में दस अलग-अलग खेलों को लिए बच्चों का चयन किया गया है। जिसमें ज्यादातर आदिवासी बच्चे हैं। जो धीरे-धीरे अपने काले अतीत से बाहर निकल कर खेलकूद में नया भविष्य तलाश रहे हैं। 

(छत्तीसगढ़ के बीजापुर से पूनम मसीह की ग्राउंड रिपोर्ट)

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