दलित वर्ग सामाजिक व्यवस्था में सम्मान पाने के लिए लंबे समय से संघर्षरत है। दलितों को सामाजिक बहिष्कार, शोषण और हिंसा से गुजरना पड़ा है। उन्हें जीवन की मूल आवश्यकताओं जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य, यात्रा के अधिकार व सामान्य संसाधनों से वंचित रहना पड़ा। सामाजिक संरचना में, शक्ति और स्थिति के संदर्भ में दलित वर्ग सबसे निचले स्तर पर रहा है।
पश्चिमी भारत में ज्योति राव फूले के समाज सुधार के प्रयत्नों के कारण छुआछूत व अन्य सामाजिक कुरीतियों के अंत की शुरुआत हुयी। जिसके परिणमस्वरूप समाज के वंचित वर्गों के उत्थान के लिए स्वतंत्र भारत में संविधान द्वारा इनके हितों को सुरक्षित किये जाने को बल मिला। विभिन्न समाजिक मानदंडों और जटिलताओं से मुक्त करने के उद्देश्य से इन वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।
राजनीतिक दलों ने इन वर्गों के प्रतिनिधित्व को स्वीकार किया। एक बड़ी आबादी के कारण मतदाता के तौर पर यह वर्ग राजनीतिक दलों के लिए महत्वपूर्ण बन गया। दलितों में महादलित के एक नये वर्ग को भी राजनीतिक वर्गीकरण में चिन्हित किया जाने लगा। देश के आज़ाद होने के बाद से दलित वर्ग कांग्रेस के परम्परागत वोटर ही रहे।
भारतीय जनता पार्टी ने भी समयानुसार इन वर्गों को अपने पक्ष में लाने के लिए अपनी राजनीति को साधना शुरू किया और 2014 के बाद खास तौर पर इस बड़े मतदाता वर्ग को देखते हुए सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों इस वर्ग के हितों को ध्यान में रखा। जिसका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिला।
1 अगस्त 2024 को सर्वोच्च न्यायालय का पंजाब बनाम देवेंद्र सिंह मामले में फैसला आया कि अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) का उप-वर्गीकरण संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है ने राज्य सरकारों के लिए एक नया रास्ता खोल दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि उप-वर्गीकरण “औपचारिक समानता” के बजाय “मौलिक समानता” हासिल करने का एक तरीका है। अदालत ने फैसला सुनाया कि ऐतिहासिक साक्ष्य और सामाजिक मानदंड दर्शाते हैं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति एक समरूप वर्ग नहीं हैं। अदालत ने फैसला दिया कि राज्य कुछ वर्गों के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के आधार पर उप-वर्गीकरण कर सकता है।
अदालत ने फैसला सुनाया कि राज्य को प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता पर डेटा एकत्र करना होगा। अदालत ने फैसला सुनाया कि राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के बीच “क्रीमी लेयर” की पहचान करने और उन्हें सकारात्मक कार्रवाई से बाहर रखने के लिए एक नीति विकसित करनी चाहिए।
न्यायालय के इस निर्णय से ई.वी. चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में 2004 में दिए गए उसके फैसले को खारिज कर दिया गया, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति एक समरूप वर्ग हैं और उन्हें उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
इस फैसले को आधार बना कर हरियाणा में भाजपा की तीसरी बार बनी सरकार ने मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की अनुशंसा पर एक आदेश जारी करके हरियाणा में अनुसूचित जातियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व लाभ सुरक्षित करने के लिए वर्गीकरण को लागू कर दिया है। वर्तमान में हरियाणा में अनुसूचित जाति के लिए 15 % और अनुसुचित जनजाति के लिए 7. 5 % आरक्षण निश्चित है। हरियाणा में अनुसूचित जनजाति की कोई संख्या है नहीं।
सरकार का कहना है कि अब आरक्षण का उचित लाभ वंचितों के उन वर्गों को भी निष्पक्षता से मिल सकेगा जिनका अभी प्रतिनिधित्व कम है। वंचित अनुसूचित जातियों में वर्गीकरण करने को सरकार ने मंजूरी दे दी है। गृह मंत्रालय के 1975 के आदेश के अनुसार हरियाणा में लगभग यही अनुसूचित जातियां दर्ज की गई थी। आने वाले समय में देखना होगा कि किस प्रकार से लाभ इन वंचित वर्गीकृत जातियों को प्राप्त होते हैं।
(जगदीप सिंह सिंधु वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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