मोदी-शाह ब्रांड शासन शैली की विशेषता यह भी है कि इसमें सामंती-महाजनी पूंजीवादी शैली की अंतर्धारा बहती रहती है।दोनों नेता राजसत्ता को ‘वैयक्तिक जागीर’ के रूप में देखते आ रहे हैं। यह सिलसिला अहमदाबाद से चला आ रहा है। मोदी- शाह सत्ता सिंड्रोम को गहराई से समझने के लिए पत्रकार राना अयूब की ‘गुजरात फाइल्स’ पढ़ी जानी चाहिए। दोनों के व्यवहार से झलकता है कि राजसत्ता संविधानप्रदत न होकर, व्यक्तिगत कारगुज़ारियों व पराक्रमों का फल है।
इन कारगुज़ारियों में शामिल हैं प्रदेश सरकारों का उत्थान-पतन, निर्वाचित व्यक्तियों की ख़रीद-फ़रोख़्त, विरोधी दलों के भ्रष्ट नेताओं को भाजपा में शामिल कर उनका ‘हरिश्चन्द्रीकरण’ करना, सरकारी एजेंसियों का मनवांछित इस्तेमाल कर विपक्षी नेताओं को शरणागत करवाना, डबल इंजन की सरकार का नारा लगाना, ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज़ करना, राज तंत्र को निजी उद्यम के रूप में देखना, अतार्किक, मिथकीय, भावनात्मक व संवेदनशील मुद्दों को उछालना, हिन्दू धर्म संकट में है, अल्पसंख्यक भय का निर्माण (इस्लाम फोबिया), विपक्ष के सरकार विरोध को राष्ट्र द्रोह या गद्दार घोषित करना आदि।
प्रधानमंत्री मोदी की सरकारी योजनाओं को घोषित करने की शैली पर भी निजी अनुकम्पा का रोगन चढ़ा होता है। वे मंच से खैरात बांटने की तर्ज़ में योजनाओं की राशि की घोषणा करते आये हैं। चुनावी भाषणों में भाजपा के पक्ष में मतदान द्वारा ’नमक’ अदा करने की बात की जाती है। सरकार 81 करोड़ लोगों का भरण पोषण कर रही है। नमक अदायगी तो होगी ही।

मंचीय भाषणों द्वारा ’सरकार माई-बाप संस्कृति’ को फैलाया जाता है। यह भी महाजनी पूंजीवादी मानसिकता है। एक डच समाज शास्त्री यान ब्रेमेन ने गुजराती समाज का अच्छा अध्ययन किया है। उनकी पुस्तक है ’संरक्षण और शोषण (पेट्रोनेज एंड एक्सप्लोइटेशन)’।
सारांश में, आर्थिक व प्रौद्योगिकी दृष्टि से उन्नत बनना एक बात है, लेकिन सामाजिक, सांस्कृतिक और चिंतन के व्यवहार से विकसित व प्रगतिशील या आधुनिक बनना नितांत दूसरी बात है।
जब लोकतंत्र में निर्वाचित शासक जनता को नागरिक नहीं ’प्रजा’ समझने लगे, और मध्ययुगीन रूपकों, प्रतीकों, उपमाओं, आख्यानों आदि का प्रयोग करने लगता है तब लोकतंत्र व संविधान के साथ-साथ आधुनिक विवेक, तर्कशीलता, वैज्ञानिक दृष्टि, प्रगतिशील संवेदनशीलता भी मृत्योनमुखी होने लगते हैं। जब मोदी कहते हैं कि वे ’नॉन –बायोलॉजिकल’ हैं और ईश्वर के मिशन पर हैं, इस कथन से वे राष्ट्र को क्या संदेश देना चाहते हैं, कैसी संस्कृति विकसित करना चाहते हैं?

