अच्छी शिक्षा-सेहत, शांति-सद्भाव और सबकी समृद्धि से बनेगा भव्य भारत!
स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से इस मौके पर दिये अपने पहले के भाषणों के मुकाबले कुछ कम बोला। इस बार उनका भाषण तकरीबन 55 मिनट का था। नई बातें बहुत कम थीं। जो बातें वह पहले कई बार कह चुके हैं, उन्हें ही आज दुहराते नजर आये। भाजपा की भाषण-संस्कृति और आज के हिन्दी टीवी चैनलों के न्यूजरूम की भाषा के अनुकूल उन्होंने अनुप्रासों की खूब लड़ियां पिरोईं। मसलन, एक बार कहा कि पहले का नारा था-‘भारत छोड़ो’, आज का नारा है, ‘भारत जोड़ो!’ पता नहीं, भारत जोड़ने के उनके नारे में शब्दों के अलावा कोई भाव और विचार है या नहीं! सड़क चलते, ट्रेन में यात्रा करते, महिलाओं के साथ हो रही बदसलूकी पर सवाल उठाते या कानूनी तौर पर वैध भोज्य पदार्थ ले आते या ले जाते वक्त जिन लोगों को सिर्फ उनका मजहब देखकर मौत के घाट उतारा जा रहा है, उनका क्या अपराध है और उनकी क्या नागरिकता है, प्रधानमंत्री जी! ऐसी हिंसा और नफरत से भारत जुड़ रहा है या बिखर रहा है प्रधानमंत्री जी! अपने संबोधन में प्रधानमंत्री जी ने इस बारे में सिर्फ एक वाक्य कहा, ‘ आस्था के नाम पर हिंसा मंजूर नहीं!’ पर ऐसी हिंसा करने वाले तो प्रधानमंत्री जी की अपनी पार्टी और उनके वृहत्तर राजनीतिक-परिवार के ही लोग हैं! फिर सवाल तो बनता है कि आज के संबोधन के इस वाक्य में (भरमाने वाला) कितना जुमला था और कितना सच था!
फिर कश्मीर में गोलियां क्यों चल रही हैं प्रधानमंत्री जी?
प्रधानमंत्री ने दूसरी महत्वपूर्ण बात कही, ‘कश्मीर में समस्या न गाली सुलझेगी, न गोली से, वह गले लगाने से सुलझेगी!’ फिर बीते सवा-डेढ़ साल से घाटी में बेरोकटोक गोलियां क्यों चल रही हैं? इजरायल से आयातित पैलेट गन्स से कश्मीरी बच्चों की आंखें, छातियां और पेट क्यों छेदे जा रहे हैं? कानून व्यवस्था के काम से पुलिस को हटाकर सबकुछ सेना के हवाले क्यों कर दिया गया है? वाजपेयी सरकार और मनमोहन सरकार के कुछेक सकारात्मक कदमों से सन् 2012-2014 तक कश्मीर घाटी में हालात लगभग सामान्य हो चुके थे। आम लोग कहा करते थे कि कश्मीर फिर पटरी पर आ गया है। अब वक्त है कि इसके सियासी मसलों को जल्दी से जल्दी हल किया जाय। सन् 2014 में नई सरकार बनने के बाद संकेत दिया गया कि कश्मीर में हालात को और बेहतर करने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया जारी रखी जायेगी। लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में गठबंधन सरकार बनाने के कुछ समय बाद, खासतौर पर मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद केंद्र की नीति और नियति बदलती नजर आई। लोगों के पहले से लगे घावों पर मरहम लगाने की नीति छोड़कर पैलेट गनों से जहर छिड़का जाना शुरू हो गया। मुफ्ती के दौर में चले मशर्ऱत आलम की रिहाई-गिरफ्तारी के ड्रामे से ही संकेत मिलने लगे थे कि आने वाले दिन बहुत सहज नहीं होंगे। आफ्सपा को क्रमशः हटाने के वायदे से स्वयं मुफ्ती सरकार पीछे हटती नजर आई। राजनीतिक प्रक्रिया थम गई। उसी दरम्यान पाकिस्तान से तनाव का सिलसिला भी बढ़ गया। कभी हमारे सैनिक हताहत होते, कभी सीमा पार के। और घाटी में नौजवानों व सुरक्षा बलों के बीच झड़पें तेज होती रहीं। नतीजतन कश्मीर फिर हिंसा-प्रतिहिंसा, आतंक, अलगाव और उत्पीड़न के उसी काले-अंधेरे दौर में पहुंच गया, जहां से निकलकर आया था। प्रधानमंत्री जी ने आज कहा, ‘समस्या गले लगाने से सुलझेगी!’ सवाल उठता है, इस वाक्य के शब्द कितने प्रामाणिक हैं! पता नहीं, बाद में कोई पार्टी पदाधिकारी दलील दे कि वह तो एक जुमला था!
गोरखपुर की चीखें तो आपने सुनी होंगी!
