स्मृतिशेष: हर तरह के कट्टरपंथ के खिलाफ थे प्रोफेसर इम्तियाज अहमद

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इम्तियाज साहब (प्रोफेसर इम्तियाज अहमद) लगभग महीने भर पहले तक फेफड़े में किसी संक्रमण के चलते एम्स (ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस) में भर्ती होने के पहले, उम्र और बीमारियों को धता बताते हुए बौद्धिक रूप से सक्रिय थे। इम्तियाज साहब केवल बौद्धिकता तक सीमित नहीं थे बल्कि मानवाधिकार के अभियान में भी हमलों के साथ जनहस्तक्षेप में सक्रिय थे। कई दिन अस्पताल में कोमा में रहने के बाद परसों (19 जून) सुबह उन्होंने धरती को अलविदा कह दिया। प्रोफेसर इम्तियाज अहमद के जाने से समाजशास्त्र और मानवाधिकार क्षेत्र में एक कभी न भरे जाने वाला निर्वात निर्मित हो गया। खराब स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए वे मानवाधिकार संगठन जनहस्तक्षेप के कार्यक्रमों में वाकर पर चलकर नियमित आते थे।

प्रोफेसर इम्तियाज अहमद जेएनयू में मेरे शिक्षक थे। एमए में उन्होंने हमें राजनीतिक समाजशास्त्र (पॉलिटिकल सोशियॉलॉजी) पढ़ाया था। कई अन्य शिक्षकों की ही तरह इम्तियाज साहब बहुत ही अच्छे मित्रवत शिक्षक और बेहतरीन इंसान थे। इम्तियाज साहब के साथ एक निजी अनुभव के आधार पर मैंने एक अवधारणा बनाया कि यदि कोई शिक्षक किसी भी कारण से किसी छात्र के प्रति बदले की भावना रखता है तो वह शिक्षक होने की पात्रता खो देता है। दुर्भाग्य से इस मानदंड से बहुत सारे शिक्षक शिक्षक होने के अपात्र हैं। उन दिनों अन्यान्य कारणों से इनका विश्वविद्यालय प्रशासन से कुछ झंझट चल रहा था। मैंने कुछ ऐसा असहज सवाल पूछ दिया जिसमें प्रकारांतर से कुछ निजी आक्षेप भी था।

जेएनयू में अनवरत आंतरिक मूल्यांकन की प्रणाली थी। कुछ सहपाठियों ने डराने की कोशिश की कि मेरे ग्रेड खराब हो जाएंगे। मैंने “नौकरशाही की राजनीतिक भूमिका: एक समाजशास्त्रीय अध्ययन” पर एक टर्म पेपर जमा किया। इम्तियाज साहब ने मूल्यांकन के बाद टर्म पेपर लौटाते समय विषय के चुनाव के लिए साधुवाद दिया और उच्चतम ग्रेड, ए-प्लस दिया। हमारे समय के जेएनयू के शिक्षक निजी पसंदगी-नापसंदगी के आधार पर छात्रों के काम का मूल्यांकन नहीं करते थे। अपवाद नियमों की पुष्टि ही करते हैं। जब मैं शिक्षक हुआ तो जेएनयू के अपने शिक्षकों, खासकर इम्तियाज साहब से दृष्टांत से मिली नसीहत को व्यवहार में उतारने की कोशिश करता रहा।

प्रोफेसर इम्तियाज अहमद जेएनयू में 1972 में राजनीति विज्ञान का केंद्र (सेंटर फॉर पॉलिटकल स्टडीज) खुलने के साथ ही वहां पढ़ाना शुरू कर दिया और 1980 के दशक की शुरुआत में ही प्रोफेसर बन गए। विद्रोह सृजन की जननी है और व्यवस्था से विद्रोह के चलते काफी समय तक वे विश्वविद्यालय से निलंबित रहे। जिस तरह भगत सिंह, ग्राम्शी, नेहरू आदि ने जेल को पुस्तकालय बना लिया था और कालजयी रचनाओं को जन्म दिया था, उसी तरह प्रोफेसर इम्तियाज अहमद ने अपने निलंबन का उपयोग नए शोध करने और सामुदायिक समाजशास्त्र को नए आयाम देने और नए बौद्धिक क्षितिज गढ़ने में किया।

इम्तियाज एक प्रामाणिक धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी थे। वो हर तरह के कट्टरपंथ की बेखौफ, बेबाक आलोचना करते थे, चाहे वह इस्लामी कट्टरपंथ हो या हिंदुत्व का। वो कई बार अपने नाम के चलते भक्तों द्वारा ट्रोल भी किए जाते थे लेकिन इससे उनकी बेबाकी पर कोई फर्क नहीं पड़ा। ज्ञानवापी मुद्दे पर अपने बेबाक विचारों के चलते सोशल मीडिया पर ट्रोल हुए और धमकियां भी मिलीं, लेकिन उनकी बेबाकी बेखौफ बनी रही। बहुसंख्यवादी आतंक के बावजूद, वे देश और समाज की विविधतापूर्ण सामासिक संस्कृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता में टस-से-मस नहीं हुए न ही कभी खामोश रहे।

उन्होंने इस्लाम की भारतीय विशिष्टता को रेखांकित करने के साथ ही मुसलमानों में जातिवादी भेदभाव की भी आलोचना की है। वे अपने औपचारिक और अनौपचारिक छात्रों को पुस्तक ज्ञान के प्रति हतोत्साहित किए बिना व्यावहारिक ज्ञान यानि फील्ड स्टडी के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहते थे। वे धर्म की एकरेखीय, समरसतापूर्ण या एकरूपीय समझ को चुनौती देते हुए उसकी विविधता और बहुरूपता पर जोर देते थे। वे मुसलमान समुदाय में जातीय संरचना और भेदभाव की बात तो मानते थे लेकिन उनका यह भी मानना था कि धर्मांतरण के बाद जातियों के चरित्र और प्रवृत्तियों में कुछ फर्क आया है।

दलित और पिछड़े (पसमांदा) मुसलमानों में जातीय भेदभाव के विरुद्ध विकसित हो रही चेतना में अन्य कारणों के साथ उनकी रचनाओं के प्रभाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक सच्चे धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी की तरह प्रो. इम्तियाज अहमद देश के बंटवारे और बाद की दुर्दशा के लिए हिंदुत्व और इस्लामी सांप्रदायिकता को समान रूप से जिम्मेदार मानते थे। इम्तियाज साहब बहुत आशावान थे। हमारी आखिरी मुलाकात (2-3 महीने पहले) में उन्होंने जोर देकर कहा था कि भारत में सामासिक संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि सांप्रदायिकता के छोटे-मोटे उफान उसे नहीं उखाड़ सकते। जल्दी ही इतिहास की गाड़ी अंधेरी सुरंग से बाहर निकल रोशनी में आएगी, बस उसके स्वागत के लिए मशालें जलाए रखना है।

सांप्रदायिकता के विरुद्ध सामासिक संस्कृति की संरक्षा तथा मानवाधिकारों के संघर्ष को आगे बढ़ाते रहना ही प्रोफेसर इम्तियाज को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। सामासिक संस्कृति और धर्मनिरपेक्ष राजनीति के प्रति अडिग प्रतिबद्धता के इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपने गुरू और मानवाधिकार के संघर्ष की यात्रा के सहयात्री को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। अलविदा इम्तियाज साहब।

(ईश मिश्रा रिटायर्ड अध्यापक और लेखक हैं।)

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