भाजपा की मुस्लिम-विरोधी नीतियां जहां सभी के सामने स्पष्ट हैं, वहीं यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि वह पसमांदा अर्थात पिछड़े मुसलमानों के एक वर्ग को अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाने की कोशिश कर रही है। वह उन समुदायों को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर रही है, जिन्हें वह चुनावी दृष्टिकोण से उपयोगी मानती है। इसी संदर्भ में हाल ही में स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा ने कुछ ओबीसी मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं, और अब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय तथा जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे प्रतिष्ठित अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में इन समुदायों को आरक्षण देने का संकेत दिया है।
हालांकि भाजपा भली-भांति जानती है कि उसकी हिंदुत्व आधारित विचारधारा पसमांदा समाज के हितों से मेल नहीं खाती, फिर भी वह प्रतीकात्मक स्तर पर पसमांदा मुसलमानों के लिए सहानुभूति जताने की राजनीति कर रही है। उदाहरण के तौर पर, 27 जून 2023 को भोपाल में भाषण देते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद पसमांदा मुसलमानों के प्रति संवेदना जताई थी और पार्टी कार्यकर्ताओं से आह्वान किया था कि वे पिछड़े मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने के हरसंभव प्रयास करें।
उन्होंने कहा, “अगर आप हमारे मुसलमान भाई, बहनों की तरफ़ देखोगे, और मैं देखता हूं, कि जो हमारे पसमांदा मुसलमान भाई बहन हैं, ये वोट बैंक की राजनीति करने वालों ने, हमारे जो पसमांदा मुसलमान भाई बहन हैं, उनका तो जीना भी मुश्किल करके रखा हुआ है वो तो तबाह हो गये, उनको तो कोई फ़ायदा नहीं मिला है, वे कष्ट में गुज़ारा करते हैं, उनकी आवाज़ सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है, उनके ही धर्म के एक वर्ग ने पसमांदा मुसलमानों के इतना शोषण किया है, लेकिन इसके ऊपर देश में कभी चर्चा नहीं हुई, जो पसमंदा मुसलमान हैं, उन्हें आज भी बराबरी का हक़ नहीं मिलता, उन्हें नीचा और अछूत समझा जाता है…”।
यह सच्चाई है कि भाजपा ने कुछ पसमांदा मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने में सफलता भी हासिल की है। लेकिन इसके बावजूद पसमांदा समाज में भाजपा की लोकप्रियता उस स्तर तक नहीं पहुंच पाई है जिसकी वह अपेक्षा करती है। इसका मुख्य कारण यह है कि भाजपा की कथनी और करनी में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है। एक ओर वह खुद को पसमांदा मुसलमानों की हितैषी दिखाने की कोशिश करती है, वहीं दूसरी ओर वह संसद चुनावों में किसी मुस्लिम को टिकट नहीं देती। विधानसभा चुनावों में भी मुसलमानों को लगभग पूरी तरह से हाशिए पर रखती है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में पसमांदा मुस्लिम नेताओं की उपस्थिति अत्यंत सीमित है।
इतना ही नहीं, भाजपा ने न केवल दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने से लगातार इनकार किया है, बल्कि पिछड़े मुसलमानों पर होने वाले हमलों पर भी अक्सर चुप्पी साधी है।
इन तमाम विरोधाभासों के बावजूद, भाजपा पसमांदा समुदाय के कुछ विशेष वर्गों को अपने पाले में लाने के प्रयास में जुटी हुई है, जिन्हें वह अपने सामाजिक-राजनीतिक प्रयोग के लिए उपयोगी मानती है। विशेष रूप से, वह पसमांदा समाज के पढ़े-लिखे और मध्यवर्गीय तबके को शिक्षा, आरक्षण और रोजगार के नाम पर आकर्षित करने की कोशिश कर रही है।
इसके साथ ही, भाजपा के नेता अक्सर सेक्युलर पार्टियों की खामियों को गिनाने में व्यस्त रहते हैं, जबकि स्वयं वैचारिक मुद्दों से बचते नजर आते हैं। भाजपा का यह एजेंडा पसमांदा मुसलमानों के एक सीमित और अपेक्षाकृत संपन्न वर्ग को अपनी ओर खींचने का प्रयास है, खासतौर पर उन लोगों को, जो खुद को अल्पसंख्यक संस्थानों में अशरफ़ मुस्लिमों द्वारा भेदभाव का शिकार मानते हैं। पार्टी ऐसे तबकों को सहानुभूति और समर्थन देकर अपने पक्ष में करने की रणनीति पर काम कर रही है।
भाजपा का यह प्रयास उन लोगों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है, जो यह महसूस करते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और नौकरी दोनों ही स्तरों पर उनके साथ भेदभाव होता है। संभवतः इसी पृष्ठभूमि में मोदी सरकार द्वारा गठित अन्य पिछड़ा वर्ग कल्याण पर संसदीय पैनल ने इन संस्थानों से पसमांदा मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को लेकर विस्तृत आंकड़े मांगे हैं।