क्या ’अवतार आख्यान’ से लोकतंत्र, संविधान और आधुनिक नागरिकता मज़बूत होती है? हैरत तो यह है कि पिछले एक दशक में कतिपय भारतविद बुद्धिजीवियों ने मोदी जी को ‘अवतार’ ही घोषित कर दिया। प्रधानमंत्री स्वयं भी अवतार-व्याख्यान में विश्वास करने लगे और मिथकों -किवदंतियों को वैज्ञानिक सिद्ध करने लगे।
मिसाल के लिए, प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी हुआ करती थी। इस सन्दर्भ में उन्होंने शिव पुत्र गणेश पर गज का सूंढ़धारी सिर लगाने का उदाहरण दिया।
जनवरी मास में ही भाजपा के एक सांसद ने विश्वासपूर्वक कह डाला कि प्रधानमंत्री मोदी ने साधना में बैठकर ‘सूर्य देवता को शांत कर दिया है।’ ज़रा सोचें, इस सदी में ऐसे कथनों का आम जनों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, विद्यार्थी क्या सोचने लगेंगे? कक्षा में कुछ और पढ़ते हैं, लेकिन निर्वाचित जनप्रतिनिधि कुछ और बतलाते हैं। कैसे विरोधाभासों के वातावरण में हमारी वर्तमान पीढ़ी की मानसिक संरचना हो रही है!
2014 में मोदी जी पहली बार सामंती-महाजनी और अधकचरी पूंजीवादी मिश्रित मानसिकता से लैस हो कर प्रधानमंत्री बने थे। वे संघ के संस्कार और गुजरात हिंसा की विरासत से भी लदे हुए थे। वे भाजपा के 282 सांसदों के बहुमत की शक्ति से भी संपन्न थे।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था जब धुर दक्षिण पंथी भाजपा अपने ही बहुमत के आधार पर केंद्र में सत्तारूढ़ हुई थी; 1984 के चुनावों में भाजपा को सिर्फ 2 सीटें मिली थीं, और अब उसे 282। इसके बाद 2019 में 303 सीटें जीती थीं। इतनी सीटें अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज नेता भी नहीं दिला सके थे। परन्तु, गुजराती नेता व मुख्यमंत्री मोदी ने पूर्ण बहुमत की प्राप्ति का चमत्कार कर दिखाया था।

लेकिन, मोदी नेतृत्व का धूसरपन 2024 के चुनावों में ज़ाहिर भी हो गया, जब भाजपा के सांसदों के संख्या घट कर 240 पर आ गई। आज वह एनडीए गठबंधन के घटकों पर टिकी हुई है। एक प्रकार से मोदी-सरकार विकलांग बन गयी है। एक तथ्य को याद दिलाना समीचीन रहेगा।
2019 के चुनावों से पहले आम चर्चा थी कि भाजपा बमुश्किल 200 सौ पार कर सकेगी। लेकिन, फरवरी,’19 में पुलवामा विस्फोट हुआ और अर्द्ध सैन्य बल के 40 -50 जवान शहीद हो गए थे। देश में सहानुभूति व राष्ट्रवाद की लहर फ़ैल गई। सत्तारूढ़ दल ने भी इसे जमकर भुनाया। पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादी ठिकानों पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की। उसका ढिंढोरा पीटा गया।
हालांकि, इससे पहले कांग्रेस प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के शासन काल में भी 2008 में मुंबई में पाकी आतंकी हमलों के बाद सीमा पार तीन -चार सर्जिकल स्ट्राइक की गयी थीं। सिंह-सरकार ने उसका प्रचार नहीं किया था। दिवंगत सिंह खामोश रहे थे।लेकिन, मोदी जी पुलवामा-घटना को जम कर भुनाया था। निश्चित ही इससे हिंदुत्व भावना उफान पर रही और मोदी जी की झोली में 303 सीटें डाल दीं।
लेकिन, यह जानना दिलचस्प रहेगा कि ध्रुवीकरण व हिंदुत्व के शस्त्र चलाने के बावज़ूद मोदी-शाह ब्रांड भाजपा इंदिरा गांधी की विजय- रेखा से बहुत नीचे रही है। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1971 और 1980 के चुनावों में 350+ सीटें जीती थीं।उन्होंने धार्मिक नारों का सहारा नहीं लिया था। यह सही है कि 1984 में इंदिरा-हत्या के बाद राष्ट्र में राजीव गांधी व कांग्रेस के पक्ष में हमदर्दी की सुनामी में सबसे पुरानी पार्टी को करीब 420 सीटें मिली थीं।

