बनारस लिट फेस्ट: साहित्य की आत्मा से दूर, कृत्रिम चमक-दमक और खाए-पिए-अघाए लोगों का महोत्सव !

Estimated read time 13 min read

वाराणसी। बनारस यानी काशी, जो भारतीय साहित्य और संस्कृति की आत्मा है, जहां तुलसी ने रामचरितमानस की रचना की, जहां कबीर ने दोहों के माध्यम से सामाजिक विकृतियों पर प्रहार किया, जहां रविदास ने अपने पदों में समता और मानवता का संदेश दिया, जहां प्रेमचंद की कहानियों में आम जनजीवन की गूंज सुनाई देती है-वहीं, मार्च 2025 के दूसरे पखवाड़े में आयोजित बनारस लिट फेस्ट साहित्यिक मूल्यों की जगह पूंजी और प्रभुत्व का प्रदर्शन बनकर रह गया।

बनारस लिट फेस्ट में बड़े-बड़े साहित्यकार आए। चमचमाते मंच सजे। वाद-विवाद हुए, पर ये विमर्श नहीं, बल्कि पूर्व-नियोजित प्रदर्शन था। वह बनारस, जिसने अनगिनत साधारणजनों को असाधारण साहित्यकार बनाया, वहां इस उत्सव में आम जनता की न तो कोई भूमिका थी, न उनकी समस्याओं को स्वर मिला। साहित्य, जो समाज का आईना होना चाहिए, वह यहां ग्लैमर और शक्ति-संपन्न वर्ग के लिए मनोरंजन का साधन बना दिया गया।

खांटी बनारसी जानते हैं कि साहित्य जनता का होता है, उसकी धड़कनों, उसकी तकलीफों, उसकी उम्मीदों को अभिव्यक्त करता है। लेकिन इस महोत्सव में जनता कहीं नहीं थी। न उनकी भाषा, न उनकी चिंताएं, न उनके संघर्ष। साहित्य को लेकर होने वाले संवाद आमजन से कोसों दूर थे, उनके सरोकारों को मंच पर स्थान नहीं मिला। काशी की गलियों में पान की दुकानों और गंगा के घाटों पर जो साहित्य जन्म लेता है, जो लोक के जीवन में घुला-मिला होता है, वह इस आयोजन में अदृश्य था।

बनारस लिट फेस्ट ने साहित्य को विशिष्ट वर्ग के नियंत्रण में रखने की मंशा को उजागर किया। साहित्य, जो सत्ताओं को चुनौती देने के लिए होता है, उसे सत्ता-संरक्षित बनाने का प्रयास किया गया। सत्ता और पूंजी के गठजोड़ से साहित्य का एक अभिजात्यकरण हो रहा है, जहां लोक की भाषा को हाशिए पर रखा जा रहा है और विमर्श को सतही बनाया जा रहा है।

व्यापारियों और शिक्षा माफियाओं का गठजोड़

बनारस लिट फेस्ट पर आलोचनात्मक दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह महोत्सव आम जनता से कहीं अधिक साधन-संपन्न और स्थापित लेखकों, व्यापारियों और माफियाओं का आपसी गठजोड़ था। जाने-माने साहित्यकार व कहानीकार रामजी यादव की टिप्पणी इस उत्सव की वास्तविकता को उजागर करती है। उनके अनुसार, “यह कार्यक्रम साहित्य से अधिक मौज-मस्ती, ग्लैमर और पैसे उगाही का मंच बनकर रह गया। यह भी कह सकते हैं कि यह महोत्सव साहित्य की आत्मा से दूरकृत्रिम चमक-दमक और खाए-पिए-अघाए लोगों का था।

रामजी यादव कहते हैं, किसी भी भाषा का साहित्य समाज के हाशिए पर खड़े लोगों से जन्म लेता है और उनकी पक्षधरता करता है, लेकिन इस लिट-फेस्ट ने यह दिखाने की कोशिश की कि यह साहित्य का नहीं, बल्कि बाजारवाद और दिखावे का उत्सव था। इसमें देशभर से नामी-गिरामी लेखकों को बुलाया गया, लेकिन वे महज एक औपचारिकता निभाने तक सीमित रहे।

इस फेस्ट में एक इन्वेस्टर कंपनी ने यह तक प्रचार किया कि यदि आप दुबई में 1.5 करोड़ रुपये निवेश करें तो हर महीने 1 से 1.5 लाख रुपये कमा सकते हैं। यह साहित्यिक महोत्सव कम और व्यापारिक मेल-जोल का मंच अधिक प्रतीत हुआ।”

“काशी लिट फेस्ट केवल लेखकों और साहित्यकारों का मंच नहीं था, बल्कि इसमें व्यापारियों, शिक्षा माफियाओं और स्वास्थ्य माफियाओं का भी गठजोड़ साफ नजर आया। इस गठजोड़ को वैधता देने के लिए दिल्ली और देश के अन्य शहरों से प्रतिष्ठित लेखकों को बुलाकर उन्हें पुरस्कार भी दिए गए। लेकिन जमीनी स्तर पर इस फेस्ट की कोई धमक महसूस नहीं की गई। यह पूरी तरह से थोपा हुआ आयोजन था, जिससे काशी के स्थानीय साहित्यिक परिदृश्य को कोई लाभ नहीं हुआ।”

साहित्यकार रामजी यादव इस लिट-फेस्ट को जनपक्षधर लेखन और पत्रकारिता को हाशिए पर डालने की एक और साजिश बताते हैं। वह कहते हैं, “अब अखबार जनता की आवाज बनने के बजाय सरकारी भोंपू बन चुके हैं और सरकार साहित्यकारों को भी अपनी विचारधारा के अनुसार मोड़ना चाहती है। सत्ता-प्रेरित विचारों को बढ़ावा देने के लिए लिट फेस्ट का आयोजन किया गया, जिसमें स्थापित साहित्यकारों को सम्मान देकर आयोजकों ने खुद को जायज ठहराने की कोशिश की। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इन साहित्यकारों ने कभी यह सोचा कि यह सब किसके लिए और क्यों किया जा रहा है? “

