भारत और अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता महज़ आर्थिक विषय नहीं है, बल्कि यह वैश्विक पूंजीवादी संरचना और उसके गहराते अंतर्विरोधों को समझने का अवसर भी है। जब कोई महाशक्ति अपने आंतरिक संकटों से जूझ रही होती है, तो वह अपनी समस्याओं का समाधान खोजने के बजाय, अन्य देशों पर दबाव बनाकर उन्हें अपने आर्थिक खेल में उलझाने का प्रयास करती है। अमेरिका, विशेष रूप से ट्रम्प प्रशासन, इसी रणनीति का पालन करता रहा है।
ट्रम्प की व्यापारिक नीतियां उनके आक्रामक सौदेबाजी के तरीके के लिए जानी जाती हैं। वे पहले अपने व्यापारिक साझेदारों पर आरोप लगाते हैं, फिर दबाव बनाने के लिए आर्थिक प्रतिबंध लगाते हैं और अंततः कुछ अस्थायी राहत देकर बड़े समझौते करवाने की कोशिश करते हैं।
यह रणनीति 2018 में दक्षिण कोरिया के साथ देखी गई, जब ट्रम्प ने दक्षिण कोरिया को अपने व्यापार समझौते को दोबारा खोलने के लिए मजबूर कर दिया और अंततः दक्षिण कोरिया को कई ऐसी रियायतें देनी पड़ीं, जो उसके दीर्घकालिक हितों के खिलाफ थीं।
भारत के मामले में भी ट्रम्प यही रणनीति अपनाने वाले हैं। जब 2018 में अमेरिका ने भारत के स्टील और एल्युमिनियम उत्पादों पर टैरिफ लगाया, तब भारत ने लगभग 15 महीने तक कोई जवाब नहीं दिया और फिर 29 अमेरिकी उत्पादों पर जवाबी टैरिफ लगाया। यह रणनीति भारत के लिए सही साबित हुई, क्योंकि इससे अमेरिका को यह संदेश गया कि भारत झुकने वाला नहीं है।
भारत के टैरिफ संरचना को लेकर अमेरिका अक्सर शिकायत करता है कि यह बहुत अधिक है। उदाहरण के लिए, भारत व्हिस्की पर 150% टैरिफ लगाता है, लेकिन अमेरिका यह नहीं बताता कि वह खुद तंबाकू उत्पादों पर 350% तक टैरिफ लगाता है। इसके अलावा, भारत ने हाल के वर्षों में कई महत्वपूर्ण अमेरिकी उत्पादों पर पहले ही अपने टैरिफ कम कर दिए हैं, जैसे ईथरनेट स्विच, मोटरसाइकिल, सैटेलाइट ग्राउंड इंस्टॉलेशन, सिंथेटिक फ्लेवरिंग एजेंट और कुछ अन्य स्क्रैप उत्पाद।
भारत को इस मुद्दे पर सतर्क रहने की जरूरत है। जब अमेरिका यह कहता है कि भारत को अपने टैरिफ कम करने चाहिए, तो वह यह नहीं बताता कि अमेरिका खुद कई भारतीय उत्पादों जैसे वस्त्र, चमड़े के सामान, और फार्मास्यूटिकल्स पर 15-35% तक टैरिफ लगाता है। भारत को इस मामले में जल्दबाजी में कोई भी व्यापारिक समझौता नहीं करना चाहिए।
अमेरिका का असली उद्देश्य सिर्फ पारंपरिक व्यापार तक सीमित नहीं है, बल्कि वह डिजिटल अर्थव्यवस्था में भी अपना प्रभुत्व बनाए रखना चाहता है। आज अमेरिका की सबसे बड़ी कंपनियां टेक सेक्टर में हैं-गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट, अमेज़न और ऐप्पल। ये कंपनियां भारतीय बाजार से अरबों डॉलर का लाभ कमा रही हैं। लेकिन जब भारत डेटा संप्रभुता की बात करता है या डिजिटल कर लगाना चाहता है, तो अमेरिका इसे अपने आर्थिक हितों के खिलाफ बताने लगता है।
भारत को इस क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी। अमेरिका चाहता है कि भारत उसके डिजिटल उत्पादों और सेवाओं को पूरी तरह से अपनाए, लेकिन भारत को अपने स्वयं के डिजिटल इकोसिस्टम को बढ़ावा देना चाहिए। इसके अलावा, अमेरिकी कंपनियां भारतीय डेटा का उपयोग करके अपने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मॉडल तैयार कर रही हैं, जिससे उनका वैश्विक प्रभुत्व और मजबूत हो रहा है। भारत को इस पर नियंत्रण स्थापित करना होगा।
ऊर्जा और रक्षा के क्षेत्र में भी अमेरिका भारत पर दबाव बना रहा है। अमेरिका भारत के लिए कच्चे तेल का बड़ा आपूर्तिकर्ता बन गया है, लेकिन भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह ऊर्जा खरीद केवल तभी करे जब कीमतें प्रतिस्पर्धी हों। इसी तरह, रक्षा क्षेत्र में भी भारत को अपनी आत्मनिर्भरता को प्राथमिकता देनी होगी। अमेरिका भारत को हथियार बेचता है, लेकिन वह कई बार इसे राजनीतिक शर्तों से जोड़ देता है।
भारत को अपनी रक्षा जरूरतों को अमेरिकी दबाव के बजाय अपनी दीर्घकालिक रणनीति के आधार पर तय करना चाहिए। अमेरिका का व्यापारिक मॉडल संरक्षणवाद और वैश्विक पूंजीवाद के बीच फंसा हुआ है। ट्रम्प प्रशासन ने संरक्षणवाद को बढ़ावा दिया, लेकिन इससे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को कोई स्थायी लाभ नहीं हुआ। 2018 में जब उन्होंने चीन पर टैरिफ लगाए, तो अमेरिका का घरेलू उत्पादन नहीं बढ़ा, बल्कि अमेरिकी कंपनियों ने अपने उत्पादन को अन्य सस्ते देशों में स्थानांतरित कर दिया।
अमेरिकी समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता के कारण ट्रम्प जैसे नेताओं को समर्थन मिलता है। अमेरिका में श्रमशील वर्ग का एक बड़ा हिस्सा वैश्वीकरण की वजह से खुद को हाशिए पर महसूस करता है। ट्रम्प की “अमेरिका फर्स्ट” नीति इसी असंतोष को भुनाने का औजार है। वे दावा करते हैं कि वे अमेरिकी उद्योगों और श्रमिकों की रक्षा कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में उनकी नीतियां अमेरिकी पूंजीपतियों के हितों की ही रक्षा करती हैं।
भारत-अमेरिका व्यापार संबंधों को केवल द्विपक्षीय व्यापार के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे वैश्विक शक्ति-संतुलन और पूंजीवादी संकट के व्यापक संदर्भ में समझना चाहिए। भारत को न तो जल्दबाजी में टैरिफ कम करने चाहिए और न ही छोटे व्यापारिक समझौतों में फंसना चाहिए।
बल्कि, उसे रणनीतिक क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने की दिशा में काम करना चाहिए, विशेष रूप से ऊर्जा, रक्षा और डिजिटल अर्थव्यवस्था में। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारत को अमेरिका की संरक्षणवादी नीतियों से प्रभावित हुए बिना अपने दीर्घकालिक आर्थिक हितों की रक्षा करनी होगी। अमेरिका के पूंजीवादी अंतर्विरोध अब खुलकर सामने आ चुके हैं, और भारत को इस स्थिति का विश्लेषण करते हुए अपनी रणनीति तय करनी होगी।
(मनोज अभिज्ञान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)