गोरखपुर! प्रधानमंत्री जी बीते कुछ दिनों से रोज गोरखपुर को पढ़ रहे थे, देख रहे थे, सुन रहे थे। वहां से उठती आहें, चीखें और चीत्कारें पूरी दुनिया तक गूंज रही थीं। वे भारत की जनविरोधी स्वास्थ्य-नीति , बेहाल आबादी और शासक समूहों की आपराधिक जन-उपेक्षा का सच बयान कर रही थीं। पर प्रधानमंत्री शुक्रवार से अब तक खामोश थे, जबकि वह सोशल मीडिया, मन की बात (आकाशवाणी) और भजनमंडली बने तमाम चैनलों पर हमेशा छाय़े रहते हैं। लेकिन उन्होंने आज खामोशी तोड़ी। उन्होंने प्राकृतिक आपदा का जिक्र करने के क्रम में गोरखपुर की त्रासदी का हवाला दिया। गोरखपुर सहित पूर्वांचल के कई जिलों की माताओं की चीखें बस इतना ही द्रवित कर सकीं प्रधानमंत्री जी को! मैं तो सोच रहा था कि वह अपनी स्वास्थ्य-नीति में बड़े बदलाव का ऐलान करेंगे। देश को बतायेंगे कि वह जन-स्वास्थ्य क्षेत्र में एक ‘बड़े प्रकल्प’ की तैयारी कर रहे थे, इसलिये अब तक इस मामले में खामोश थे! लेकिन मैं क्या, पूरा पूर्वांचल या आम समाज आज निराश हुआ होगा! ‘सुपरपावर’ और ‘विश्वगुरू’ बनने की कदमताल करता हमारा देश अपने लोगों की सेहत पर जीडीपी का महज एक-डेढ़ फीसदी खर्च करता है। दुनिया के तमाम विकासशील और विकसित देशों की सरकारें अपनी जनता की सेहत पर 4 फीसदी से लेकर 11 फीसदी तक खर्च करती हैं। हमारी सरकार ने वायदा किया है कि वह आगे से 2.5 फीसदी खर्च करेगी। क्या इतनी कम राशि से आप बाबा राघव दास मेडिकल कालेज अस्पताल या रेफरल अस्पतालों या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की दशा सुधार पायेंगे? क्या स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकारी खर्च के बगैर निजी क्षेत्र के सहारे आप गरीबों के बच्चों की जिंदगी बचा पायेंगे? निजी अस्पताल और पंचसितारा नर्सिंग होम्स किसी कालाजार, सेफलाइटिस, मलेरिया या फाइलेरिया के फैलाव के जिम्मेदार कारकों का निराकरण क्यों करना चाहेंगे? प्रधानमंत्री जी, मैं चाहता हूं, आप हिन्दी के यशस्वी कथा-शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला आंचल’ को जरूर पढ़ें। उसमें लोगों की बीमारियों से जूझते उस युवा डाक्टर प्रशांत के अनुभवों और निष्कर्षों पर जरूर गौर करें, जो ‘आंसुओं भींगी जमीन पर खुशियों के पौधे लहलहाने’ का सपना लेकर –पूर्णिया-फारबिसगंज के इलाके में गया था। प्रधानमंत्री जी, आप भारत को यूरोप की तरह स्वच्छ और समृद्ध बनाना चाहते हैं। पर गरीबी, बेहाली, उत्पीड़न और गैर-बराबरी से लड़े बगैर यह कैसे होगा? आप तो दुनिया भर घूमते रहते हैं और जानते ही होंगे कि यूरोप में उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध से लेकर बीसवीं के पूर्वार्ध के बीच वहां के शासक समूहों ने अपने समाज की सेहत, शिक्षा और रोजगार पर खूब काम किया। राज्य की तरफ से भारी निवेश और अथक प्रयास हुए। तब जाकर यूरोप के देशों में चमक और भव्यता आई। और हम हैं कि यह सारा कुछ कारपोरेट हाथों में सौंपकर करा लेना चाहते हैं!
हम किसे धोखा दे रहे हैं!
आखिर हम किसे धोखा दे रहे हैं! हम कुछ समय तक जनता की आंख में धूल झोंक सकते हैं पर इतिहास की आंखों में नहीं! इतिहास गवाह बनेगा कि हमने मौका पाने के बावजूद आजादी के सात दशकों में भी अपने समाज की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर वैसा जोर नहीं दिया, जैसा जरूरी था। हम शब्दों से खेलते रहे, भाषणों से काम चलाते रहे, लोगो को जातियों-संप्रदायों में बंटते देखते रहे, उसी की इंजीनियरिंग कर वोट बटोरते रहे और विकास के नाम पर कॉरपोरेट विस्तार का दायरा बढ़ाते रहे!
प्रधानमंत्री जी, आपने 2022 तक ‘दिव्य और भव्य भारत’ बनाने का आह्वान किया है। लेकिन मुल्क कोई इमारत नहीं है प्रधानमंत्री जी! उसमें लोग रहते हैं। वह ईंट-गारे से नहीं बनता, वह लोगों की खुशहाली से चमकता है! सेहत, समृद्धि और शिक्षा से उसमें भव्यता आती है! विश्व स्तरीय विश्वविद्यालय खुलवाने का संकल्प किया है। फिलहाल, सरकारी सूची में जो देश का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय है, उस जेएनयू में आपकी सरकार के लोग और विश्वविद्यालय के अति-राष्ट्रवादी प्रशासक फिलहाल एक बड़ा सा टैंक रखने का प्रबंध कर रहे हैं ताकि वहां के छात्र ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रवादी बन सकें! आज बस इतना ही! जय हिंद!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्यसभा चैनल के कार्यकारी प्रमुख रहे हैं। आजकल दिल्ली में रहते हैं।)
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