“काशी हजारों वर्षों से साहित्य, संस्कृति और चिंतन का केंद्र रहा है। बुद्ध और महावीर की शिक्षाएं यहीं पली-बढ़ीं, कबीर और रविदास यहीं जन्मे, प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकार ने यहीं से आधुनिक भारतीय समाज का चित्रण किया। काशी के घाटों पर होने वाले शास्त्रार्थ और विचार-विमर्श की परंपरा को छोड़कर यदि किसी पांच सितारा होटल में लिट-फेस्ट जैसा आयोजन होता है, तो यह साफ संकेत देता है कि इस आयोजन का उद्देश्य साहित्य के मूल्यों को बनाए रखना नहीं, बल्कि साहित्य को एक अभिजात्य वर्ग के मनोरंजन तक सीमित कर देना था।”

रामजी यहीं नहीं रुकते। वह यह भी कहते हैं, “काशी लिट फेस्ट का सबसे बड़ा विडंबना यह थी कि इसमें आम जनता कहीं नजर नहीं आई। बेरोजगारी और आर्थिक तंगी के इस दौर में कोई भी साधारण नागरिक ताज होटल जैसी जगह पर जाने की हिम्मत नहीं कर सकता, क्योंकि उसके पास वहां तक पहुंचने के लिए जरूरी कपड़े तक नहीं होते। ऐसे में इस लिट-फेस्ट का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है-यह एक ऐसा आयोजन था, जो सिर्फ खास वर्ग के लोगों के लिए आयोजित किया गया था, और जिसका आम जनता से कोई सरोकार नहीं था।”

“बनारस के जाने-माने साहित्यकार काशीनाथ सिंह को बुलाना लिट-फेस्ट के आयोजकों की मजबूरी थी। इस शहर में कोई दूसरा बड़ा चेहरा नहीं था। साहित्य के मजमे लगेंगे तो जमूरे जुटेंगे ही और वास्तविक साहित्यकारों को अपनी बात कहने का मौका नहीं मिलेगा। वास्तविक साहित्यकार जनता के बीच जाएगा, पांच सितारा होटल में नहीं जाएगा। काशीनाथ सिंह की साहित्यिक कद को भुनाने की यह कोशिश थी ताकि इस आयोजन को वैधता दी जा सके। लेकिन सवाल उठता है कि क्या ऐसे आयोजन किसी भी प्रकार की सार्थक बहस या विचार-विमर्श को जन्म दे सकते हैं? “

रामजी कहते हैं, “वास्तविक साहित्य हमेशा समाज से संवाद करता है, आमजन के दुख-सुख को अभिव्यक्त करता है और हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज बनता है। लेकिन इस प्रकार के आयोजनों में साहित्य महज एक सजावट बनकर रह जाता है, जहां साहित्यकारों की भूमिका दर्शकों के लिए एक प्रदर्शन की तरह होती है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस लिट-फेस्ट में आम साहित्य प्रेमियों के लिए कोई स्थान नहीं था। चर्चा का स्तर सतही रहा, जिसमें गंभीर मुद्दों पर बहस करने की कोई गुंजाइश नहीं थी। काशी जैसे शहर में, जहां साहित्य और विचारधारा की गूंज सदियों से सुनाई देती रही है, वहां इस तरह का आयोजन केवल सत्ता और पूंजी की साजिश का हिस्सा बनकर रह गया।”

रामजी यादव की टिप्पणी इस बात को मजबूती से स्थापित करती है कि काशी लिट-फेस्ट साहित्य के बजाय एक विशिष्ट वर्ग के मनोरंजन और बाजारवाद का प्रतीक बन गया। यह एक ऐसा मंच था, जिससे आम जनता को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। साहित्य का उद्देश्य समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचना होता है, लेकिन इस आयोजन ने साहित्य को एक सीमित दायरे में कैद कर दिया। ऐसे आयोजनों की सार्थकता तभी होगी जब वे जमीनी साहित्य, जनपक्षधर लेखन और समाज के वंचित तबकों की आवाज़ बनेंगे अन्यथा वे केवल खाए-पिए और अघाए लोगों का उत्सव बनकर रह जाएंगे।

बनारस में हिन्दी के विद्वान साहित्यकार राम सुधार सिंह की यह टिप्पणी साहित्य और लिट-फेस्ट के बदलते स्वरूप पर एक गंभीर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है। वे इस बात पर निराशा जताते हैं कि साहित्यिक महोत्सव, जो विचारों के आदान-प्रदान और गहन विमर्श के लिए होने चाहिए, अब मात्र दिखावे और प्रायोजित कार्यक्रमों तक सीमित रह गए हैं। वह कहते हैं, लिट-फेस्ट में एक साथ कई कार्यक्रमों के आयोजन ने श्रोताओं की संख्या को प्रभावित किया, जिससे कोई भी चर्चा प्रभावी नहीं हो पाई। शिक्षा कारोबारी दीपक मधोक ने इस आयोजन को “हाईजैक” कर लिया था, जिससे यह संकेत मिलता है कि किसी खास विचारधारा ने कार्यक्रम को अपनी दिशा में मोड़ दिया।”

