तुर्की की जनता क्या बदलाव के लिए निर्णायक मताधिकार का उपयोग करने जा रही है?

Estimated read time 1 min read

रविवार 14 मई को तुर्की में होने वाले आम चुनावों पर दुनिया की निगाह टिकी हुई है। एक देश जिसकी विशिष्ट भौगौलिक परिस्थिति उसे बेहद ख़ास बना देती है। तुर्की यूरोप, अफ्रीका और एशिया के लिए एक गेटवे के रूप में नजर आता है। यूरोपीय संघ के ग्रीस और एशिया में ईरान, सीरिया, रूस और यूक्रेन के साथ सीमा साझा करने वाला तुर्की अपनी इस विशिष्टता के लिए भू-राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

राष्ट्रपति ऐर्दोगन के लिए यह चुनाव अब तक का सबसे चुनौतीपूर्ण संघर्ष है। 2002 में पहली बार देश की सत्ता पर काबिज हुए एर्दोगन ने कैसे धीरे-धीरे एक आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाले राष्ट्र की अधिकाधिक शक्तियों को एक व्यक्ति के हाथ में संकेंद्रित करने और विरोध की हर आवाज को बेरहमी से कुचलने का काम किया, यह आज दुनियाभर के नवउदारवादी मॉडल को अपनाने वाले लोक-लुभावनवादी निरंकुश तानाशाहों के लिए आवश्यक पाठ बन गया है।

2019 में तुर्की की युवा लेखिका एस तेमेलकुरन की एक बेहद लोकप्रिय किताब आई, ‘How to lose a country: The seven steps from democracy to dictatorship।’ पूरी दुनिया में इस किताब को हाथों-हाथ लिया गया, जिसमें सिलसिलेवार बताया गया है कि कैसे तुर्की में रेसेप तैयब एर्दोगन के शासनकाल के दौरान एक लोकतांत्रिक और उदारवादी देश को एक लोकतांत्रिक तानाशाही में तब्दील कर दिया गया। इतने सटीक और सरल तरीके से सारा ब्यौरा दिया गया है, कि किसी भी देश का आम पाठक भी तुर्की में हो रहे बदलावों, व्यक्ति और संस्थाओं के दफन होने को महसूस कर सकता है, और साथ ही अपने देश में भी ऐसा कुछ हो रहा है, से तुलना कर सकता है।

कैसे एक रुढ़िवादी लेकिन लोकप्रिय नेता ने देश में मौजूद उदारवादी धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में आस्था रखने वाले मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के हिस्से को व्यापक जन-समुदाय के निशाने पर खड़ा कर दिया, इसका अहसास देश के बड़े हिस्से को शुरू-शुरू में महसूस ही नहीं हुआ। अर्धसत्य और ‘हम’ और ‘वे लोग’ की एक दीवार देश के भीतर खींच दी गई और एक लोकप्रिय तानाशाह के रूप में एर्दोगन ने सभी लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक संस्थाओं को बौना बनाते हुए राष्ट्रपति के रूप में सारे अधिकार अपने तक सीमित कर दिए। बाद के दौर में ये उदाहरण दुनिया के विभिन्न देशों में चुनावी लोकतंत्र से चुनी जाने वाले लोकप्रिय नेताओं में देखने को मिली। ब्राजील, अमेरिका, फिलीपींस, भारत सहित यूरोप के देशों में भी इसकी बानगी देखी जा सकती है।

2002 में एकेपी के नेतृत्व में एर्दोगन ने सत्ता संभालने के बाद देश के अभिजात्य वर्ग के हाथ से शक्तियों को आम लोगों के हाथों में सौंपने और गैर-बराबरी को खत्म करने का नारा दिया। आने वाले हर चुनावों में वो चाहे स्थानीय निकाय के हों या राष्ट्रीय चुनाव, पार्टी द्वारा ‘हम’ बनाम ‘वे’ की लोक-लुभावनवादी बहस को खड़ा किया गया। दक्षिणपंथी सोच के साथ एर्दोगन ने सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी बहुसंख्यक आबादी और धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था एवं सेना के बीच की दरारों को चौड़ा करना शुरू किया।

2013 के बाद के काल में एकेपी की कथित राष्ट्रवादी विचारधारा और भी खुलकर सामने आने लगी। जैसे जर्मनी में हिटलर के लिए फासीवाद की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए यहूदी एक चारे के रूप में इस्तेमाल किये गये, कुछ उसी प्रकार तुर्की में अल्पसंख्यक कुर्द इस्तेमाल किये जाने लगे।

