पश्चिम एशिया को युद्ध और अस्थिरता में झोंकने के लिए इजराइल से अधिक अमेरिका जिम्मेदार है 

दुनिया भर से लोगों की बद्दुआ इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को स्वीकार करनी पड़ रही हैं, क्योंकि गाजा में पिछले 20 महीने से उसी के आदेश के चलते हजारों बच्चों, महिलाओं और निरपराध फिलिस्तीनियों का कत्लेआम इजराइल की आर्मी आईडीएफ़ के हाथों किया गया है। विशेषकर, ईरान पर हमले के बाद तो इजराइल की पाशविकता चरम पर पहुंच चुकी है, जैसे वह ईरानी हमलों का बदला इन भूखे, असहाय लोगों को गोलियों से भूनकर लेने के लिए आमादा है। 

उसकी क्रूरता की पराकाष्ठा का हाल यह है कि भुखमरी से तड़प रहे फिलिस्तीनियों को राहत सामग्री लेने के लिए पहले बुलाया जाता है, और फिर आईडीऍफ़ की अंधाधुंध गोलियों से कई दर्जन बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को मार डाला जाता है। कल ही 70 निरपराध लोगों को राहत सामग्री देने की आड़ में मार डाला गया। 

इसके पीछे एक वजह यह बताई जा रही है कि 20 महीने से इजरायली सेना हजारों टन बम और मिसाइल फूंककर औसत जितने फिलिस्तीनियों को मार पा रही थी, उससे अधिक भूख से बिलबिलाते लोगों को बंदूक की गोलियों से काफी सस्ते में भूना जा सकता है। इस घृणित कुकृत्य को देख पश्चिमी मुल्कों की जनता आये दिन अपने देशों में इजराइल के खिलाफ प्रदर्शन करती है, जिससे खौफ खाकर यूरोपीय देशों के हुक्मरानों को भी अपनी कथित नैतिकता का प्रदर्शन करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा था।

यह संकट नेतन्याहू को भी सता रहा था, क्योंकि खुद उसके देश के भीतर भी सवाल उठने लगे थे। ईरान के खिलाफ सुनियोजित हमले की पहल लेकर उसने एक तीर से दो शिकार कर दिए। गाजा और फिलिस्तीन का प्रश्न आज पीछे छूट गया है, अब ईरान के परमाणु हथियार संपन्न हो जाने के बेहद करीब पहुंच जाने के खतरे को हौवा बनाकर नेतन्याहू न सिर्फ अपनी इमेज को सुधारने की कवायद में लग गये, बल्कि पश्चिमी मुल्कों के लिए भी यह मोड़ राहत पहुंचाने वाला साबित हुआ है।  

लेकिन जर्मनी के चांसलर फ्रेडरिक हेर्ज़ की आज की टिप्पणी ने एक बार फिर से दुनिया का ध्यान मूल मुद्दे की ओर खीँच दिया है, जिसे जानना आवश्यक है। जर्मन चांसलर का कहना है, “ईरान के खिलाफ “ हमारे डर्टी वर्क” को इजराइल अंजाम दे रहा है। लेकिन इजराइल इसे अकेले पूरा नहीं कर सकता है, क्योंकि इसे अंजाम देने के लिए जो हथियार चाहिए वह इजराइल के पास नहीं हैं. लेकिन अमेरिका के पास हैं।” 

जर्मन चांसलर की यह स्वीकारोक्ति ईरान के दावे को पुख्ता करती है कि अमेरिका के साथ छठे दौर की वार्ता से पहले इजरायली हमले में अमेरिका की रजामंदी थी। बारीकी से अध्ययन करने पर भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जो दिखाया जाता है, वह सच का सिर्फ एक सिरा होता है। असल में इजराइल जो कुछ कर रहा है, उसके पीछे अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौन सहमति शुरू से रही है। यह अलग बात है कि बेंजामिन नेतन्याहू के रूप में अमेरिका को एक ऐसा दुमछल्ला मिला हुआ है, जिसे एक कदम चलने का निर्देश देने पर वह खुद से 10 कदम चलने की ताव रखता है। अमेरिका को सभी महाद्वीपों में कम से कम एक ऐसा देश चाहिए था।

आज अमेरिकी साम्राज्यवाद संकटकाल में है, जिसे दुनिया के हर कोनों में एक इजराइल चाहिए, इजराइल न हो तो कम से कम यूक्रेन जैसा देश तो चाहिए ही, जो चारे के बतौर काम आ सके। 90 के दशक में सोवियत संघ के पतन के साथ ही विश्व की बागडोर पूरी तरह से अमेरिका के हाथ में आ गई थी। उसके पास विश्व में 700 से अधिक सैन्य ठिकाने आज भी हैं। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बैंक, आइएमएफ जैसी संस्थाएं भी अमेरिकी हितों को ही आगे करने का काम करती आई हैं।