साहित्यकार राम सुधार सिंह इस आयोजन को संघ के एजेंडे से जोड़ते हुए कहते हैं कि साहित्य और कला के ऐसे महोत्सव किसी पंचसितारा होटल में नहीं होते, बल्कि वे जमीन से जुड़े होते हैं। साहित्य के “कॉरपोरेटरीकरण” पर भी चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं, “बनारसीपन की जो विशिष्ट पहचान थी, वह लिट-फेस्ट में नदारद रही। वह यह भी आरोप लगाते हैं कि काशीनाथ सिंह को इस कार्यक्रम में जबरन बुलाया गया जबकि उन्होंने पहले आने से इनकार कर दिया था। इसी संदर्भ में वे ज्ञानेंद्रपति की अनुपस्थिति का भी उल्लेख करते हैं, जो हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि हैं।

साहित्यकार राम सुधार सिंह कहते हैं कि प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद जैसे महान साहित्यकारों पर कोई चर्चा नहीं हुई, जबकि काशी के संदर्भ में इनका योगदान अनुपम है। वह कहते हैं, “दलित कवि और चिंतक रविदास पर तो कोई विमर्श ही नहीं हुआ। वे यह भी कहते हैं कि भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर काशीनाथ सिंह को सम्मानित किया गया, लेकिन उनकी कृतियों को विमर्श में शामिल नहीं किया गया। वास्तव में यह आयोजन केवल औपचारिकता मात्र था। यह लिट-फेस्ट महज एक “हवा-हवाई कार्यक्रम” था, जिसमें कोई गंभीर चर्चा नहीं हुई और न ही साहित्य जगत को कोई ठोस संदेश मिला।”

काशी की बहस परंपरा का ह्रास

बनारस, जो शास्त्रार्थ की परंपरा, मत-मतांतरों के समागम और वैचारिक मंथन की पवित्र भूमि रही है, वहां साहित्य को अब पूंजी और सत्ता की चकाचौंध में कैद किया जा रहा है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर मनोज सिंह भी काशी लिट-फेस्ट की नई गढ़ी गई साहित्यिक परंपराओं से आहत दिखते हैं।

वह कहते हैं, “बनारस केवल एक शहर नहीं, यह विचारों और विचारधाराओं का तीर्थ है। यह वह भूमि है जहां कबीर ने कट्टरता को ललकारा, जहां रविदास ने समता और मानवता का संदेश दिया, जहां तुलसी ने भक्ति और लोकमंगल की गाथा लिखी। यह वही काशी है, जहां शब्दों की ताकत किसी सत्ता की मोहताज नहीं थी, जहां साहित्य सिर्फ मनोरंजन या सत्ता-प्रसाद का साधन नहीं, बल्कि समाज का दर्पण था। परंतु इस लिट-फेस्ट में इस परंपरा को ध्वस्त कर दिया गया।”

प्रो.मनोज आगे जोड़ते हैं, “शास्त्रार्थ और बहस की परंपरा को सतही और एकरस चर्चाओं में बदल दिया गया। जनपक्षधर और आलोचनात्मक साहित्य के बजाय यहां ऐसे विमर्श आयोजित हुए, जो सत्ता और बाजार के अनुकूल थे। प्रगतिशीलता की आड़ में साहित्य को सत्ता-समर्थक बनाया गया और जनता की आवाज़ से काट दिया गया। क्या यह साहित्यिक उत्सव केवल उन लोगों के लिए रह गया है, जिनके पास संसाधन और प्रभाव है? क्या काशी का साहित्यिक लोकाचार, जो साधारण से असाधारण रचता था, अब अभिजात्य वर्ग के ड्राइंग रूम तक सिमट जाएगा?”

प्रो. मनोज सिंह साहित्य को बाज़ार और सत्ता की कठपुतली बनाए जाने पर गंभीर सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं, “साहित्य की आत्मा तब तक जीवित रहती है, जब तक वह स्वतंत्र होती है, जब तक वह समाज का दर्पण बनी रहती है। लेकिन इस महोत्सव में साहित्य को एक उत्पाद के रूप में प्रस्तुत किया गया। किताबों के कुछ चुनिंदा स्टाल थे, चर्चाएं भी हुई, लेकिन विचारों की स्वतंत्रता नदारद थी। साहित्य को सत्ता और बाजार की जरूरतों के अनुसार ढालने की कोशिश हुई।”

साहित्य का मेला या बौद्धिक कॉकटेल पार्टी?

काशी, जो संतों, फकीरों, कवियों और विद्वानों की नगरी रही है, वहां साहित्य के नाम पर सत्ता-समर्थक बौद्धिकता का महिमामंडन किया गया। न असहमति को जगह मिली, न सामाजिक संघर्षों को कोई स्वर। यह एक ऐसे बंद क्लब का आयोजन बनकर रह गया, जहां वही चर्चाएं की गईं, जो पहले से तय थीं, और वही बातें बोली गईं, जो प्रायोजकों के अनुकूल थीं।

प्रो. मनोज सिंह अंत में कहते हैं, “काशी के घाटों पर बैठे किसी गुमनाम कवि की पंक्तियां अधिक अर्थपूर्ण होती हैं, किसी नाविक के गीतों में जीवन का सार बसता है, किसी गली में बैठे कथाकार की कहानियां अधिक प्रामाणिक होती हैं-लेकिन इस उत्सव में इन सबकी कोई जगह नहीं थी। यह महज उन लोगों का एक उत्सव था, जो साहित्य को ग्लैमर और ब्रांड के रूप में प्रस्तुत करने आए थे।

“साहित्य केवल लेखकों और बुद्धिजीवियों का नहीं, बल्कि उन सभी का होता है, जो शब्दों के माध्यम से समाज को समझने और समझाने का प्रयास करते हैं। यदि साहित्य आम जनता से कट जाएगा, यदि वह केवल एक शक्ति-संपन्न वर्ग का दास बन जाएगा, तो उसकी आत्मा नष्ट हो जाएगी। काशी, जहां शब्द स्वयं जीवन थे, वहां शब्दों को अब सत्ता की सीढ़ियां बनाने का प्रयास हो रहा है। साहित्य की यह दिशा क्या काशी की विचारशील आत्मा को जीवित रख पाएगी? यह प्रश्न काशी की हवाओं में गूंजता रहेगा।”