हालांकि गेज़ी विरोध प्रदर्शन और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी एर्दोगन सरकार के लिए इस बीच संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। 2015 चुनावों में कुर्दिश पार्टी के उभार और उसके कई उम्मीदवारों की जीत सहित विदेश नीति में विफलता एक बड़ी मुसीबत बनती जा रही थी। इसी बीच 2016 में हुए सैन्य तख्तापलट के प्रयास, जो अंततः विफल साबित हुई, ने एक बार फिर से एर्दोगन के लिए संजीवनी का काम किया।

तुर्की और देश की जनता के एकमात्र संरक्षक के बतौर एर्दोगन की पार्टी ने मीडिया और ऑनलाइन संचार पर प्रतिबंधों की झड़ी लगा दी। इसे वैध ठहराने के लिए एर्दोगन ने राष्ट्रवादी लोकप्रिय नारे दिए, जिसमें नागरिक और राष्ट्र की श्रेणी में अच्छे, जिम्मेदार और देशभक्त नागरिकों को वर्गीकृत करने और सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों को राष्ट्र के लिए एक खतरे के स्रोत के बतौर चिन्हित करना शुरू कर दिया गया।

इस तथ्य के बावजूद कि आतंकी गतिविधियों में कुछ ग्रुपों का हाथ है, एर्दोगन और उनकी पार्टी ने आतंकवादी और आतंकवाद की परिभाषा को विस्तारित कर सोशल मीडिया पर सरकार की नीतियों की आलोचना करने का साहस दिखाने वाले विपक्षी राजनीतिज्ञों, मीडियाकर्मियों, एनजीओ, शिक्षाविदों, और यहां तक कि साधारण नागरिकों को इसके दायरे में लेना शुरू कर दिया। उनके खिलाफ या तो झूठे मुकदमे दायर किये जाने लगे, या उन्हें जेल की सजा अथवा हमेशा के लिए चुप्पी साध लेने के लिए मजबूर कर दिया गया।

कुर्द समर्थक मीडिया संस्थानों के लिए काम करने वाले पत्रकारों द्वारा सरकारी भ्रष्टाचार या विदेश नीति की विफलता पर लिखने पर उनके खिलाफ आपराधिक जांच बिठाई जाने लगी। यहां तक कि आम नागरिकों की ओर से भी यदि सोशल मीडिया पर कोई आलोचना की गई तो इसे आतंकी प्रचार को हवा देने के कृत्य के रूप में गिना जाने लगा।

मुद्रा स्फीति की मार पिछले कई सालों से तुर्की झेल रहा है। लेकिन पिछले दो वर्षों से यह अपने चरम पर है। पहले प्रधानमंत्री और बाद में राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार की शुरुआत करने वाले रेसेप तय्यप एर्दोगन का दो दशक से सता में रहना तुर्की की राजनीति और वैश्विक राजनीति में इसकी भूमिका को निर्धारित किया है। समय के साथ एर्दोगन ने विधायी शक्तियों को खुद में समाहित कर लिया। अपना सबसे कठिन चुनाव लड़ते हुए भी एर्दोगन आज भी बड़ी संख्या में वंचित तबकों में अच्छी खासी पैठ रखते हैं।

1994 में एर्दोगन का राजनीतिक सफर तब शुरू हुआ जब वेलफेयर पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर उन्होंने इस्तांबुल के मेयर का पद जीता। मेयर के तौर पर एर्दोगन ने अपना फोकस निजीकरण के जरिये लोक निर्माण एवं सेवा क्षेत्र पर रखा। उनके समर्थकों में ग्रामीण परिवेश से शहरों में कामकाज के लिए आने वाले लोग थे जो धर्मनिरपेक्ष सत्ता प्रतिष्ठान से गहरे स्तर पर विक्षुब्ध थे। 1997 में एर्दोगन पर धार्मिक घृणा फैलाने का आरोप लगा और चार महीने की सजा भी हुई। इससे एर्दोगन को धार्मिक मुसलमानों के बीच में पहले से अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला और राजनीतिक कद बढ़ता चला गया।

2001 में एर्दोगन ने जस्टिस एंड डेवेलपमेंट पार्टी या एकेपी की स्थापना की। उन्होंने अंदाजा लगाया कि फिलहाल इस दौर में यदि सीधे मुस्लिम धार्मिक पार्टी बनाकर चुनाव लड़ते हैं तो सफलता हाथ नहीं लगेगी। इसलिए एर्दोगन ने तब टाइम मैगज़ीन से अपनी बातचीत में कहा था, “मैं एक मुसलमान हूं, लेकिन मैं एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में विश्वास करता हूं।”