मेरी नज़र में, ‘84 की जीत को सामान्य नहीं कहा जा सकता। यह जीत हमदर्दी पर सवार हो कर आई थी। और यही कसौटी 2019 के चुनावों में भाजपा की असाधारण विजय पर लागू होती है। यदि मोदी-शाह ब्रांड भाजपा पिछले चुनावों के समान लोकप्रिय रहती तो इस बार 63 सीटों का घाटा नहीं होना चाहिए था। अतः 2019 का जन-फैसला भी सहानुभूति के फैक्टर से प्रभावित रहा होगा।
इस पृष्ठभूमि में उत्तरी या केंद्रीय भारत के समान, विशेषतः उत्तरी भारत में, ’पहली बार’ का आख्यान या नैरेटिव को बाज़ार में जमकर चलाया गया। जनता में एक मनोरचना को गढ़ा गया कि 2014 में ही भारत आज़ाद हुआ है। उससे पहले देश को आधी-अधूरी आजादी मिली हुई थी। एक बड़बोली अभिनेत्री सांसद ने तो कह ही दिया था कि भारत की आजादी ’लीज’ पर दी गई थी। लेकिन, मोदी जी के नेतृत्व में वास्तविक आजादी मिली है।
पहली बार के आख्यान को लोकप्रिय बनाने के लिए मोदी राज ने योजना आयोग का नाम बदलकर ’नीति आयोग’ कर दिया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विरासत व स्मृतियों को मिटाने की दृष्टि से तीन मूर्ति स्थित नेहरू मेमोरियल को प्रधानमंत्री मेमोरियल में तब्दील कर दिया गया। इसके साथ ही नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी की समाधियों को हाशिए के हवाले कर दिया गया।
सड़कों के नाम बदले गए। शायद मोदी-शाह जोड़ी हीनता की ग्रंथि से ग्रस्त रहती रही है। यह जोड़ी राष्ट्र के स्मृति पटल से नेहरू व गांधी परिवार को विलुप्त करने के लिए कृतसंकल्प दिखाई देती है। इसीलिए राहुल गांधी की भी योजनाबद्ध ढंग से ‘पप्पू छवि’ का निर्माण किया गया। लेकिन, राहुल की ‘भारत जोड़ो व भारत न्याय यात्राओं’ से यह छवि स्वतः ही ध्वस्त हो गई।

अब राहुल की ‘शहज़ादा व राहुल बाबा’ की छवि – निर्माण की कोशिशें चल रही हैं। यह विलुप्तीकरण व छवि निर्माण प्रोजेक्ट तभी संभव हो सकता है जब स्वतंत्रता आंदोलन के उदार, मध्यम मार्गी और वामपंथी योद्धाओं के विरुद्ध संग्राम शुरू किया जाए। चूंकि, महात्मा गांधी भारत का पर्याय बन चुके हैं और उनका कर्म फलक विराट है, इसलिए जोड़ी उनके प्रति उदासीनता का भाव रखती है।
संघ और मोदी नेतृत्व की अपराध ग्रंथि यह भी है कि संघ परिवार ने आजादी की लड़ाई से दूरी बनाए रखी थी। कहीं भी सत्याग्रह में भाग नहीं लिया था। लाख प्रयासों के बावजूद सावरकर राष्ट्रीय नायकों में शामिल नहीं हो सके हैं। उन्हें भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक उल्लाह खां, बिस्मिल जैसे स्वतंत्रता सेनानियों से कमतर माना जाता है।
शायद इस अपराध या पाप बोध से उभरने के लिए ‘पहली बार-आख्यान’ के शस्त्र का प्रयोग किया जा रहा है; सड़कों व नगरों के नए नामकरण (इलाहाबाद, मुगलसराय, राजपथ, औरंगजेब रोड आदि) किये जा रहे हैं। लेकिन, क्या इससे इतिहास के तथ्यों की इति की जा सकती है?
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)
जारी…..
+ There are no comments
Add yours