पुस्तक प्रेमी आए, लेकिन निराशा ही हाथ लगी

बनारस के साहित्यकारों और पत्रकारों का मानना है कि बनारस लिट-फेस्ट 2025 का आयोजन वैसे तो साहित्यिक महोत्सव के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन इसमें साहित्य से अधिक नाटकीयता, संस्कृति से अधिक सेलिब्रिटी चमक और विमर्श से अधिक तामझाम देखने को मिला। पूरे शहर में माहौल कुछ ऐसा था मानो काशी के घाटों पर साहित्य का कुंभ लगा हो, पर जब उत्सव का पर्दा उठा तो मालूम हुआ कि यह बस कुछ “खाए-पिए-अघाए” लोगों का साहित्यिक मिलन समारोह है, जिसमें चर्चा से अधिक फोटो सेशन और विचार-विमर्श से अधिक पुरस्कार वितरण पर जोर था।

हाशिए के समाज के लिए खबरें लिखने वाले बनारस के पत्रकार एवं अचूक रणनीति के संपादक विनय मौर्य कहते हैं, “ताज होटल के प्रांगण में आयोजित लिट-फेस्ट का पहला कार्यक्रम बड़ा आकर्षण था “नोबेल और बुकर पुरस्कार विजेताओं की उपस्थिति।” सुनने में यह जितना भव्य लगता है, हकीकत उतनी ही दिलचस्प रही। लिट-फेस्ट के आयोजकों ने आम बनारसियों को उत्सव से दूर रखने के लिए डिजिटल प्रवेश प्रणाली लागू कर दी। क्यूआर कोड स्कैन करो, डिजिटल पास डाउनलोड करो, और हां, अगर तुम स्कूली छात्र हो तो यूनिफॉर्म में आओ वरना तुम इस “साहित्यिक स्वर्ग” में कदम नहीं रख सकते। मानो ‘साहित्य की देवी’ अब आधार कार्ड और यूनिफॉर्म देखकर ही दर्शन देने को तैयार हों! “

“लिट-फेस्ट में “भारतेंदु हरिश्चंद्र लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड”, जिसे वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. काशीनाथ सिंह को प्रदान किया गया। सम्मान राशि थी-पूरे एक लाख रुपये! साहित्य के प्रति उनके योगदान को देखते हुए यह राशि एक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं लगी। वहीं, “कालिदास भारतीय भाषा पुरस्कार” के तहत पं. राधा वल्लभ त्रिपाठी को पूरे 51,000 रुपये भेंट किए गए। यानी यह साबित करने का पूरा प्रयास किया गया कि साहित्य प्रेम का नहीं, बल्कि बजट का विषय है।”

विनय कहते हैं, “बुक अवार्ड्स-2025 भी इस समारोह का बड़ा आकर्षण था। मंच पर देश भर के साहित्यकारों, लेखकों और पत्रकारों की भीड़ थी, लेकिन सवाल यह उठता है कि यह मंच किन किताबों का सम्मान कर रहा था? क्या इसमें बनारस उत्तर भारत के उन लेखकों को शामिल किया गया जो बिना किसी गॉडफादर के अपने शब्दों से समाज की तस्वीर खींचते हैं? नहीं! यहां वही लेखक चमकते दिखे, जिनकी किताबें बड़े प्रकाशकों द्वारा प्रायोजित थीं, जिनके विमोचन समारोह में सत्ता के चेहरे नजर आते हैं।”

खाली कुर्सियां और गलचौर करते लोग

“इस फेस्टिवल में कई गंभीर विषयों पर चर्चाएं रखी गईं-समकालीन हिंदी कथा लेखन, भारतीय भाषाओं की स्थिति एवं भविष्य, आदि। लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि इन चर्चाओं में जो बातें उठनी चाहिए थीं, वे नदारद रहीं। जनता के साहित्य, हाशिए के लेखकों, संघर्षशील भाषाओं की कोई चर्चा ही नहीं हुई। पूरा विमर्श एक खास एजेंडे के तहत संचालित होता दिखा, जिसमें बाजार और सत्ता का गठजोड़ साफ झलकता नजर आया।”

आयोजकों का लोक” से कोई सरोकार नहीं

बनारस लिट-फेस्ट में शामिल होने आई शोध छात्रा प्रज्ञा सिंह ने इस आयोजन को लेकर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “यह साहित्यक फेस्टिवल पूरी तरह से एलीट वर्ग के लोगों की ब्रांडिंग का मंच बनकर रह गया। लोक साहित्य, लोकगीत और लोक जीवन पर परिचर्चाएं तो जरूर हुईं, लेकिन इनमें भाग लेने वाले वे लोग थे जिनका लोक से कभी कोई गहरा नाता नहीं रहा।”

प्रज्ञा सिंह ने सवाल उठाते हुए कहा, “लोक साहित्य और लोक जीवन पर चर्चा करने वाले विद्वानों का चयन किन आधारों पर किया गया? क्या लोक के असली प्रतिनिधियों की यहां कोई जगह नहीं थी?” उन्होंने कहा कि जिन लोगों को मंच दिया गया, वे कभी लोकजीवन में रहे ही नहीं। उनका लोक से कोई सीधा जुड़ाव नहीं रहा, फिर भी वे लोकगीतों, लोक संस्कृति और ग्रामीण जीवनशैली पर विमर्श करते दिखे।