2003 में एर्गोदन प्रधानमंत्री बनते हैं और कैद में रहने के बावजूद पीएम के तौर पर काम करने के लिए कुछ कानून में बदलाव करते हैं। पहले कार्यकाल के दौरान एर्दोगन सरकार ने कई सुधार किये, जिसमें दंड संहिता में व्यापक सुधार, शिक्षा के मद में अधिक वित्तीय आवंटन, अभिव्यक्ति एवं धार्मिक आजादी की स्वतंत्रता जैसे कानून बनाये। इसके पीछे खुद को स्वीकार्य बनाने के साथ-साथ यूरोपीय संघ की सदस्यता हासिल करना भी अहम उद्येश्य था। लेकिन इसके साथ-साथ शराब की बिक्री पर लगाम लगाने की भी कोशिशों के जरिये अपने एक खास धार्मिक एजेंडे को भी जारी रखा।

2009 में बराक ओबामा द्वारा तुर्की को अपनी पहली विदेश यात्रा के रूप में चुना जाना भी एर्दोगन की घरेलू छवि को मजबूत करने वाला साबित हुआ। 2010 के दशक में भी जब अरब देशों में अरब स्प्रिंग आंदोलन फ़ैल रहा था, तुर्की के नेतृत्व को प्रशंसा की नजर से देखा जा रहा था, और अनुकरणीय माना गया। इसी दौरान एर्दोगन और उनकी पार्टी एकेपी ने संवैधानिक जनमत संग्रह के जरिये सेना की ताकत में कटौती करने में सफलता हासिल की और राष्ट्रपति चुनाव में बदलाव कराये।

हालांकि 2013 में एर्दोगन समर्थित इस्तांबुल के गेज़ी पार्क में एक प्रोजेक्ट पर बड़ी संख्या में सरकार विरोध प्रदर्शनों ने एर्दोगन के राजनीतिक कैरियर में एक नया मोड़ पैदा कर दिया था। प्रदर्शनकारियों के धरने पर पुलिस की जवाबी कार्रवाई का जवाब और बड़े व्यापक आंदोलन को जन्म देता और यह और ज्यादा जुल्म को दावत देता। इसी वर्ष सत्तारूढ़ दल के कई महत्वपूर्ण सदस्यों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले उछले, जिसमें मनी लांड्रिंग और धोखाधड़ी के चलते एर्दोगन के मंत्रिमंडल के कई सदस्यों को इस्तीफा तक देना पड़ा।

यहां तक कि एर्दोगन और उनके बेटे के बीच घूस की लेनदेन को लेकर हुई कथित बातचीत का टेप भी सोशल मीडिया पर लीक हो गया था। एर्दोगन ने इसे अंतर्राष्ट्रीय साजिश बताकर उन्हें सता से बाहर करने की साजिश करार दिया। 2014 में तुर्की में पहली बार राष्ट्रपति चुनाव हुए। 2016 में शरणार्थी संकट के दौरान यूरोपीय संघ के साथ एर्दोगन की डील सुर्ख़ियों में रही। बड़ी संख्या में ये शरणार्थी तुर्की में बेहद अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर हुए।

2016 में सैनिक तख्तापलट की कोशिश नाकाम तो हो गई, लेकिन देश कुछ समय के लिए हिंसा और अराजकता में घिर गया था। एर्दोगन ने इसका फायदा उठाया और सत्ता को अपने हाथों में संकेद्रित किया। स्वतंत्र और आलोचना करने वाली मीडिया पर सख्त कदम उठाये, हजारों की संख्या में राजनीति, शैक्षणिक जगत से जुड़े लोगों, न्यायपालिका और सेना से ऐसे लोगों को बेदखल किया। और हां, विदेशी एनजीओ को भी देश से बाहर खदेड़ दिया गया।

2017 में एर्दोगन की ओर से संवैधानिक सुधार के लिए मतदान कराया गया, जिसने तुर्की में सरकार के स्वरूप को ही बदल डाला। एर्दोगन एक बार फिर से राष्ट्रपति निर्वाचित हुए, लेकिन इस बार उनके पास 2014 की तुलना में असीमित शक्तियां निहित थीं। सोशल मीडिया प्लेटफार्म ट्विटर, यूट्यूब, विकिपीडिया जैसे प्लेटफार्म पर प्रतिबंध और साथ ही बड़े पैमाने पर स्वतंत्र मीडिया के संचालन पर अंकुश और गिरफ्तारियों के साथ-साथ सरकार समर्थक मीडिया आउटलेट को बढ़ावा देना शुरू किया जा चुका था।