यानि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नव-उपनिवेशवादी व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए पश्चिम के देशों को दुनियाभर के विकासशील देशों में या तो अपना पिट्ठू शासक चाहिए था, या अधिक से अधिक तटस्थ देश। और जो देश उसके निर्देश पर चलने से इंकार कर दें, वहां पश्चिमी मीडिया, सीआईए, सैन्य हस्तक्षेप की मदद से सत्ता में बदलाव को अंजाम देकर अपने अनुकूल बनाया जाता रहा है। हालाँकि शीत युद्ध के दौर में इसे अंजाम देने के लिए बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ता था।

लेकिन सोवियत संघ के खात्मे के बाद इसकी कोई जरूरत नहीं रही। ग्लोबल वर्ल्ड आर्डर को अब अमेरिका ही  डिक्टेट करता है, जबकि ब्रिटेन और इजराइल जैसे कट्टर समर्थक सबसे पहले आगे आकर उसके समर्थन में खड़े होकर माहौल को तैयार करते रहे हैं। 

कहा तो यहां तक जाता है कि जिस यूरोप के ऊपर दो-दो विश्व युद्ध छेड़ने का सबसे संगीन आरोप है, और जिसने अपने नाजीवादी शासन के तहत दुनिया से यहूदी नस्ल को खत्म करने का बीड़ा उठाया था, ने ही द्वितीय विश्व युद्ध के खात्मे के साथ ही उन्हें फिलिस्तीन में बसाकर असल में तेल पर अपनी पकड़ को बनाये रखने के लिए चारे के रूप में स्थापित किया। यह एक ऐसा कड़वा यथार्थ है जिसे इजराइल और यूरोपीय देश कभी स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन पश्चिम एशिया के मुस्लिम देश भी इससे नावाकिफ हैं।  

ऑटोमोबाइल क्रांति के जनक अमेरिका के लिए भी पेट्रोल, डीजल का क्या महत्व था, इसे आसानी से समझा जा सकता है। ऐसे में इजराइल को हर तरह से मजबूत करना और उसके जरिये खाड़ी के देशों को टाइट रखन यूरोप और अमेरिका के हितों के लिए सबसे माकूल साबित हुआ, जो आज भी जारी है। ये सब अमेरिकी वर्ल्ड आर्डर के तहत किया जाता रहा, लेकिन पश्चिम एशिया में इसे इजराइल की इच्छा के तहत दिखाकर अमेरिका के पास हमेशा मोलभाव करने की गुंजाइश बनी रहती है।

अब कहा जा रहा है कि इजराइल पिछले 20 वर्षों से ईरान को जमींदोज करने की प्लानिंग कर रहा था। लेकिन क्या सच इतना ही है? असल में, पिछले 10-12 वर्षों में एशिया से चीन एक बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है, जिसके नेतृत्व में एशिया ही नहीं अफ्रीका, लातिनी अमेरिका सहित रूस जैसे देश भी एक नया ब्लॉक बनते दिख रहे हैं। 

साम्राज्यवादी शोषण के तहत अब तक दुनियाभर का टैलेंट अपनेआप अमेरिका पहुंच रहा था, जिसे अमेरिकन ड्रीम के झांसे में रिसर्च और नवोन्मेष के माध्यम से तकनीक पर अमेरिकी कॉर्पोरेट की बादशाहत कायम थी, और अमेरिकी कंपनियों और निवेशकों के साथ तीसरी दुनिया के मुल्कों में विकास के बहाने वहां से जबर्दस्त मुनाफावसूली का खेल पश्चिमी देश मिलकर खेल रहे थे।

भारत भी उसका शिकार हुआ. हम सबने पब्लिक सेक्टर को भला-बुरा कहा, उसे निकम्मा, लालफीताशाही और धीमी विकास, भ्रष्टाचार की जननी कहा। पूर्व वित्त मंत्री और बाद में प्रधानमन्त्री के रूप में मनमोहन सिंह की अगुआई में नवउदारवादी अर्थव्यस्था को अंगीकार किया, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर हमने विकास का स्वाद चखा और पश्चिमी देशों को भी अच्छाखासा शेयर मिला। लेकिन इसे जॉबलेस ग्रोथ की संज्ञा दी गई, जो अब मोदीराज में जॉब लोस में तब्दील हो चुकी है। ऐसा लगभग सभी विकासशील देशों के साथ हुआ, सिवाय एक देश चीन के।