शोध छात्रा ने आयोजन समिति की मंशा पर भी सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि यदि लोक साहित्य और लोकसंस्कृति पर गहन चर्चा करनी थी, तो उन लोगों को बुलाया जाना चाहिए था जो वास्तव में ग्रामीण समाज का हिस्सा रहे हैं, जिन्होंने लोकसंस्कृति को जिया है और उसे अपने अनुभवों से समृद्ध किया है। लेकिन, यहां तो चर्चा उन्हीं लोगों के बीच सिमट कर रह गई जो पहले से स्थापित नाम हैं और शहरों में वातानुकूलित चमचमाते कमरों में बैठकर लोक पर अध्ययन करते रहे हैं, लेकिन उन्होंने कभी लोकजीवन की असल चुनौतियों को महसूस नहीं किया।

प्रज्ञा सिंह का मानना है कि काशी लिट-फेस्ट जैसे आयोजनों को केवल बौद्धिक विमर्श तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि इसे अधिक समावेशी बनाना चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि भविष्य में ऐसे आयोजनों में ग्रामीण क्षेत्रों के लोककवि, लोकगायक, किसान, कारीगर और परंपरागत लोक कलाकारों को भी आमंत्रित किया जाए, ताकि लोक पर चर्चा महज किताबी ज्ञान तक सीमित न रहे, बल्कि उसमें वास्तविकता की झलक भी नजर आए।

उनके अनुसार, यदि लिटरेरी फेस्टिवल का उद्देश्य सच में साहित्य और संस्कृति को आगे बढ़ाना है, तो उसे केवल एलीट वर्ग के विमर्श का मंच न बनाकर आमजन की भागीदारी वाला उत्सव बनाया जाना चाहिए। तभी यह आयोजन अपने वास्तविक उद्देश्य को पूरा कर सकेगा।

नोबेलबुकर और बॉलीवुड का संगम

बनारस लिट-फेस्ट में नोबेल और बुकर पुरस्कार विजेताओं के आने की खबरें जोर-शोर से प्रचारित की गईं। कैलाश सत्यार्थी, गीतांजलि श्री, संजय पूरज सिंह, और अमोल पालेकर जैसे नामों को मंच पर लाने के लिए मेहनत की गई, लेकिन यह मेहनत आम जनता को साहित्य से जोड़ने के लिए नहीं, बल्कि आयोजन को ‘भव्य’ दिखाने के लिए थी।

बॉलीवुड और साहित्य का यह नया गठजोड़ दिलचस्प था। फिल्म अभिनेत्री आयशा टाकिया और गायक पं. विश्वमोहन भट्ट तक लिट-फेस्ट में मौजूद थे। सवाल उठता है कि क्या इनकी मौजूदगी से साहित्य का कोई भला हुआ या यह भीड़ जुटाने का तरीका मात्र था? अगर आपको लगता है कि यह आयोजन सिर्फ किताबों और चर्चाओं तक सीमित रहा, तो आप गलत हैं! आठ मार्च को एक शानदार फैशन शो का आयोजन हुआ, जिसमें बनारसी परिधानों का जलवा दिखाया गया। अब सवाल यह उठता है कि क्या फैशन शो साहित्य का हिस्सा है या फिर यह आयोजन महज एक सोशलाइट इवेंट बन गया था?

काशी लिट-फेस्ट 2025 के बुक अवार्ड्स की घोषणा होते ही साहित्य जगत में हलचल मच गई। आखिर 51-51 हजार रुपये का पुरस्कार मिलना कोई साधारण बात नहीं! इस “साहित्यिक महाकुंभ” में ऐसा महसूस हुआ मानो शब्दों की असली कीमत लगा दी गई हो-पूरे इक्यावन हज़ार रुपये! यानी, लेखक महीनों, वर्षों तक रात-रात भर जलते रहें, समाज की सच्चाइयों को उकेरते रहें, और बदले में मिलें 51,000 रुपये और एक चमकता हुआ स्मृति चिह्न।

पुरस्कारों की चमक-दमक के बीच यह सवाल गूंजता रहा कि क्या यह सृजन का उत्सव था या फिर साहित्य का “बाज़ारीकरण” करने की एक और कोशिश? जिस साहित्य को समाज की आत्मा कहा जाता है, उसे इस आयोजन में एक प्रचार अभियान में बदल दिया गया। इस पुरस्कार समारोह में घोषित किताबों की सूची देखने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि साहित्यिक गुणवत्ता की कसौटी पर खरा उतरने से अधिक महत्वपूर्ण यह था कि किताब का प्रकाशक कौन है! अगर किताब किसी बड़े प्रकाशक द्वारा छपी है, तो पुरस्कार की दौड़ में उसकी जगह पक्की थी।

•          फिक्शन के लिए रस्किन बॉन्ड पुरस्कार: इस श्रेणी में जिन उपन्यासों का चयन हुआ, वे साहित्य की गहराई और समाज की सच्चाई बयान करते हैं या फिर एक तयशुदा “बाजारू साहित्य” का हिस्सा हैं?

•          नॉन-फिक्शन के लिए सर्वपल्ली राधाकृष्णन पुरस्कार: इस श्रेणी में इतिहास, राजनीति और समाज पर लिखी किताबें शामिल थीं, लेकिन इनमें से कई सत्ता-समर्थक विमर्श को ही आगे बढ़ाती दिखीं।

•          अनुवाद के लिए रवींद्रनाथ टैगोर पुरस्कार: अनुवाद एक महत्वपूर्ण विधा है, लेकिन पुरस्कारों की यह सूची क्या वाकई उस मेहनत को न्याय देती है, जो एक भाषा को दूसरी भाषा में आत्मा के साथ जीवंत करने में लगती है?

