Thursday, March 28, 2024

नई शिक्षा नीति, सुल्ताना डाकू और प्रेमचंद में आखिर क्या हो सकता है रिश्ता?

140 वर्ष पूर्व पैदा हुए प्रेमचंद के लेखन और अब घोषित शिक्षा नीति में क्या संगत सम्बन्ध हो सकता है? गांधी के दांडी मार्च (12 मार्च-6 अप्रैल), सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समानांतर प्रेमचंद ने ‘हंस’ के अप्रैल 1930 अंक में लिखे ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ में कहा- “बालक को प्रधानतः ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके।”

34 वर्ष बाद नए सिरे से घोषित देश की शिक्षा नीति भी मोदी सरकार के जुमलों का ही एक और पुलिंदा सिद्ध नहीं होगी, नहीं कहा जा सकता। हालांकि, नीति को अंतिम रूप देने वाली विशेषज्ञ समिति के प्रमुख, इसरो के पूर्व चेयरमैन कस्तूरीरंगन ने दावा किया कि इसमें स्कूल की आरंभिक कक्षाओं से ही व्यावसायिक शिक्षा और कौशल विकास पर जोर दिया गया है। कक्षा छह से ही छात्रों को रोजगार परक शिक्षा उपलब्ध कराने की कोशिश की गयी है।

इस सन्दर्भ में 90 वर्ष पूर्व के उपरोक्त लेख में प्रेमचंद को देखिये, “बच्चों में स्वाधीनता के भाव पैदा करने के लिए यह आवश्यक है कि जितनी जल्दी हो सके, उन्हें कुछ काम करने का अवसर दिया जाये।” आज के नियामकों ने अगर प्रेमचंद को पढ़ा होता तो वे जानते कि प्रेमचंद ने बच्चों को आत्म-संयम और विवेक के औजारों से मजबूत बनाने पर जोर दिया, न कि, जैसा कस्तूरीरंगन ने बताया, शिक्षा का अंतिम उद्देश्य आखिर रोजगार हासिल करना होता है।

1907 में देश प्रेम की जोशीली-अपरिपक्व कहानियों के नवाब राय के नाम से प्रकाशित संग्रह ‘सोज़े वतन’ की सरकारी जब्ती के धक्के से उबरने के बाद गूढ़ प्रेमचंद ने विचक्षणता (subtility) को अपनी शैली में शामिल कर लिया। उपरोक्त लेख का शीर्षक और रवानगी बेशक बच्चों को घरों में स्वाधीन वातावरण में विकसित होने और बड़ों की आज्ञाओं के लादने से बचाने पर केन्द्रित है पर इसमें अनुगूंज है गांधी के नागरिक अवज्ञा आन्दोलन की ही। लेख से ये उद्धरण देखिये-

“बालक के जीवन का उद्देश्य कार्य-क्षेत्र में आना है, केवल आज्ञा मानना नहीं है।”

“आज किसी बाहरी सत्ता की आज्ञाओं को मानने की शिक्षा देना बालकों की अनेक बड़ी जरूरत की तरफ से आँख बंद कर लेना है।”

“आज जो परिस्थिति है उसमें अदब और नम्रता का इतना महत्व नहीं जितना… स्वाधीनता का है।”

“सम्पन्न घरों… विलास में पले हुए युवक हैं जो स्वार्थ के लिए भाइयों का अहित करते हैं, सरकार की बेजा खुशामद करते हैं।”

विदित है कि खांटी गांधी प्रशंसक बनने से बहुत पहले, लेखन के शुरुआती दिनों में, प्रेमचंद (तब धनपत राय) ने नर्म गोखले की तुलना में उग्र तिलक को सही ठहराते बचकानी शैली में निबंध लिखा था। ‘स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है’ का नारा देने वाले और मांडले जेल में कठोर कारावास भुगतने वाले तिलक जैसे नायक के प्रति एक किशोर युवा का यह स्वाभाविक आकर्षण रहा होगा। बनारस छात्र जीवन में पान-तम्बाकू की दुकान पर पढ़ी जॉर्ज रेनाल्ड की ‘मिस्ट्रीज ऑफ़ द कोर्ट ऑफ़ लंदन’ का रोमांच भी शामिल रहा होगा।

लेकिन 46 वर्ष की उम्र में मंजे कहानीकार प्रेमचंद ने ‘कजाकी’ शीर्षक कहानी (माधुरी, मई 1926) में सुल्ताना डाकू तक को आलोकित कर दिया। आज भी लोक कथाओं में गरीबों के मसीहा के रूप में जीवित, घूमंतू समुदाय (जो स्वयं को राणा प्रताप से जोड़ते हैं) के सुल्ताना को 1924 में हल्द्वानी जेल में फांसी दी गयी। एक रात पहले उसने खुद को पकड़ने वाले कर्नल सैमुअल पीयर्स को अपनी जीवन कथा सुनायी थी। सुल्ताना की तरह उम्र के बीसे में चल रहा और उसी की कद-काठी और शक्ल-सूरत वाला डाकिया कजाकी छह वर्ष के बालक को कंधे पर बिठाकर जो कहानियां सुनाता है, उनमें उसे उन डकैतों की कहानियाँ अच्छी लगती हैं जो रईसों की लूट को गरीबों में बाँट देते हैं।

‘प्रेमचंद से दोस्ती’ की जन-मुहिम (2000-10) के दौरान बच्चों के लिए प्रेमचंद की कहानियों का संग्रह ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ के नाम से संपादित किया था। इसमें ‘कजाकी’ को शामिल करने के पीछे एक व्यक्तिगत आकर्षण भी रहा। मेरे बचपन में अभी पिनकोड का चलन नहीं था और हमारे गाँव जोकहरा का पता होता था: पोस्ट ऑफिस- जीयनपुर, तहसील- सगड़ी, जिला- आजमगढ़। कजाकी का भी यही था।

बेशक, कहानी में सुल्ताना के प्रति प्रेमचंद के आकर्षण को ढूँढना पड़ता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गांधी के अनन्य भक्त प्रेमचंद ने अपनी कई कहानियों में सूक्ष्मता से भगत सिंह और उनके साथियों को भी, बिना उनका संदर्भ वृत्तांत में लाये, गौरवान्वित किया है। यहाँ तक कि ‘गोरे अंग्रेज के स्थान पर काले अंग्रेज’ वाली मशहूर उक्ति तक को भी। आज भी डर व्यक्त किया जा रहा है कि नयी शिक्षा नीति प्रभुत्व के इसी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक समीकरण को और स्थायी न कर दे।

 (लेखक विकास नारायण राय रिटायर्ड आईपीएस हैं और हरियाणा के डीजीपी रह चुके हैं।)

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