अंग्रेज़ी दैनिक ‘द हिंदू’ में 31 मई को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, यह संसदीय पैनल 13 जून को शिक्षा मंत्रालय के अधिकारियों के साथ-साथ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रतिनिधियों से मुलाकात करेगा। इस बैठक में यह जानने की कोशिश की जाएगी कि इन संस्थानों में ओबीसी मुसलमानों की वर्तमान स्थिति क्या है और अब तक उनके प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए क्या प्रयास किए गए हैं। साथ ही, यह भी चर्चा की जाएगी कि प्रवेश और रोजगार दोनों ही स्तरों पर उनके लिए आरक्षण कैसे लागू किया जा सकता है। सूत्रों के अनुसार, इन अल्पसंख्यक संस्थानों में ओबीसी मुसलमानों को आरक्षण देने की संभावनाओं पर गंभीरता से विचार हो रहा है।
संसदीय पैनल भली-भांति जानता है कि इन अल्पसंख्यक संस्थानों में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के लिए कोई आरक्षण व्यवस्था नहीं है। इसके बावजूद, वह फिलहाल केवल यह सीमित सवाल उठा रहा है कि ओबीसी मुस्लिम, जो मुस्लिम आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं, उन्हें मुस्लिम कोटे के भीतर आरक्षण क्यों नहीं मिल रहा है?
यह विडंबना है कि इस पैनल में स्वयं पसमांदा मुसलमानों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, फिर भी यह दावा किया जा रहा है कि पैनल पसमांदा मुसलमानों के हक़ में काम कर रहा है। दरअसल, भाजपा इस पहल के माध्यम से अशरफ़ और पसमांदा मुसलमानों के बीच पहले से मौजूद सामाजिक दूरी को और गहरा करना चाहती है, और साथ ही खुद को पिछड़े मुसलमानों को मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही है।
यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि भाजपा सचमुच पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण देने के अपने वादे को अमल में लाती है या यह भी एक और चुनावी छलावा साबित होगा। फिर भी, यह साफ़ देखा जा सकता है कि पिछड़े तबकों का एक उभरता हुआ मध्यम वर्ग भाजपा की ओर उम्मीद से देख रहा है, बशर्ते कि हिंदुत्ववादी पार्टी वास्तव में अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में पसमांदा मुसलमानों को उनका समुचित प्रतिनिधित्व और हक़ दिला सके।
दरअसल, सेक्युलर पार्टियों की विफलता ने भी भाजपा के लिए यह अवसर पैदा किया है। मुसलमानों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने का आरोप केवल भाजपा पर नहीं बल्कि उन सेक्युलर दलों पर भी है, जिन्होंने अक्सर पूरे मुस्लिम समुदाय की नुमाइंदगी मुट्ठी भर अशरफ़ नेताओं तक सीमित रखी।
मुस्लिम समाज के भीतर व्याप्त जातिगत और वर्गीय विषमताओं को लंबे समय तक धर्मनिरपेक्ष दलों ने नजरअंदाज़ किया, जिससे पसमांदा तबका खुद को उपेक्षित और ठगा हुआ महसूस कर रहा है। भाजपा इसी असंतोष को भुनाने की कोशिश कर रही है। ग़ौर तलब हो कि वक्फ़ अधिनियम के खिलाफ जब देशभर में मुसलमानों ने ज़ोरदार विरोध दर्ज कराया, तब भाजपा ने इस विवाद का इस्तेमाल कुछ पसमांदा मुस्लिम नेताओं को अपने पक्ष में करने के लिए किया। वक्फ़ बिल पर बहस के दौरान भाजपा के नेताओं ने यहां तक वादा कर दिया कि वक्फ़ बोर्डों में भी पसमांदा समाज को समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाएगा।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि भाजपा की आरक्षण संबंधी रणनीति का उद्देश्य केवल पिछड़े वर्गों के वोट हासिल करना नहीं है, बल्कि इसका एक बड़ा मकसद उन मुस्लिम वोटों को भी विभाजित करना है, जो अब तक पारंपरिक रूप से धर्मनिरपेक्ष दलों को मिलते रहे हैं। यही कारण है कि जब भाजपा पसमांदा मुसलमानों को लुभाने की कोशिश करती है, तो अशरफ़ नेतृत्व इस प्रयास को ‘मुस्लिम समाज को तोड़ने की साजिश’ और ‘सांप्रदायिक शक्तियों की चाल’ करार देकर खारिज कर देता है।
यह सच है कि सांप्रदायिक ताकतें मुसलमानों के भीतर फूट डालने और वोटों को बांटने की कोशिश कर रही हैं। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मुस्लिम समाज के भीतर व्याप्त सामाजिक असमानता और जातिगत भेदभाव को अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। अशरफ़ जातियों को आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या उन्होंने अल्पसंख्यक संस्थानों को कुछ खास जातियों और परिवारों की खानदानी जागीर बनाकर नहीं रखा है? क्या यह उचित है कि पसमांदा मुसलमानों को उन संस्थानों और संगठनों में उनका हक़ और प्रतिनिधित्व न मिले, जिन्हें मुसलमानों की भलाई के नाम पर खड़ा किया गया है?