•          कविता के लिए सरोजिनी नायडू पुरस्कार: कवियों को सम्मान देने की परंपरा तो अच्छी है, लेकिन यहां सवाल यह था कि क्या कविता की गूंज समाज तक पहुंच रही थी, या यह केवल विशिष्ट साहित्यिक मंडलियों तक ही सीमित थी?

51 हजार का तमाशाः लेखक खुश हों या दुखी?

अब जरा इस तथाकथित “सम्मान” पर भी गौर करें। एक लेखक सालों की मेहनत और रचनात्मक संघर्ष के बाद समाज की चेतना को झकझोरने वाली किताब लिखता है। बड़े प्रकाशक उसकी किताब छापें या न छापें, यह दूसरी बात है, लेकिन अगर किस्मत से वह इस पुरस्कार की दौड़ में आ जाए तो बदले में 51 हजार रुपये और एक अंगवस्त्रम मिलता है!

लिट-फेस्ट में शामिल एक आंचलिक क्षेत्र से आए साहित्यकार ने कहा कि 51 हजार रुपये… यानी महीने का किराया और दो महीने की राशन सामग्री। यानी लेखक का संघर्ष, उसका समर्पण और उसकी वैचारिक निर्भीकता की असली कीमत 51 हजार रुपये लगाई गई! इससे बेहतर तो कोई कॉर्पोरेट कंपनियां अपने कर्मचारियों को बोनस में दे देती है!

इस पूरे आयोजन का सबसे हास्यास्पद पहलू यह था कि नामचीन प्रकाशनों से छपी किताबों को ही तवज्जो मिली। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि साहित्य अब गुणवत्ता से अधिक “नेटवर्किंग” पर निर्भर करता है। अगर आप सही साहित्यिक लॉबी में शामिल नहीं हैं, अगर आपके प्रकाशक की पहुंच सत्ता और मीडिया तक नहीं है, तो आपके लिए कोई मंच नहीं था।

वरिष्ठ पत्रकार राजीव सिंह कहते हैं, “काशी की गलियों में संघर्ष करते युवा लेखक इस आयोजन से बाहर थे। वे लेखक, जो असली ज़मीनी सच्चाइयों पर लिखते हैं, जिनकी लेखनी बदलाव की चिंगारी पैदा करती है, वे इस लिट-फेस्ट में हाशिए पर थे। बनारस लिट फेस्ट 2025 का यह साहित्यिक तमाशा दर्शाता है कि साहित्य अब विचारों की स्वतंत्रता नहीं, बल्कि “सेलिब्रिटी कल्चर” का हिस्सा बन चुका है। मंच पर बड़े लेखक, नोबेल और बुकर विजेता, फिल्मी हस्तियां और मीडिया के बड़े नाम मौजूद थे, लेकिन उनकी मौजूदगी ने साहित्य की आत्मा को कहीं दूर धकेल दिया।”

“बनारस का साहित्य कभी संघर्ष का प्रतीक था। यह वह भूमि है जहां कबीर ने रूढ़ियों पर प्रहार किया, जहां प्रेमचंद ने गरीबों के दुःख को शब्द दिए, जहां बाबा नागार्जुन की कविता सत्ता को चुनौती देती थी। लेकिन इस आयोजन में साहित्य “इलीट क्लब” का हिस्सा बनकर रह गया। अगर यही साहित्य का भविष्य है, तो काशी के घाटों पर गूंजने वाली वह अनाम आवाज़ें कहां जाएंगी? वे कवि, जो नुक्कड़ों पर खड़े होकर समाज का सच लिखते हैं, वे लेखक, जो बिना किसी बड़े प्रकाशक के भी पाठकों के दिलों तक पहुंचते हैं-उनके लिए कोई मंच क्यों नहीं? “

बनारस की आत्मा कहां थी?

काशी लिट-फेस्ट में सिर्फ तीन प्रकाशकों के स्टाल लगे थे, जिनमें एक ‘पिल्यिम्स बुक हाउस’ का स्टाल भी था। यहां दुर्लभ ग्रंथों और भारतीय ज्ञान परंपरा के अनमोल मोती सहेजे गए थे। लेकिन यह साहित्यिक संगोष्ठी विचारों के मंथन की भूमि बनने के बजाय बाजार और कोलाहल का अड्डा बन गई। आयोजकों ने हर स्टॉल से मोटी धनराशि वसूली, लेकिन बुनियादी व्यवस्थाओं तक का ध्यान नहीं रखा।

‘जनचौक’ से बातचीत में ‘पिल्यिम्स बुक हाउस’ के संस्थापक सनातनी रामानंद की निराशा साफ झलकती है। वह कहते हैं,”हम यहां साहित्य के सच्चे साधकों से मिलने आए थे, लेकिन माहौल कुछ और ही था। जिस स्थान पर पुस्तकों का स्टाल लगाया गया, वहां बड़े-बड़े डीजे गूंज रहे थे। शोर और धूम-धड़ाके के बीच गंभीर साहित्यिक संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं बची। कुछ गिने-चुने पाठक पहुंचे, लेकिन उन्हें भी हमारी पुस्तकों के बारे में कुछ बता पाना मुश्किल था, क्योंकि डीजे के शोर में शब्द बेमानी हो गए थे।”

इस लिट फेस्ट में बौद्धिक विमर्शों की जगह सेल्फी और रील्स बनाने वालों की भीड़ ज्यादा दिखी। फेस्टिवल में पुस्तक प्रेमियों की उपस्थिति कम और शोरगुल की उपस्थिति अधिक थी। रामानंद जी बताते हैं कि काशी में उन्होंने ‘शास्त्र मंदिर’ की स्थापना का संकल्प लिया है-एक ऐसा केंद्र, जो न केवल शास्त्रों का संग्रहालय होगा, बल्कि भारतीय ज्ञान परंपरा का जीवंत अनुभव भी देगा। उनके पास 8000 से अधिक दुर्लभ ग्रंथ और 18 हस्तलिखित पुराणों का भंडार है, लेकिन काशी लिट-फेस्ट में उन्हें वैसा वातावरण नहीं मिला, जिसकी उन्होंने कल्पना की थी।