लेकिन 2019 में पहली बार एकेपी को झटका तब लगा जब पार्टी की स्थापना के बाद से पहली बार इस्तांबुल के मेयर चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। पहली बार देश में एक चुनाव को सिर्फ इसलिए रद्द कर दिया गया, क्योंकि एर्दोगन के पार्टी उम्मीदवार को हार का मुंह देखना पड़ा था। इसके बावजूद दोबारा मतदान में रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी के एक्रेम एममोग्लू को इसमें जीत हासिल हुई, और जिनके लोकप्रिय राष्ट्रपति उम्मीदवार की संभावना थी।

लेकिन आज उन्हें सार्वजनिक हस्तियों की बेईज्जती करने के आरोप में जेल के सीखचों के पीछे डाल दिया गया है। पश्चिमी मीडिया को आशा नहीं है कि इस बार तुर्की में निष्पक्ष चुनाव होंगे। वैसे आज भी एर्दोगन के पक्ष में एक अच्छा खासा वर्ग है, और उनकी लोकप्रियता में भले ही बड़ा झटका लगा है, लेकिन अभी भी उनकी रैलियों में बड़ी तादाद में भीड़ देखी जा सकती है, जो उनके नाम को नारों की शक्ल में दुहराते हैं।

इसी वर्ष अक्टूबर में तुर्की ने उत्तरी सीरिया में मौजूद कुर्दी सशस्त्र बलों के खिलाफ मोर्चा खोलकर नाटो शक्तियों के बीच में एक नई खींचतान को जन्म दे दिया। यूक्रेन-रूस संघर्ष में दोनों देशों का एक मजबूत पड़ोसी होने का फायदा उठाते हुए एर्दोगन ने अपनी अन्तराष्ट्रीय हैसियत को बढ़ाने और नाटो में स्वीडन और नार्वे को शामिल किये जाने पर अडंगा डालकर अपनी धूमिल होती छवि को देश के भीतर बनाये रखने की भरपूर कोशिश की है। पिछले वर्ष ब्लैक सी से यूक्रेन के गेहूं की शेष दुनिया को अबाध आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए तुर्की और संयुक्तराष्ट्र की कोशिशों का ही नतीजा था जो रूस और यूक्रेन इसके लिए सहमत हुए थे।

राष्ट्रपति चुनाव में पहली बार में ही चुनाव जीतने के लिए कुल मतदान में से 50% या अधिक वोट हासिल करना आवश्यक है। यदि किसी एक उम्मीदवार को यह वोट नहीं हासिल होता है तो शीर्ष के दो उम्मीदवारों के बीच 28 मई को दोबारा मुकाबला होगा। राष्ट्रपति चुनाव के साथ ही 600 संसद सदस्यों के लिए चुनाव होंगे जो आनुपातिक आधार पर तय होंगे। इसके लिए कम से कम 7% वोट हासिल करने की न्यूनतम अहर्ता है।

पिछले दो दशक में यह पहली बार है कि एर्दोगन को संयुक्त विपक्ष के रूप में कड़ी टक्कर मिलने जा रही है। लोकतंत्र और उदारवादी मूल्यों का स्वाद चखी हुई जनता उनके सख्त खिलाफ है, लेकिन धार्मिक, रुढ़िवादी समाज के अलावा संभवतः वंचित आबादी के बीच में आज भी इस अधिनायकवादी लोकप्रिय नेता की छवि अपने हमदर्द के तौर पर धुंधली तो हुई है, लेकिन कोई नया विकल्प उन्हें नहीं मिला है। कुल 6.4 करोड़ मतदाताओं में से 60 लाख युवा पहली बार मताधिकार का प्रयोग करेंगे। 2018 में कुल मतदाताओं में से 87% लोगों ने मताधिकार का प्रयोग किया था।

2018 के चुनावों में पहले राउंड में ही एर्दोगन ने कुल मतदान में से 52.4% वोट हासिलकर चुनाव जीत लिया था। एर्दोगन के बरक्श 6 दलों के संयुक्त गठबंधन ने इस बार केमाल किलिक्डारोग्लू को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। आधुनिक तुर्की के निर्माता मुस्तफा कमाल अतातुर्क द्वारा स्थापित दल रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) के वे अध्यक्ष हैं। जनमत सर्वेक्षण में उनके पक्ष में 50% समर्थन दिख रहा है, जबकि एर्दोगन के पक्ष में 44% समर्थन इस चुनाव को बेहद रोमांचक बना दे रहा है। अन्य उम्मीदवारों में सिनान ऑगन प्रमुख हैं, जो एर्दोगन की पार्टी की पूर्व सहयोगी नेशनलिस्ट मूवमेंट पार्टी (एमएचपी) की ओर से कानून मंत्री रह चुके हैं। लेकिन सर्वेक्षण में वे इन दोनों उम्मीदवारों के बरक्श काफी पीछे चल रहे हैं।

( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author