क्रीमी लेयर के नाम पर एससी-एसटी आरक्षण को कमजोर करना निंदनीय: आइसा

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नई दिल्ली। छात्र संगठन आइसा ने एससी-एसटी आरक्षण में सुप्रीम कोर्ट के उपवर्गीकरण के फैसले का विरोध किया है। संगठन ने कहा है कि  सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की संवैधानिक पीठ ने राज्य सरकारों को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आरक्षण के लोगों के लिए आंकड़ों के आधार पर उप-वर्गीकरण लागू करने का आदेश दिया है। यह आदेश सामाजिक असमानता और संसाधनों की ग़ैर- बराबरी की गंभीरता को समझने के लिए देशव्यापी जाति जनगणना की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करता है, और तत्पश्चात् सामाजिक न्याय को सुनिश्चित कराने के लिए हाशिए पर पड़े सभी वर्गों के लिए आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाने की ज़रूरत को दर्शाता है। 

संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीलासिस बोस ने कहा किनहालांकि, उप-वर्गीकरण को संभव बनाने के लिए, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की सीमाओं से परे जाकर सुझाव दे दिया कि आरक्षण को केवल एक पीढ़ी तक सीमित रखा जाए और “क्रीमी लेयर” की अवधारणा को एससी-एसटी आरक्षण पर लागू किया जाए। भारत में एससी-एसटी आबादी के लिए आरक्षण की नीति अस्पृश्यता के लंबे इतिहास से सामने आती है – सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अलगाव जिसके परिणामस्वरूप उन्हें शिक्षा, रोजगार और सार्वजनिक स्थानों में समान अवसरों से वंचित रखा गया। 

उन्होंने कहा कि “क्रीमी लेयर” की अवधारणा को लाना और सामाजिक न्याय के लाभों को एक पीढ़ी तक सीमित करने का तर्क देना न केवल समस्याग्रस्त है, बल्कि आर्थिक गतिशीलता के लाभ से जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने का हिमायती है। यह आरक्षण और सामाजिक न्याय की नीतियों को कमजोर यद्यपि खत्म करने की दिशा में एक कदम है। 

आइसा अध्यक्ष का कहना था कि यदि जातीय पहचान के आधार पर पीढ़ी दर पीढ़ी भेदभाव होता है, तो आरक्षण और सामाजिक न्याय की नीतियां एक पीढ़ी तक सीमित क्यों रहेंगी? जब जाति किसी व्यक्ति की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रगति के साथ समाप्त नहीं होती है, तो कोई ‘क्रीमी लेयर’ के विचार से कैसे सामंजस्य बैठा सकता है, और आरक्षण को एक पीढ़ी तक सीमित करना ऐतिहासिक और संरचनात्मक उत्पीड़न से कैसे निपट सकता है? यह स्पष्ट है कि ‘क्रीमी लेयर’ के विचार की शुरुआत ना केवल दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण में हस्तक्षेप करने का रास्ता खोलेगी, बल्कि इसे एक दिन पूरी तरह से समाप्त कर देने का प्रयास है। 

उन्होंने कहा कि शहरी क्षेत्रों में जातिगत भेदभाव की प्रकृति, संरचना और विकसित होते रूपों को समझने में इस निर्णय की विफलता चौंकाने वाली है। प्रमुख उच्च शिक्षण संस्थानों में दलित और आदिवासी छात्रों के संघर्ष की दिन-प्रतिदिन की कहानियाँ, जहाँ उन्हें संस्थागत भेदभाव का सामना करना पड़ता है, के उथले दावों को उजागर कर रही हैं। दलित और आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षण के महत्व और सकारात्मक कार्रवाई के समर्थन को मजबूत करने की जरूरत है, न कि कमजोर करने की।

आक्रामक निजीकरण और कल्याणकारी राज्य के सिकुड़ते हुए इस दौर में, विशेष रूप से फासीवादी भाजपा शासन के तहत, जिसने जनता को अडानी और अंबानी जैसे अपने करीबी पूंजीपतियों के हाथों संसाधनों को बेच दिया है। छात्र और सामाजिक न्याय के आंदोलन लंबे समय से ‘रोहित वेमुला अधिनियम’ के क्रियान्वयन, निजी क्षेत्रों में आरक्षण और शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सृजन पर सार्वजनिक व्यय बढ़ाने की मांग कर रहे हैं ताकि इस आक्रामक निजीकरण और हाशिए पर पड़े लोगों के लिए अवसरों के सिकुड़ने का मुकाबला किया जा सके।

आइसा महासचिव प्रसेनजीत कुमार ने कहा कि यह स्पष्ट हो जाता है कि इन विभिन्न जातियों की स्थिति के वास्तविक आकलन के बिना उप-वर्गीकरण का कोई भी विचार असंभव प्रतीत होता है और इसके लिए जाति जनगणना अनिवार्य है। बिहार राज्य ने विस्तृत सामाजिक और जाति जनगणना के बाद एक नया सकारात्मक नीति मॉडल प्रस्तुत किया, जिसने हाशिए पर पड़े लोगों के आरक्षण और आरक्षण के कुल प्रतिशत को बढ़ा दिया। हालाँकि, इसे पटना उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया और बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने पटना हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने से इनकार कर दिया, जो सामाजिक समावेश और सामाजिक न्याय की नीतियों पर न्यायालयों के रवैए को साफ़ उजागर करता है। 

उन्होंने कहा कि इसकी तुलना 10% EWS कोटे से करना चाहिए जिसे उसी न्यायालय ने बरकरार रखा, जबकि OBC, दलित और आदिवासियों को उसमें शामिल नहीं किया गया, जो EWS के तहत आने वाले लोगों की तुलना में आर्थिक रूप से ज़्यादा पीछे हैं। यह स्पष्ट है कि भारतीय न्यायपालिका सामाजिक न्याय और सकारात्मक कार्रवाई को मजबूत करने में पूर्णतः विफल रही है। इसने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 50% की सीमा का उल्लंघन किया, लेकिन बिहार की आरक्षण नीति के बारे में अपनी जिम्मेदारी को नजरअंदाज कर दिया, जो समावेशन के बजाय सामाजिक बहिष्कार के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

प्रसेनजीत का कहना था कि यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि यह फैसला विभाजन और प्रतिद्वंद्विता को बढ़ावा न दे, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धांतों को कायम रखते हुए सामाजिक बहिष्कार और हाशिए पर डाले जाने के साथ-साथ निजीकरण के खिलाफ सामूहिक लड़ाई को मजबूत करे।

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