खाली रहे बुक स्टाल, पुस्तक प्रेमी नदारद

वह अफसोस जाहिर करते हुए कहते हैं, “काशी, जो शास्त्रार्थ की भूमि रही है, जहां संतों और विचारकों ने ज्ञान की मशाल जलाए रखी, वहां साहित्य को एक तमाशा बना देना दुर्भाग्यपूर्ण है। आयोजकों को सोचना होगा कि क्या लिट-फेस्ट केवल दिखावे और तड़क-भड़क के लिए है, या यह सचमुच साहित्य के साधकों के लिए एक मंच बनेगा? उम्मीद है कि भविष्य में इस आयोजन की आत्मा को पुनर्जीवित किया जाएगा।”

सितारा होटल में आयोजित बनारस लिट-फेस्ट पर काशी के साहित्यकारों में अजीब सा कोलाहल है। जिन साहित्यकारों ने इस कार्यक्रम से खुद को अलग रखा, उनका कहना था कि साहित्य का यह “विशिष्ट उत्सव” काशी की आत्मा से कोसों दूर रहा। इसमें साहित्य नहीं, बल्कि एक अभिजात्य वर्ग का बौद्धिक दिखावा ज्यादा दिखा। यह एक ऐसा मंच था, जहां शब्दों की जगह सेल्फी ने ले ली, जहां विमर्श से ज्यादा प्रायोजकों के होर्डिंग चमकते रहे, और जहां साहित्य की जगह सिर्फ नेटवर्किंग का बाजार लगा था।

बनारसी साहित्यकारों का मानना था कि बनारस लिट फेस्ट ने यह साबित कर दिया कि आज साहित्य को भी एक व्यापारिक आयोजन में बदलने की कोशिश की जा रही है। यह साहित्य का बाज़ारीकरण और अभिजात्यकरण है, जिससे इसकी वास्तविक शक्ति समाप्त हो रही है। काशी के घाटों पर जो साहित्य सांस लेता है, वह यहां घुटता हुआ दिखा। यह आयोजन साहित्य की आत्मा से दूर और कृत्रिम चमक-दमक के करीब था।

बनारस लिट-फेस्ट में इस शहर के प्रतिष्ठित चित्रकारों की कृतियां बड़े दावों के साथ प्रदर्शित की गईं। आयोजकों ने आश्वासन दिया था कि ये पेंटिंग्स हाथों-हाथ बिकेंगी और कलाकारों को अच्छा लाभ मिलेगा। लेकिन हकीकत कुछ और ही थी। पूरे आयोजन के दौरान एक भी पेंटिंग नहीं बिकी।

मायूस हुए चित्रकार

आखिरी दिन, जब उम्मीदें पूरी तरह बिखर चुकी थीं, चित्रकारों को महज़ एक प्रमाण-पत्र थमाकर वापस लौटा दिया गया। कला को बाजार में उतारने की यह कोशिश महज एक दिखावा साबित हुई, और बनारस के कलाकारों के सपने आयोजनों की भव्यता के नीचे दबकर रह गए। लिट-फेस्ट में स्टोन जाली क्राफ्ट और गलीचों के स्टाल लगे थे, लेकिन खरीदार नदारद रहे, जबकि इनसे खासी धनराशि वसूली गई थी।

साहित्य की आत्मा या बाजार का तमाशा?

बीएचयू के प्रोफेसर और हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक रामाज्ञा राय मानते हैं कि बनारस लिट-फेस्ट अपनी मूल चेतना से भटककर जयपुर और कलिंग लिट-फेस्ट की तरह पूंजी और अभिजात्य संस्कृति के प्रभाव में ढल गया है। बनारस, जो सहस्त्राब्दियों से साहित्यिक चिंतन का केंद्र रहा है, आज साहित्यिक उपेक्षा की पीड़ा झेल रहा है। यहां का सृजन, प्रकाशन, संगठन और साहित्यिक संस्थाएं या तो मृतप्राय हैं या निष्क्रिय, और इसी जड़ता के बीच यह आयोजन केवल साहित्यकारों की उपस्थिति तक सिमटकर रह गया-दर्शक और श्रोता कहीं गुम थे।

रामाज्ञा राय बनारस की साहित्यिक आत्मा को “सड़क का साहित्य” कहते हैं। उनका मानना है कि कबीर से लेकर धूमिल तक, यहां की सृजनशीलता गलियों और घाटों में पनपी है, न कि किसी भव्य होटल या राजसी मंच पर। अन्य नगरों में यह बनावटीपन स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन बनारस की माटी इसे सहज नहीं ले सकती। यही कारण है कि इस लिट-फेस्ट में साहित्य तो दिखा, पर बनारसी आत्मा अनुपस्थित रही।

वह कहते हैं, “काशी की बुनियादी विशेषता यही रही है कि यहां तमाम विचारधाराएं अंततः श्मशान की राख में समा जाती हैं। यहां लेखक या तो पुरोहित बन जाता है या महंत। लिट-फेस्ट के इस महोत्सव में भी यही परिदृश्य नजर आया-अधिकांश लेखक या तो स्थापित सत्ता का स्तुतिगान कर रहे थे, या फिर बाजार के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुके थे।”