यह एक कटु यथार्थ है कि मुस्लिम धार्मिक और सामाजिक संस्थानों में पसमांदा मुसलमानों की हिस्सेदारी नगण्य है। जब पसमांदा तबका अपने हक़ की बात करता है, तो तुरंत यह तर्क दिया जाता है कि “इस्लाम में जाति नहीं होती।” लेकिन यह तर्क सामाजिक यथार्थ से भागने का प्रयास प्रतीत होता है। यदि इस्लाम में जाति नहीं है, तो फिर मुस्लिम समाज में जातिगत आधार पर शादी-ब्याह, खान-पान, सामाजिक रुतबे और नेतृत्व की दावेदारी कैसे संचालित होती है?
इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना होगा कि जब पसमांदा मुसलमान अपने शोषण और बहिष्करण के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं, तो उसे ‘जातिवादी’ कह कर खारिज क्यों किया जाता है? क्या सामाजिक न्याय की मांग को बदनाम करना ही समाधान है? मुस्लिम समाज के अशरफ़ नेतृत्व को यह समझना चाहिए कि जब किसी घर के भीतर ही अधिकारों का हनन और पक्षपात आम हो जाता है, तब बाहरी हस्तक्षेप का रास्ता स्वतः खुल जाता है। दूसरों को दोष देना आसान होता है, लेकिन आत्मालोचना और जवाबदेही की प्रक्रिया सबसे कठिन और साथ ही सबसे ज़रूरी भी है।
यह विशेष रूप से उस स्थिति में लागू होता है, जब हम अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे अल्पसंख्यक संस्थानों की बात करते हैं। यह संस्थान अक्सर विवादों का केंद्र रहा है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने इसके अल्पसंख्यक दर्जे को बरकरार रखा, लेकिन इसके बावजूद, इस विश्वविद्यालय के पास सामाजिक-शैक्षणिक आधार पर आरक्षण लागू करने की कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
विश्वविद्यालय का पक्ष लेने वाले लॉबी का तर्क है कि एक अल्पसंख्यक संस्थान होने के कारण वह अनुसूचित जातियों, जनजातियों और ओबीसी समुदायों को आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। उनका यह भी कहना है कि सभी वर्गों के छात्र सामान्य श्रेणी के तहत आवेदन कर सकते हैं।
लेकिन बहुजन समाज का आरोप है कि ‘सामान्य श्रेणी’ दरअसल उच्च जातियों की सुविधा बन गई है, जहां प्रवेश और नियुक्तियों में पसमांदा मुसलमानों और अन्य वंचित तबकों को बराबरी का अवसर नहीं मिलता। यही वजह है कि उनके लिए पृथक आरक्षण की मांग लगातार उठ रही है।
जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। वहां अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर मामला अभी दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित है। लेकिन इस बीच, जमीनी सच्चाई यह है कि जामिया में भी दलितों, आदिवासियों और ओबीसी वर्गों के लिए नौकरियों और दाखिले में कोई ठोस या व्यवस्थित आरक्षण नीति लागू नहीं है।
यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि मोदी सरकार के तहत गठित संसदीय समिति केवल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया में ओबीसी मुसलमानों को आरक्षण देने की व्यवस्था पर ही विचार करेगी या फिर अन्य अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को भी इस प्रक्रिया में शामिल किया जाएगा। यह प्रश्न अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण है कि यदि मुस्लिम ओबीसी समुदाय को उनके धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों में आरक्षण का लाभ दिया जाता है, तो क्या यही सिद्धांत ईसाई और सिख समुदायों के ओबीसी वर्गों पर भी लागू नहीं होना चाहिए? क्या उन्हें भी उनके स्वयं के अल्पसंख्यक संस्थानों में समान आरक्षण नहीं मिलना चाहिए?
(डॉ. अभय कुमार ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़’ से आधुनिक इतिहास में पीएचडी प्राप्त की है। उनकी आगामी पुस्तक मुस्लिम पर्सनल लॉ पर आधारित है। संपर्क: [email protected])