हालाँकि उसने भी अपने देशवासियों का आर्थिक शोषण होने दिया, लेकिन पूंजी निर्माण और उन्नत प्रौद्योगिकी से राब्ता बनाने के लिए ऐसा करना जरुरी था। पर उसने अपनी मूल समझ को नहीं बदला, जिसमें राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही। स्पेशल इकॉनोमिक ज़ोन में द्रुत विकास होता रहा, और राज्य ने शिक्षा, स्वास्थ्य के विकास के अपने घोषित लक्ष्य को जारी रखा। ग्रामीण अर्थव्यस्था में सुधार और उत्पादकता में सुधार के साथ-साथ छोटे और मझौले उद्योगों को समर्थन देने का काम सतत जारी रहा।

आज पश्चिमी देशों को लगता है कि चीन ने उसे चीट किया है। आज चीन हर उन्नत तकनीक, शोध के क्षेत्र में उनसे उन्नीस नहीं है, बल्कि मैन्युफैक्चरिंग और सप्लाई चैन की अद्भुत श्रृंखला के माध्यम से आज वह दुनिया का बेताज बादशाह बन बैठा है। इतना ही नहीं, भविष्य के क्या मुसीबतें आ सकती हैं, इसे उसने दक्षिण कोरिया और जापान जैसों से सीखकर बेल्ट एंड रोड पहल के माध्यम से पूर्वी एशिया सहित दुनिया के सभी छोटे बड़े मुल्कों के साथ अपना व्यवहार बना लिया।

चीन के बढ़ते कदम भविष्य में और भी तेजी से छलांग लगा सकते हैं, जिसे अमेरिका साफ़-साफ़ देख पा रहा है, और साथ ही अपने ढहते साम्राज्य को भी। आज वह 700 से अधिक सैन्य ठिकानों और विश्व बैंक, यूएनओ जैसी संस्थाओं के बावजूद खुद को असहाय स्थिति में पा रहा है, इसलिए हर हाल में चीन को किनारे लगाने के लिए उसके मजबूत पायों को खिसकाना उसके लिए बेहद आवश्यक है। इसी कड़ी में ईरान एक महत्वपूर्ण पाया है।

ईरान एससीओ का ही नहीं हाल ही में ब्रिक्स का भी सदस्य देश बन चुका है। चीन, उत्तर कोरिया, रूस और ईरान एक मजबूत धुरी बनकर उभर रहे हैं, जिसके साथ सऊदी अरब के भी पाला बदल लेने की संभावना जब-तब उभरने लगती है। अमेरिका का लक्ष्य फिलहाल ईरान को चित्त कर अलग करना और पुतिन को लगातार अच्छा ट्रीटमेंट देकर न्यूट्रल स्थिति में लाना है। ट्रंप ने यूँ ही जी-7 की बैठक में नहीं कहा कि इसमें रूस को फिर से शामिल किया जाना चाहिए।

ट्रंप के झटकों से भारत खुद एससीओ और ब्रिक्स में कितना आगे चलता है, इसे देखना अभी शेष है। लेकिन यदि ईरान की अकड़ को खत्म कर दिया गया तो पश्चिम एशिया के खाड़ी के मुल्कों को धौंसपट्टी देने के लिए इजराइल काफी रहेगा। सऊदी भी औकात में रहेगा और वह चीन में सैकड़ों बिलियन डॉलर पेट्रोकेमिकल में निवेश के बारे में सोचने से पहले सौ बार विचार करेगा।

अगले चरण में रूस भी यदि काबू में आ गया, चाहे इसके लिए ट्रंप को व्लादिमीर पुतिन को अपने समतुल्य ही क्यों न बताना पड़े, वह ऐसा करने से नहीं चूकेगा. ट्रंप की अभी तक की लाइन भी यही बताती है। इसलिए यदि कोई ट्रंप की बेवकूफी भरी टिप्पणियों और ट्वीट को देख यह समझता है कि ये कहाँ से एक सनकी राष्ट्रपति आ गया है, तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल होगी।

सब कुछ उसी की इच्छा के तहत हो रहा है, बस पालतू कुत्ते को भौंकने और काटने की छूट है। ईरान के हमलों से नुकसान भी इजराइल और उसकी जनता को भुगतना पड़ रहा है। और यदि पुतिन को सम्मानित कर यूक्रेन में अच्छी डील देकर चीन से अलग करने सफलता मिल जाती है तो अमेरिका खुद अपने लाव-लश्कर के साथ ईरान के खिलाफ मैदान में कूद सकता है।

लाख टके का सवाल यह है कि क्या पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ पहली दफा एक गंभीर कोशिश के रूप में चीन के नेतृत्व में जो आर्थिक नाकेबंदी देखने को मिल रही है, क्या वह सिरे चढ़ पाएगी या नहीं। इसे सफल बनाने के लिए ईरान का विजेता बनकर उभरना ग्लोबल साउथ की किस्मत में बदलाव के लिए हर हाल में आवश्यक है। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)

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