बनारस लिट फेस्ट की चकाचौंध में शब्दों की आत्मा कहीं खो गई। यह आयोजन साहित्य के सच्चे रसिकों और विचारशील मस्तिष्कों के लिए था या केवल एक ब्रांडेड इवेंट बनकर रह गया? यह सवाल उठना स्वाभाविक है। काशी के असली रचनाकार-वे जो गंगा के घाटों पर बैठकर कहानियां गढ़ते हैं, वे कवि जो नुक्कड़ों पर अपनी रचनाएं सुनाते हैं, वे किस्सागो जो गलियों में लोककथाएं बुनते हैं-सब इस उत्सव से नदारद थे।

रामाज्ञा राय की बेबाक टिप्पणी है, “लिट फेस्ट 2025 हमें यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या साहित्य अब केवल अभिजात्य वर्ग की बौद्धिक दावत बनकर रह गया है? क्या वह जनता की संवेदनाओं, संघर्षों और उनकी वास्तविक आवाज़ से कट चुका है? जब साहित्य केवल कुछ बड़े आयोजकों, प्रकाशकों और नामचीन चेहरों के बीच सीमित हो जाए, जब पुरस्कार साहित्य की गुणवत्ता के बजाय नेटवर्किंग पर निर्भर हो जाएं, तब यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि साहित्य अब जनता की धड़कन नहीं रहा।”

काशी का साहित्य कभी असहमति और प्रतिरोध की ऊर्जा से उपजा था, लेकिन 2025 के इस लिट-फेस्ट ने इसे बाजार के हाथों बेच दिया। यह आयोजन एक तमाशा बनकर रह गया-जहां साहित्य कम था, सेल्फी ज्यादा; विचार कम थे, प्रचार अधिक  और लेखनी से अधिक राजनीति की सुगबुगाहट सुनाई दी।

चवन्नी के चंदन से बदली पहचान

पूर्वांचल की माटी जुड़े दिल्ली के जाने-माने साहित्यकार अनिल कुमार यादव ने लिट-फेस्ट के बाद अपने फेसबुक वाल पर कुछ साहित्यकारों की तस्वीर पोस्ट करते एक गंभीर टिप्पणी लिखी है। हिन्दी की एक कथाकार पर तीखी टिप्पणी करते हुए अनिल लिखते हैं है, “चवन्नी के चंदन से आपकी पहचान बदल दे रहे हैं और आप खुश हैं!”

प्रिय लेखकों, आप क्या बताना चाहते हैं, दो दिन के लिए काशी आकर धार्मिक और बनारसी हो गए हैं, दो दिन बाद किसी और शहर में जाकर किन्हीं और प्रतीकों वाली तस्वीरें लगाएंगे और ‘वह’ हो जाएंगे। हम चालू नेताओं को चुनाव में पगड़ी-तलवार-टोपी-साफा-गदा-त्रिशूल के इस्तेमाल से ऐसा होते देखने के आदी हैं।

अगर आप बनारसी हैं तो इसी शहर में जो पुश्तों से रहने वाले ऐसा चंदन नहीं पोतते (डोम, कबीरपंथी, निषाद, मुसलमान, जुलाहे, रैदासी या अन्य शैलियों के तिलक लगाने वाले हिंदू) वे क्या हैं? आपने जरा देर के लिए अपना भाल किसी को दिया और आपकी छवि चमक उठी लेकिन सोचिए कैसा साम्य है- क्या आरएसएस-भाजपा ने सत्ता के लिए नाना मतों, संप्रदायों, विचारों, पूजा पद्धतियों, परंपराओं वाले हिंदू समाज पर जयश्रीराम, भगवा, मुसलमानों-इसाईयों से नफरत का ऐसा ही पोचारा मारकर अपनी राजनीति को हिंसक ढंग से नहीं चमका दिया है, यहीं जब अपनी ब्रांडिंग के लिए हर-हर मोदी का नारा लगवाया गया या मोदी ने कहा, मां गंगा ने बुलाया है या परमात्मा का भेजा स्पेशल अवतारी हूं तब क्रमशः महादेव, गंगा और सनातन पर कुटिलता से ऐसा ही सस्ता लेप नहीं चढ़ाया जा रहा था।

आपको देश के विभिन्न शहरों में लिट-फेस्ट के आयोजक आपकी बौद्धिक पहचान, हुनर और साख (क्योंकि उसके बिना प्रायोजक नहीं मिलते) के लिए बुलाते थे, लेकिन बोलने नहीं देते थे, आतिथ्य के अनकहे अतिरेक और कारपोरेटी विनम्रता से समझा देते थे खाइए-पीजिए-घूमिए, जनता का मनोरंजन करना हमें आता है।

इतने रंगारंग और टाइट शिड्यूल में इससे ज्यादा कुछ नहीं हो सकता। लेकिन यहां पहली बार मेरे अपने शहर में ऐसे ‘परम’ दिखाई दे रहे हैं जो चवन्नी के चंदन से आपकी पहचान बदल दे रहे हैं और आप खुश हैं, बहाना तक नहीं बना पा रहे हैं- मैंने गंगा स्नान नहीं किया है, कैसे चंदन लगवा लूं।

सोचिए, आप रोज बहुरूपिया की तरह अपनी पहचान बदलते रहे तो आपके किस रूप को विमर्श के लिए आमंत्रित किया जाएगा। तब आप जो लिखेंगे या बोलेंगे- क्या उसे वैश्विक या ‘ग्लोबल’ नहीं कहा जाना चाहिए? (बस एक निवेदन है, यह न कहिएगा कि मैं आपकी प्रसन्नता, सफलता और ग्लैमर से जल रहा हूं।)

(विजय विनीत काशी के वरिष्ठ पत्रकार हैं और ज्वलंत मुद्दों पर गहरी समझ के साथ ग्राउंड रिपोर्ट लिखते हैं)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author